उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने बीती 24 जून को सूबे के सभी जिलाधिकारियों और कमिश्नरों को आदेश दिया था कि ओबीसी में आने वाली 17 जातियों (कश्यप, राजभर, धीवर, बिंद, कुम्हार, कहार, केवट, निषाद, भर, मल्लाह, प्रजापति, धीमर, बाथम, तुरहा, गोदिया, मांझी और मछुआ) को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करते हुए उन्हें जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाएं.
लेकिन बीती 2 जुलाई को केंद्र सरकार ने राज्य सभा में ये स्वीकार किया कि योगी सरकार का फैसला असंवैधानिक है.
राज्य बनाम केंद्र
केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार है और उत्तर प्रदेश में बीजेपी की. ऐसे में आखिर ऐसा क्या हुआ कि ओबीसी की 17 जातियों को एसी कोटे में शामिल किए जाने पर राज्य और केंद्र आमने-सामने आ गए.
दरअसल, इस मामले पर केंद्र को तब जवाब देना पड़ा, जब बीएसपी नेता सतीश चंद्र मिश्र ने राज्यसभा में ये मुद्दा उठाया.
बीएसपी सांसद सतीश चंद्र मिश्रा ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 उप खंड (2) के तहत, अनुसूचित जाति की लिस्ट में फेरबदल करने की शक्ति केवल संसद के पास है. ऐसे में योगी सरकार ने ओबीसी की 17 जातियों को एससी कोटे में शामिल करने का फैसला कैसे ले लिया?
इस पर केंद्रीय मंत्री और राज्य सभा में नेता थावर चंद गहलोत ने जवाब में कहा कि एक श्रेणी को दूसरी जाति की श्रेणी में स्थानांतरित करने का अधिकार सिर्फ संसद के पास है. इससे पहले भी इसी तरह के तीन-चार प्रस्ताव संसद को भेजे गए थे, लेकिन उन पर सहमति नहीं बनी.
गहलोत ने कहा-
ओबीसी की 17 जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल किए जाने का फैसला देना असंवैधानिक है. राज्य सरकार को उचित प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था.
वोट बटोरने का पुराना हथकंडा
दरअसल, योगी सरकार ने ओबीसी की 17 जातियों को एसी कैटेगरी में शामिल करने का जो फैसला लिया, वो वोट बटोरने का पुराना हथकंडा है. साल 2005 में समाजवादी पार्टी की मुलायम सरकार ने भी यही कोशिश की थी, लेकिन इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया था और केंद्र ने इस प्रस्ताव को मंजूरी देने से इनकार कर दिया था.
साल 2013 में एक बार फिर समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार ने यही कोशिश की लेकिन केंद्र ने एक बार फिर इसे खारिज कर दिया. बाद में अखिलेश सरकार ने 2017 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिसंबर 2016 में इन जातियों को एक बार फिर से एससी कैटेगरी में शामिल करने के आदेश जारी किए. अखिलेश सरकार के इस फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और कोर्ट ने सरकार के आदेश को लागू करने पर रोक लगा दी.
योगी सरकार के 'असंवैधानिक' फैसला लेने की वजह?
योगी सरकार ये फैसला ठीक उस वक्त आया है जब राज्य की 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना है. योगी सरकार के इस फैसले को ओबीसी की 17 जातियों के वोट बैंक को साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
इस बात की तस्दीक योगी सरकार के फैसला लेने की ‘टाइमिंग’ से होती है. योगी सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के जिस आदेश का हवाला देते हुए ये आदेश जारी किया है. दरअसल, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वो आदेश साल 2017 में दिया था. ऐसे में कोर्ट के आदेश के दो साल से भी ज्यादा वक्त बाद योगी सरकार के फैसला लेने पर सवाल तो उठेंगे ही.
योगी सरकार ने जिन 17 जातियों को एससी कैटेगरी में शामिल करने का फैसला लिया है, राज्य में उनकी आबादी 13 फीसदी से ज्यादा है.
उत्तर प्रदेश में जातिवादी राजनीति हावी रही है. लिहाजा, सरकार के इस कदम को इन 17 जातियों के वोट बैंक को साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. क्योंकि इन 17 जातियों को एससी कैटेगरी में शामिल करने से बीजेपी को सिर्फ इन्हीं जातियों से नहीं, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग को भी प्रभावित करने में मदद मिल सकती थी.
ओबीसी कैटेगरी से 17 जातियों के एससी कैटेगरी में ट्रांसफर कर देने पर ओबीसी की बाकी जातियों के लिए कोटा बढ़ जाता.
बता दें, यूपी में उपचुनावों में बीजेपी का रिकॉर्ड खराब रहा है. साल 2014 में 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें से बीजेपी 8 सीट हार गई थी. साल 2015 में बीजेपी दो विधानसभा उपचुनाव हार गई. साल 2016 में, बीजेपी ने उपचुनावों में जाने वाली पांच विधानसभा सीटों में से केवल एक जीती. इसके अलावा पिछले साल बीजेपी ने उपचुनाव में लोकसभा की तीन और एक विधानसभा सीट गंवा दी थी.
केंद्र से खारिज होने के बाद अब योगी सरकार के फैसले का क्या होगा?
अब सवाल ये है कि केंद्र की ओर से योगी सरकार के इस फैसले को असंवैधानिक ठहरा दिए जाने के बाद क्या होगा? तो आपको बता दें, कि पिछली सरकारों की तरह ही इस सरकार का फैसला भी अगले चुनावों तक फिर से ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा. और राजनीति दल ये संदेश देने की कोशिश करेंगे कि कैसे राज्य सरकारों ने बार-बार ओबीसी की जातियों को एससी कैटेगरी में शामिल किए जाने के वादों को पूरा करने की कोशिश की लेकिन हर बार कोर्ट या केंद्र से ये फैसला लटका दिया गया.
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