करीब 80 साल के एक बुजुर्ग. बातें अब उन्हें साफ-साफ समझ नहीं आतीं. पूछिए कुछ तो जवाब कुछ और देते हैं. कुछ से कुछ बड़बड़ाने लगते हैं. क्या कोई ऐसा शख्स एक ताकतवर 'संप्रभु राष्ट्र' के लिए खतरा हो सकता है? जिसे आज चार कदम चलने के लिए भी दूसरों का सहारा लेना पड़ता है, क्या वो कानून से बचने के लिए भाग सकता है? जवाब आप दीजिए.
कोरोना संक्रमित हैं वरवर
कवि और एक्टिविस्ट वरवर राव की जमानत की अर्जियां ठुकराई जाती रहीं. उनका परिवार कहता रहा कि हमारी भीड़ भरी जेलों में कोरोना संक्रमण का बड़ा खतरा है, उन्हें बाहर आने दीजिए लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली. तब भी नहीं मिली जब सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि कोरोना को देखते हुए जेलों में भीड़ कम करने की जरूरत है. अब ये बात भी स्थापित हो चुकी है कि कोरोना का वायरस बुजुर्गों के लिए ज्यादा खतरनाक है. ऐसे लोगों के लिए ज्यादा घातक है जो दूसरी बीमारियों से पीड़ित हैं. लेकिन वरवर राव को भीड़ भरी तलोजा जेल से बाहर जाने नहीं दिया गया. वही हुआ जिसका अंदेशा था. वरवर राव अब कोरोना संक्रमित हो चुके हैं. नवी मुंबई के तलोजा जेल से उन्हें भायखला के जेजे अस्पताल में शिफ्ट किया गया है.
कानून बड़ा या इंसानियत का धर्म?
वरवर राव भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में जेल में बंद हैं. करीब दो साल से. मैं कानून का एक्सपर्ट हूं नहीं, लेकिन इतना समझता हूं कि कोई भी तब तक गुनहगार नहीं, जब तक उसे कोर्ट ने दोषी न ठहरा दिया हो. और वरवर राव को अभी कोर्ट ने दोषी नहीं ठहराया है. वो विचाराधीन कैदी हैं. लेकिन उन्हें बेल नहीं मिल रही. सवाल ये है कि हमारा मकसद सही और गलत का फैसला करना है या उन्हें मार डालना? UAPA के कारण जमानत की मनाही है तो क्या कानून इंसानियत के धर्म से ऊपर है?
जून में वरवर के परिवार ने जेल प्रशासन से कहा कि उनकी हालत खराब हो रही है, कम से कम उन्हें अस्पताल में शिफ्ट कर दीजिए, लेकिन फरमान सुनाया गया कि उनके साथ बंद सह आरोपी वरनॉन गोंसाल्वेज उनकी देखभाल कर लें, जो खुद 60 साल के हैं.
क्या हम इतने बेदिल हो गए हैं?
चलिए उस घिसे पिटे जुमले को सही ही मान लें कि कानून अंधा होता है तो क्या बाकी समाज भी अंधा है. कोई समाज अपने बुजुर्गों के साथ कैसा बर्ताव करता है, उससे उसके असली कैरेक्टर में बारे में पता चलता है. तो इस समाज को बनाने वाले लोग वरवर राव पर चुप क्यों हैं? ऊंगलियों पर गिने जाने लायक चंद लोगों के लिए अलावा समाज चुप ही तो है. कहां हैं वो विपक्षी पार्टियां, जिन्हें इस बात का बहुत मलाल है कि उन्हें कुर्सी से दूर कर दिया गया है. ऐसे मुद्दों पर जब ये पार्टियां चुप रहेंगी तो कल इनके लिए कौन वोटर बोलेगा? कहां हैं सोशल मीडिया पर हर छोटे-बड़े मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करने वाला 'प्रबुद्ध वर्ग'.
जिस मुंबई में वरवर राव हैं, कहां हैं उस मायानगरी के मायावी प्राणी, जो सात समंदर पार होने वाले जुल्म पर भी संताप दिखाते हैं? और जिस राज्य के लिए वरवर ने लंबा संघर्ष किया, और जिस संघर्ष की मलाई आज वहां के नेता लपेट रहे हैं, वो कुछ क्यों नहीं करते? क्यों नहीं उस जगह अर्जी लगाते, जहां सुनवाई होनी है कि वरवर एकदम असहाय हैं, कम से कम इसी बिना पर उन्हें अपने परिवार के पास जाने दीजिए. कहीं कोई अनहोनी न हो जाए.
क्या यही है सनातन परंपरा?
और जिस सनातन धर्म पर इस देश को इतना फख्र है, उसमें दीन, दुखियों, असहाय और बुजुर्गों के साथ कैसा सलूक करने की सीख है? ऐसी तो नहीं. क्या हमारा कानून, हमारी सरकार, एक बुजुर्ग, बीमार के प्रति इतनी दया भी नहीं दिखा सकती? क्या हम इतने निष्ठुर हो गए हैं? क्या हम इतने डरपोक हो गए हैं? क्या हम 'शुतुर्गमुर्ग' बन गए हैं? एक समाज के तौर पर हम आज जो बोएंगे वही काटेंगे? आज वरवर हैं, कल कोई और होगा.
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