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अयोध्या केस: हिंदुओं ने मंदिर के पक्ष में SC के सामने रखे ये सबूत

सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने शनिवार, 9 नवंबर को अयोध्या मसले पर फैसला सुनाया.

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सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने शनिवार, 9 नवम्बर को अयोध्या मसले पर फैसला सुनाया. एकमत से दिये 1,045 पन्नों के फैसले में कहा गया कि विवादास्पद स्थल पर ‘राम लला विराजमान’ का हक होगा, जिनका प्रतिनिधित्व उनके 'नेक्स्ट बेस्ट फ्रेंड' कर रहे हैं. कुल मिलाकर ये फैसला हिन्दू समुदाय के पक्ष में है. जिस जगह पर उन्होंने लम्बे समय तक भगवान राम की पूजा की, वो जगह उन्हें सौंप दी गई.

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अब केन्द्र सरकार को एक ट्रस्ट का गठन करना है, जो विवादास्पद जमीन का अधिग्रहण करेगी. इस जमीन में एक भीतरी और एक बाहरी चबूतरा है. यहां राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा. इस प्रकार राम लला विराजमान का दायर मुकदमा उनके पक्ष में गया.

संविधान की धारा 142 के तहत (‘सम्पूर्ण न्याय’ करना) अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए माना गया कि 1949 में बाबरी मस्जिद के भीतर मूर्तियां रखकर और 1992 में मस्जिद गिराकर मुस्लिम समुदाय के साथ गलत बर्ताव किया गया. सुन्नी वक्फ बोर्ड को केन्द्र या उत्तर प्रदेश सरकार 5 एकड़ जमीन देगी. इस प्रकार 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड की दायर याचिका पर उसे ‘आंशिक तौर पर जीत’ मिली.

तीसरी मुख्य याचिका निर्मोही अखाड़ा की थी, जो 1959 में दायर की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ये याचिका समय सीमा के भीतर नहीं डाली गई और अखाड़ा ये भी साबित नहीं कर पाया कि वो शबैत (यानी पुजारी) थे.

लेकिन क्या कोर्ट ने अपना फैसला वाकई राम लला और हिन्दू समुदाय के पक्ष में दिया है? विवादास्पद जमीन के लिए कानूनी लड़ाई में आखिर किसकी जीत हुई और कौन हारा? फैसले के कुछ मुख्य हिस्से इन सवालों का जवाब दे रहे हैं

‘समग्र जमीन’

इस मामले में जजों का एक प्रमुख फैसला जमीन को विभिन्न पक्षों के बीच नहीं बांटने का था. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2010 में दिये अपने फैसले में जमीन को बांट दिया था. उस फैसले से न तो विभिन्न पक्ष संतुष्ट थे और न ही ये फैसला न्यायसंगत था.

मुकदमे में जमीन के बंटवारे के लिए कोई मांग नहीं की गई थी. लिहाजा हाईकोर्ट का फैसला दलीलों से इतर था, जो निचली अदालत या हाई कोर्ट में दायर सिविल सूट में संभव नहीं है.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट का रुख इस तकनीकी खामी से परे था – महत्त्वपूर्ण था कि संविधान की धारा 142 के तहत मिले अधिकारों के कारण वो हाई कोर्ट के फैसले की सीमा में बंधा हुआ नहीं था.

कई सालों तक उस जमीन का इस्तेमाल कैसे किया गया, इससे जुड़े सुबूतों की पड़ताल करने के बाद सभी जज इस बात पर राजी हुए कि ये जगह एक “समग्र स्थान” है, और विभिन्न पक्षों का इसके विभिन्न हिस्सों पर कब्जा नहीं है. 1850 में साम्प्रदायिक हिंसा के बाद हिन्दुओं और मुस्लिमों के पूजास्थल के बीच एक रेलिंग बना दी गई थी. फैसले से ये तय करने में मदद मिलना था कि विवादास्पद जगह पर कौन अपना हक साबित करने में सफल हो पाता है.

फैसले का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा: भीतरी और बाहरी चबूतरे पर हक

इस जमीन पर कोई भी पक्ष खरीद या अनुदान अथवा दूसरे औपचारिक तरीकों से जमीन हासिल करने से जुड़ा सबूत पेश नहीं कर पाया.

हिन्दू पक्ष ने कभी ऐसी कोशिश नहीं की क्योंकि उनका मानना है कि ये भगवान राम की जन्मभूमि है और सदियों से पूजा स्थल रही है. लेकिन वक्फ बोर्ड ने साबित करने की कोशिश की, कि उन्हें मुगलों के समय से इस जमीन के लिए अनुदान मिल रहा है. इस अनुदान को ब्रिटिश शासनकाल में तैयार किये गए जमीन के रिकॉर्ड में भी मान्यता मिली थी.

लेकिन उनके पेश किये गए सुबूत को कोर्ट ने योग्य नहीं पाया. कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड की उस दलील को भी खारिज कर दिया, जिसमें मस्जिद और स्थल पर 1857 तक अधिकार का दावा किया गया था, क्योंकि लगातार अधिकार दिखने वाले साक्ष्य नहीं पेश किये गए थे.

इसका मतलब है कि जो पार्टी जमीन पर अपना कब्जा साबित करती, फैसला उसी के पक्ष में जाना था. सीधे शब्दों में कहा जाए तो जमीन से जुड़े कागजात खो जाने या बर्बाद हो जाने के कारण कब्जा के आधार पर ही फैसला सुनाया जाता है.

मुस्लिम पक्ष ने क्या साबित किया?

सुन्नी वक्फ बोर्ड 1856-7 से पहले मस्जिद पर कब्जा और वहां नमाज पढ़ने का कोई सबूत नहीं पेश कर पाया. उनके वकील राजीव धवन ने भी ये स्वीकार किया (फैसले का पैरा 741 देखें).

ये वक्फ बोर्ड के लिए भारी धक्का था, क्योंकि कोर्ट ने इसका मतलब निकाला कि “1857 से पहले विवादास्पद स्थल पर मुस्लिम समुदाय के नमाज पढ़ने का कोई सुबूत नहीं है.”

ब्रिटिश प्रशासन ने मस्जिद के चारों ओर एक रेलिंग बनाई, जो भीतरी और बाहरी चबूतरे को अलग करती थी. इस रेलिंग के जरिये किसी का स्वामित्व साबित नहीं हो पाया, क्योंकि ये रेलिंग कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए बनाई गई थी.

मुस्लिम पक्ष 1857 के बाद से ना तो भीतरी हिस्से पर और ना ही बाहरी भाग पर अपना कब्जा साबित नहीं कर पाया. रुकावटें और भी थीं. 1857 और 1949 के बीच कई बार इस स्थान को लेकर विवाद हुआ. इनमें 1934 में हुआ साम्प्रदायिक दंगा भी शामिल था, जिसके कारण बाबरी मस्जिद को नुकसान पहुंचा था.

हिंदू पक्ष ने क्या साबित किया?
  • दूसरी ओर हिन्दू पक्ष ने साबित किया कि 1857 से पहले वो मस्जिद समेत पूरे स्थान पर पूजा करते थे. इस दावे से जुड़े सुबूत थे:
  • ASI की रिपोर्ट, जिसके मुताबिक यहां 12वीं सदी के आसपास हिन्दू पूजा स्थल की मौजूदगी के सुबूत मिले;
  • ऐतिहासिक यात्रा वृत्तांत, जिनमें इस स्थान पर विशेष पूजा स्थल और परिक्रमा स्थल होने  के अलावा नियमित पूजा का जिक्र किया गया.
  • 1857 के बाद हिन्दुओं को भीतरी चबूतरे के कुछ हिस्सों और बाहरी चबूतरे पर कब्जा मिला, जिसे वो राम चबूतरा, सीता रसोई इत्यादि के रूप में पूजते थे. प्रशासन की अनुमति से उन्हें बाहरी चबूतरे का पूरा कब्जा मिल गया.
  • महत्त्वपूर्ण बात ये है कि हिन्दू पक्ष साबित करने में सफल रहा कि 1857 के पहले और बाद भी भीतरी चबूतरे पर उनका कब्जा था. इसके समर्थन में दिये गए सुबूत थे:
  • राम चबूतरा और सीता रसोई के अलावा तीन गुम्बद परिसर के भीतर स्थित ‘गर्भ गृह के भी दर्शन करने की चश्मदीदों की गवाही;
  • मस्जिद के भीतर कसौटी पत्थर से बने खम्भों की पूजा करने की हिन्दू चश्मदीदों की गवाही;
  • मस्जिद के भीतर और बाहर हिन्दू धर्म के महत्त्व की निशानियों की मौजूदगी स्वीकारने से जुड़ी मुस्लिम चश्मदीदों की गवाही.

संतुलन बनाने की प्रक्रिया पर सवाल?

फैसले का पैरा 800 बताता है कि जजों ने किस प्रकार हिन्दू और मुस्लिम पक्षों के सबूतों का आकलन किया:

“... संतुलित संभावनाओं को देखते हुए समग्र विवादास्पद स्थल पर अधिकार के हिन्दू पक्ष के दावे मुस्लिम पक्ष के दावों की तुलना में मजबूत प्रतीत हुए ...”

इस नजरिये से पूरे स्थल को समग्र रूप में देखना महत्त्वपूर्ण है. अगर विवादास्पद स्थल को भीतरी चबूतरे और बाहरी चबूतरे में बंटा हुआ दिखाया जाता, तो हो सकता है कि साक्ष्यों के आधार पर हिन्दुओं को बाहरी चबूतरे और मुस्लिम समुदाय को भीतरी चबूतरे का अधिकार दिया जाता.

पूरे स्थल को समग्र रूप में आंकने के लिए कोर्ट को इस बात पर ध्यान देना था कि किसने अपना अधिकार साबित किया है. कोर्ट ने पाया:

  1. 1867 से पहले: अधिकार से जुड़े खास सबूतों के जरिये सिर्फ हिन्दू पक्ष ने अपना अधिकार साबित किया.
  2. 1857 के बाद: हिन्दू पक्ष ने बाहरी चबूतरे पर लगातार अधिकार साबित किया. ये भी साबित किया कि वो अंदरूनी चबूतरे पर कब्जा पाने के लिए केस लड़ रहे हैं. दूसरी ओर मुस्लिम पक्ष ने अंदरूनी चबूतरे पर अपना अधिकार तो साबित किया, लेकिन खासतौर से सिर्फ अंदरूनी चबूतरे पर अधिकार का दावा नहीं किया.

इस कारण फैसला हिन्दू पक्ष के समर्थन में गया, न कि मुस्लिम पक्ष के

संतुलन बनाने की इस प्रक्रिया से जुड़े कुछ सवाल हैं. एक सवाल ये भी है कि क्या दोनों पक्षों के अधिकार का दावा करने पर भी यही नुस्खा अपनाया जाता? इस सवाल का जवाब मुस्लिम पक्ष की पैरवी करने वाली सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की टीम के सदस्य निजाम पाशा इस प्रकार देते हैं:

“अदालत ने पाया कि बाहरी चबूतरे पर सिर्फ हिन्दुओं का अधिकार है और वो दीवार के बाहर से अंदरूनी चबूतरे की पूजा करते हैं. इस बात के भी रिकॉर्ड हैं कि उन्होंने अंदरूनी चबूतरे पर मुस्लिम कब्जे को चुनौती दी है.इसे देखते हुए कोर्ट ने दीवार के जरिये बंटवारे को खारिज करते हुए पूरी परिसम्पत्ति पर उनके अधिकार को मान्यता दी है. मुस्लिम समुदाय सिर्फ अंदरूनी चबूतरे पर नमाज अदा करता था और उन्होंने सिर्फ अंदरूनी चबूतरे पर हिन्दू पक्ष के दावों को चुनौती दी थी. अंदरूनी चबूतरे पर उनका अधिकार अकेला नहीं था, लिहाजा फैसला उनके पक्ष में नहीं गया.इस प्रकार पूरी तरह अलग मान्यता अपनाते हुए और बंटवारे की दीवार को तोड़ने की चाहत रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूरे स्थल पर पूजा करने के आधार पर हिन्दुओं के पक्ष में फैसला सुनाया और अंदरूनी हिस्से में नमाज अदा करने के बावजूद मुस्लिम पक्ष के विरोध में फैसला गया.  

कोर्ट ने माना कि 1949 में मूर्तियां रखने के कारण मस्जिद की पवित्रता भंग हुई है, जिसके बाद प्रशासन को उसे अपने कब्जे में लेना पड़ा. 1992 में गैरकानूनी तरीके से बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुस्लिम समुदाय को मस्जिद से हटना पड़ा.

इस कारण जजों ने संविधान की धारा 142 में दिये अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इस गलती को सुधारने का प्रयास किया. हालांकि हिन्दू पक्ष की दलीलें मजबूत थीं, लेकिन उन्होंने पृष्ठ 923 में लिखा:

“इंसाफ तब तक पूरा नहीं होगा, जब तक मुस्लिम समुदाय को उनका हक नहीं दिया जाए. एक ऐसे माध्यम के कारण उन्हें मस्जिद से वंचित होना पड़ा, जो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश के नियमों के अनुकूल नहीं है.”

नतीजा ये निकला कि कोर्ट ने 1993 में विवादास्पद स्थल के आसपास केन्द्र की अधिगृहित जमीन में से या उत्तर प्रदेश सरकार को अयोध्या के किसी महत्त्वपूर्ण स्थल पर सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन देने का आदेश दिया.

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