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क्या TRP घोटाला मामला मुंबई पुलिस से फिसलकर CBI के हाथ आ जाएगा?

क्या मुंबई पुलिस को अपनी जांच बंद करनी होगी?

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भारत
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मुंबई पुलिस ने टीआरपी घोटाले के आरोपों की जांच शुरू की, उसके दो हफ्ते बाद सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (सीबीआई) ने उत्तर प्रदेश सरकार के संदर्भ के बाद इस रैकेट की जांच शुरू कर दी. 17 अक्टूबर को लखनऊ पुलिस ने ग्लोबल रैबिट कम्यूनिकेशंस नाम की एडवर्टाइजिंग कंपनी के क्षेत्रीय निदेशक की शिकायत के आधार पर एक एफआईआर दर्ज की. इसके बाद सीबीआई हरकत में आई.

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अब सीबीआई की पहल पर सवाल खड़े हो रहे हैं क्योंकि आशंका जताई जा रही है कि इसका मुंबई पुलिस की जांच पर असर हो सकता है. इस घोटाले में अर्णब गोस्वामी के रिपब्लिक चैनलों का नाम है जोकि महाराष्ट्र सरकार और पुलिस से गुत्थम गुत्था हैं.

सीबीआई की पहल के मायने समझने के लिए और यह समझने के लिए कि यह मामला किस दिशा में जाने वाला है, तीन सवाल अहम हैं:

सीबीआई आखिर क्या जांच करने वाली है? क्या वह मुंबई पुलिस की तर्ज पर जांच करेगी?

क्या इसका मतलब यह है कि मुंबई पुलिस की जांच खत्म हो गई? क्या सीबीआई की जांच अपने आप उसकी जगह ले लेगी?

क्या सुशांत सिंह राजपूत मामले की जांच सीबीआई को सौंपने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश से यह मामला प्रभावित होगा?

हम इस समय इतना ही जानते हैं.

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सीबीआई की जांच

द क्विंट ने लखनऊ में हजरतगंज पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर को देखा. ग्लोबल रैबिट कम्यूनिकेशनंस के कमल शर्मा की शिकायत पर दर्ज एफआईआर में टीआरपी कैलकुलेशन प्रक्रिया को विस्तार से स्पष्ट किया गया है. इसमें विज्ञापनकर्ताओं और निवेशकों के लिए टीआरपी के महत्व के बारे में बताया गया है और कहा गया है कि टीआरपी की हेराफेरी से कितना नुकसान हो सकता है.

हालांकि इसमें घोटाले का कोई विशेष विवरण नहीं है. यह भी नहीं कहा गया है कि किन पर टीआरपी सिस्टम में गड़बड़ी का आरोप है और उन्होंने यह हेराफेरी कैसे की है. शिकायत में सिर्फ यही कहा गया है:

“मुझे इस बात की विश्वसनीय जानकारी है कि कुछ अज्ञात अभियुक्तों ने एक समान इरादे से काम किया है. उन्होंने धोखा देने के लिए एक आपराधिक षड्यंत्र रचा है और क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट, जालसाजी और उस प्रक्रिया में टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स यानी टीआरपी में छेड़खानी करने का गलत कार्य किया है.”  

इस दावे में किसी टीवी चैनल या व्यक्ति का नाम नहीं है.

इसके विपरीत मुंबई पुलिस एक दूसरी एफआईआर के आधार पर जांच कर रही है. उसने इस रैकेट में शामिल एक शख्स को धर पकड़ा है. मुंबई पुलिस की एफआईआर बार्क से जुड़ी एक रिसर्च एजेंसी की शिकायत पर दर्ज की गई है. जिस शख्स को गिरफ्तार किया गया है, उसने बताया है कि कैसे वह मुंबई के एम्पैनल्ड घरों में लोगों को कुछ चैनल (जिसमें इंडिया टुडे भी शामिल है) देखने के लिए घूस देता था. ऐसा करने के लिए उसे पैसे दिए जाते थे. शिकायत में एजेंसी की ऑडिट टीम की रिपोर्ट भी शामिल है.

सीबीआई की जांच में यह बारीकी नहीं है, जिसका मतलब यह है कि हम नहीं जानते कि क्या यह उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों में रेटिंग घोटाले पर केंद्रित है या इसमें एक जैसे घोटालेबाज शामिल हैं. इसीलिए सीबीआई की यह जांच उसी दिशा में दौड़ सकती है, जिस दिशा में मुंबई पुलिस काम कर रही है. उसका भौगोलिक दायरा भी वही होगा (हालांकि मुंबई पुलिस ने कहा है कि उसने मुंबई के बाहर आरोपी व्यक्तियों की गिरफ्तारी के लिए अपनी टीमों को भेजा है), साथ ही उन्हीं चैनलों की जांच की जाएगी.

प्रारंभिक जांच के बाद मुंबई पुलिस ने पाया है कि रिपब्लिक (जिसका मूल एफआईआर में नाम नहीं है) कथित तौर पर बड़े पैमाने में इस रैकेट में शामिल है, जबकि इंडिया टुडे के खिलाफ आरोपों की पुष्टि नहीं हुई है. दूसरी तरफ रिपब्लिक ने आरोप लगाया है कि यह महाराष्ट्र सरकार की बदला लेने की कार्रवाई है.

सीबीआई अपनी जांच के ओपन एंडेड होने के कारण, यकीनन मुंबई पुलिस से अलग रिपोर्ट देने वाली है.  

जहां तक अपराधों की जांच का सवाल है, सीबीआई की एफआईआर का दायरा व्यापक है. वह धोखाधड़ी और क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट (जिसकी मुंबई पुलिस जांच कर रही है) के अलावा जालसाजी की भी जांच कर रही है.

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क्या मुंबई पुलिस को अपनी जांच बंद करनी होगी?

इस समय मुंबई पुलिस को अपनी जांच बंद करने की कोई जरूरत नहीं है. फिर अगर सीबीआई ने अपनी जांच शुरू कर दी है, तो इसका मतलब यह नहीं कि राज्य पुलिस को अपनी जांच बंद कर देनी चाहिए.

सीबीआई के पास यह अधिकार नहीं कि वह एकतरफा तरीके से राज्य पुलिस से कोई मामला अपने हाथ में ले ले. इसीलिए उत्तर प्रदेश सरकार को लखनऊ के मामले को सीबीआई के सुपुर्द करने के लिए एक संदर्भ देना पड़ा. दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैबलिशमेंट एक्ट के प्रावधानों के अंतर्गत, जो तय करता है कि सीबीआई कैसे काम करेगी, सीबीआई दूसरे राज्य में सिर्फ राज्य की अनुमति से जांच कर सकती है.

चूंकि पुलिस एवं कानून व्यवस्था संविधान की सातवीं अनुसूची में दर्ज राज्य सूची के दायरे में आते हैं, इसलिए केंद्र भी मुंबई पुलिस के स्थान पर सीबीआई की जांच का आदेश नहीं दे सकता.  

इस व्यवस्था में दिक्कत कब आ सकती है? जब मुंबई हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया कोई आदेश दें. हाई कोर्ट्स और एपेक्स कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वे राज्य सरकार की सहमति न होने के बावजूद सीबीआई आदेश के आदेश दे सकती हैं. साथ ही राज्य पुलिस की किसी जांच को बंद करने का निर्देश भी दे सकती हैं.

जहां तक पूरी टीआरपी कंट्रोवर्सी का सवाल है, रिपब्लिक यह गुहार लगा चुका है कि इस जांच को सीबीआई को सौंपा जाए, पहले सुप्रीम कोर्ट में और फिर मुंबई हाई कोर्ट में. चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने उसे पहले मुंबई हाई कोर्ट जाने को कहा था. अब जबकि रिपब्लिक के अनुरोध करने के तुरंत बाद सीबीआई ने अपनी जांच शुरू कर दी है, तो यह कदम संदेह के दायरे में आ जाता है.

सोमवार, 19 अक्टूबर को मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस मुद्दे पर गौर नहीं किया कि यह मामला सीबीआई को सौंपा गया है, बल्कि उसने रिपब्लिक स्टाफ के खिलाफ सम्मन के मुद्दे पर विचार किया. हालांकि अब चूंकि सीबीआई ने अपनी जांच शुरू कर दी है, तो संभव है कि इस मुद्दे को 5 नवंबर की सुनवाई के दौरान उठाया जाए. इससे पहले मुंबई पुलिस को सील किए गए कवर में अपनी जांच का विवरण अदालत को सौंपना होगा.

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क्या अदालत मामले की जांच को सीबीआई को सौंपेगी, जैसा कि सुशांत सिंह मामले में हुआ था?

कई वकीलों और सोशल मीडिया कमेंटेटर्स ने यह चिंता जताई है कि सुशांत मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तरह अदालतें इस बार भी टीआरपी घोटाले की जांच को सीबीआई को सौंप सकती है.

यह जरूरी भी नहीं है. दरअसल पहले सुप्रीम कोर्ट ने सुशांत मामले की जांच को सीबीआई को सौंपने (जैसा कि रिया चक्रवर्ती ने अनुरोध किया था) से इनकार कर दिया था, और वह आदेश इस बात पर आधारित था कि क्या इस मामले की जांच बिहार पुलिस को करनी चाहिए. पर हालिया मामले में यह सवाल नहीं उठता.

अदालत ने सीबीआई को जांच सौंपने का आदेश तब दिया जब मुंबई और पटना पुलिस, दोनों में इस बात को लेकर विवाद पैदा हुआ. पटना पुलिस के एक अधिकारी को मुंबई पहुंचने पर क्वारंटाइन कर दिया गया.   

तब अदालत ने कहा था कि, “क्योंकि, दोनों राज्य एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक हस्तक्षेप के तीखे आरोप लगा रहे हैं, इसलिए जांच की वैधता संदेह के दायरे में आ गई है... ऐसी स्थिति में सच्चाई दफन होने और न्याय के खुद पीड़ित होने की आशंका है.”

इसी वजह से सीबीआई को जांच सौंपी गई. तब तक मुंबई पुलिस ने कोई एफआईआर दर्ज नहीं की थी और सुसाइड के मामले की नियमित प्रक्रियागत जांच कर रही थी.

अपने आदेश के अंत में जस्टिस ह्रषिकेश रॉय ने खास तौर से कहा था कि इस मामले के आदेश, दूसरे मामलों के लिए मिसाल साबित नहीं होंगे. उन्होंने कहा था:

“सुनवाई खत्म होने से पहले, यह स्पष्ट किया जाता है कि इस आदेश में निष्कर्ष और टिप्पणियां केवल इस याचिका के निपटान के लिए हैं और किसी अन्य उद्देश्य के लिए इसका कोई असर नहीं होना चाहिए.”  

इसलिए भले ही ऐसा लगता हो कि सीबीआई की जांच का मामला अदालती आदेश के साथ खत्म होगा, लेकिन मुंबई हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट (अगर यह मामला यहां पहुंचता है) जांच सीबीआई को सौंपने के लिए बाध्य नहीं है.

इस मामले के केंद्र में फ्रॉड और क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट हैं. यह मामला सिर्फ सीबीआई के क्षेत्राधिकार में नहीं आता (जैसे भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत आने वाले अपराध से अलग). मुंबई पुलिस के पास जांच के लिए खास आरोप और सामग्रियां हैं जोकि उसके अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से संबंधित है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट अरनब गोस्वामी की उन याचिकाओं को निरस्त कर चुका है जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ एफआईआर को रद्द करने को कहा था. पालघर लिंचिंग के कवरेज के समय उन पर एफआईआर हुई थीं. अरनब ने इन्हें रद्द करने की याचिका दायर की थी और कहा था कि इस जांच को सीबीआई को सौंपा जाए.

इसलिए अगर अदालतों को मुंबई पुलिस की जांच में किसी तरह के पूर्वाग्रह या समस्याएं नजर नहीं आती हैं या मुंबई पुलिस सीबीआई के साथ किसी विवाद में नहीं फंसती है, जैसे सुशांत मामले में पटना पुलिस के साथ हुआ था, तो मुंबई पुलिस की जगह सीबीआई जांच का कोई आधार नहीं है.

फैसला जो भी हो, 5 सितंबर को मुंबई हाई कोर्ट में अगली सुनवाई के दौरान हमें और बहुत कुछ देने को मिल सकता है.

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