अमेरिका में ऐसा हुआ है कि कुछ राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पॉपुलर वोट शेयर में आगे रहने के बावजूद चुनाव हार गए. 2016 में ये हिलेरी क्लिंटन के साथ हुआ और साल 2000 में अल गोर भी ये झेल चुके हैं. हालांकि भारत में ऐसा बहुत कम हुआ है. हाल ही में मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कांग्रेस से 47,827 वोट ज्यादा मिले लेकिन तब भी वो चुनाव हार गए. अगर इस आंकड़े को वोट प्रतिशत के लिहाज से देखें तो बीजेपी को कांग्रेस से 0.1% ज्यादा वोट मिले लेकिन फिर भी कांग्रेस ने 114 सीटें जीतीं तो वहीं बीजेपी को 109 से संतोष करना पड़ा.
सिर्फ एक और राज्य जहां ऐसा हुआ वो कर्नाटक है. 2008 के चुनाव में वहां कांग्रेस को बीजेपी से 0.9 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले थे लेकिन सीटों की संख्या 30 कम थी. इसी साल कर्नाटक के ही विधानसभा चुनावों में ऐसा हुआ. बीजेपी को 2 प्रतिशत कम वोट मिले लेकिन उन्होंने कांग्रेस से 26 सीटें ज्यादा जीतीं. हालांकि वो बात अलग है कि बाद में कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर वहां सरकार बना ली.
ऐसा होने के पीछे की बड़ी वजह बीजेपी, कांग्रेस और जेडीएस के वोट बैंक का कर्नाटक के अलग-अलग हिस्सों में बंटा होना है. जेडीएस राज्य के दक्षिण पूर्वी इलाके में ओल्ड मैसूर क्षेत्र में काफी मजबूत है और पारंपरिक तौर पर राज्य के दूसरे हिस्सों में कमजोर है. जबकि इसका उल्टा बीजेपी ओल्ड मैसूर इलाके को छोड़कर राज्य के बाकी सभी इलाकों में मजबूत है. कांग्रेस का वोट बैंक राज्य में समान रूप में फैला हुआ है. इसलिए ही सीटों और वोट शेयर में बड़ा अंतर देखने को मिला. कांग्रेस को ओल्ड मैसूर क्षेत्र में जेडीएस के हाथों हार मिली, वहां बीजेपी बहुत ही पीछे थी. तो वहीं राज्य के दूसरे हिस्सों में कांग्रेस ने बीजेपी से काफी सीटें गंवाईं जहां जेडीएस की कोई मौजूदगी ही नहीं थी.
मध्य प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही हुआ, यहां अच्छे वोट पाकर भी बीजेपी की हार के तीन कारण दिखाई देते हैं...
पहला कारण ये कि एमपी में कर्नाटक की तरह कोई जेडीएस जैसी तीसरी पार्टी नहीं थी तो कुछ ऐसी सीटें जहां कांग्रेस कमजोर थी वहां गैर-कांग्रेसी उम्मीदवारों के पास एंटी-बीजेपी वोट चला गया.
दूसरा कारण ये कि मध्यप्रदेश में बीजेपी का वोट बराबर संख्या में फैला हुआ था.
तीसरा कारण ये कि बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस ने वोट के छोटे मार्जिन से ज्यादा सीटें जीतीं.
कुछ वोटर्स ने बीजेपी को हराने के लिए ‘अन्य’ को चुना
मध्यप्रदेश में 7 सीटों पर गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई उम्मीदवार जीते. इनमें से दो सीटें बहुजन समाज पार्टी, 1 सीट समाजवादी पार्टी और 4 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीतीं. इन 7 में से 6 सीटों पर बीजेपी दूसरे स्थान पर रही और कांग्रेस दूर-दूर तक यहां नहीं दिखी. यहां का रिजल्ट कुछ-कुछ कर्नाटक के ओल्ड मैसूर जैसा ही रहा.
हालांकि एक पॉइंट ऐसा है जहां मध्यप्रदेश के हालात कर्नाटक से थोड़े जुदा हैं. ये सभी सातों सीटें एमपी के किसी एक विशेष इलाकों में नहीं हैं और न ही यहां ओल्ड मैसूर में बीजेपी की तरह यहां कांग्रेस कमजोर है.
इन सात अन्य वाली सीटों में से तीन सीट ऐसी हैं जहां कांग्रेस के बागी नेताओं ने जीत दर्ज की. गौर करने वाली बात ये कि साल 2013 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले यहां पर कांग्रेस के वोट शेयर में भारी कमी आई है.
बीजेपी के वोट बराबर-बराबर पूरे इलाके में बंटा है
कर्नाटक में कांग्रेस की तरह ही मध्यप्रदेश में बीजेपी का वोट अलग-अलग इलाकों में बराबर-बराबर बंटा हुआ है. पार्टी ने कुल 222 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिनमें से 109 पर वो जीते और 113 में वो दूसरे स्थान पर रहे. वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस ने 211 सीटों पर चुनाव लड़ा और उन्हें 114 में जीत मिली और 97 पर वो दूसरे स्थान पर रहे. कर्नाटक में बीजेपी की तरह ही कांग्रेस पार्टी एमपी में ज्यादा सीटों पर मुख्य रेस से बाहर थी.
मध्यप्रदेश में 14 सीटों पर कांग्रेस पार्टी तीसरे स्थान पर रही और पांच सीटों पर तो इससे भी बुरा प्रदर्शन रहा. वहीं बीजेपी सिर्फ 7 सीटों में तीसरे स्थान पर रही और सिर्फ एक जगह वो चौथे नंबर पर थे. अक्सर जिन पार्टियों का वोटबैंक एक जगह या क्षेत्र में संगठित नहीं रहता वो ज्यादा नुकसान में रहती हैं. 2014 लोकसभा में हमने देखा भी जब देशभर में 19 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिली.
कांग्रेस ने छोटे मार्जिन से ज्यादा सीटें जीतीं
एमपी में कई सीटों पर कांटे की टक्कर थी इसलिए ही 11 दिसंबर को रात तक काउंटिंग चलती रही. 10 सीटों पर 1000 वोट से भी कम का मार्जिन था. कांग्रेस ने इनमें से 7 सीट जीतीं और बीजेपी ने तीन. दो सीटों पर तो विजेता और उपविजेता में 500 से भी कम वोट का अंतर था. कांग्रेस ने ये दोनों सीटें जीतीं.
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