2011 में जब शिल्पा फड़के ने ‘वाय लॉयटर: विमेन एंड रिस्क ऑन मुंबई स्ट्रीट्स’ जैसी किताब लिखी थी, तब उसमें इस बात की चिंता जताई थी कि शहरों में पब्लिक स्पेसेज़ पर औरतों का दावा पुरुषों के बराबर नहीं.
इसमें मुंबई ही नहीं, सभी महानगरों की बानगी थी. आज आठ साल बाद औरतों ने पब्लिक स्पेसेज पर अपना जबरदस्त दावा जताया है. सीएए और एनआरसी के विरोध प्रदर्शनों में हर किस्म की औरत की बड़ी संख्या में मौजूदगी है.
इनमें कॉलेज, यूनिवर्सिटी जाने वाली लड़कियां हैं, हाउस वाइव्स हैं, बुर्का और हिजाब पोश औरतें हैं. दिल्ली के शाहीन बाग में हजारों औरतें सड़कों पर बैठ विरोध जता रही हैं. सैयदा हमीद जैसी महिला एक्टिविस्ट और लेखिका जिसे देखकर उर्दू के मशहूर शायर अल्ताफ हुसैन हाली की पंक्तियां याद कर लेती हैं- ऐ मां बहनों बेटियों दुनिया की जीनत तुमसे है.
औरतें खास तौर से विरोध क्यों कर रही हैं
औरतें खास तौर से इतनी बड़ी संख्या में नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का विरोध क्यों कर रही हैं. उन्हें इसका क्या नुकसान है. दरअसल इन दोनों का असर सबसे ज्यादा कमजोर वर्गों पर ही पड़ने वाला है. हाशिए पर पड़े समूह इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं, जैसे ट्रांसजेंडर लोग, विकलांग लोग, दलित, बहुजन, आदिवासी और औरतें. असम अकेला ऐसा राज्य हैं, जहां एनआरसी को लागू किया गया था.
वहां नागरिकता साबित करने के लिए जिन दस्तावेजों की मांग की गई थी, उनमें जन्म प्रमाणपत्र, एलआईसी पॉलिसी, स्कूल-कॉलेज वगैरह के सर्टिफिकेट, बैंक खाते, जमीन के रिकॉर्ड्स मांगे गए थे.
जाहिर सी बात है, औरतों के पास यह सब आम तौर पर नहीं होता. इस पर विमेन अगेंस्ट सेक्सुअल वॉयलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन (डब्ल्यूएसएस) नामक एक एडवोकेसी संगठन ने अध्ययन किया. यह अध्ययन औरतों पर एनआरसी के असर पर केंद्रित था.
अध्ययन का कहना था कि पितृसत्तात्मक समाज में औरतों को ऐतिहासिक और परंपरागत रूप से हर अधिकार से वंचित रखा जाता है. न तो घर-जमीन पर उनका कोई हक होता है, और न ही शिक्षा तक पहुंच होती है. इसलिए अक्सर उनके पास नागरिक के रूप में अपनी पहचान साबित करने का कोई दस्तावेज नहीं होता.
2011 में जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि 36% औरतें कभी स्कूल नहीं गईं. चुनाव आयोग के आंकड़े कहते हैं कि 2019 की वोटर लिस्ट में करीब चार लाख औरतें गायब थीं. इसी साल मैक्स लाइफ इंश्योरेंस की रिपोर्ट
इंडिया प्रोटेक्शन कोशंट में कहा गया कि सिर्फ 22% कामकाजी औरतें लाइफ इंश्योरेंस खरीदती हैं. इसके अलावा छोटी उम्र में शादी होने की वजह से लड़कियों के सभी सर्टिफिकेट्स में ससुराल पक्ष का नाम होता है. माता-पिता के पास उनके कोई दस्तावेज नहीं होते.
शादियां भी अपने यहां परंपरागत तरीकों से होती हैं और शादी का कोई सर्टिफिकेट नहीं होता. असम में निकाहनामे या पंडितों की गवाही को शादी का प्रमाण नहीं माना गया था. मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने विधानसभा में बताया था कि असम में दूसरे राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, नागालैंड, बिहार, मेघालय से शादी होकर गई किसी भी औरत का नाम नागरिकता रजिस्टर में नहीं था.
इस प्रकार अगर कोई औरत स्टेटलेस हो जाती है तो वह अपनी नागरिकता हासिल नहीं कर सकती, न ही एनआरसी में उसका नाम शामिल हो सकता है. वह अपनी नागरिकता सीएए के जरिए वापस हासिल कर सकती है, सिर्फ अगर वह हिंदू, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध या पारसी है. अगर वह मुसलमान है तो वह स्टेटलेस ही रहेगी और अवैध प्रवासी कहलाएगी.
क्योंकि वे इन हालात को समझ रही हैं
जाहिर सी बात है, औरतें इन हालात से वाकिफ हैं और अपने भविष्य को लेकर आशंकित भी. दिल्ली के शाहीन बाग में औरतें अगर इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर धरना दे रही हैं तो ऐसा नहीं कि वे नावाकिफ हैं.
भले ही तेजस्वी सूर्या जैसे नेता इन विरोध प्रदर्शनों को पंचर वालों का आंदोलन कहें, पर औरतें अपने हक को लेकर बहुत सजग हैं. वे भली तरह से जानती हैं कि सीएए जैसे कानून उनके पूरे अस्तित्व को ही खतरे में डालने वाले हैं.
इसके अलावा वे इस बात का भी विरोध कर रही हें कि कई शहरों में मुसलमानों को धर्म के नाम पर निशाना बनाया जा रहा है. उनका विरोध धार्मिक असहिष्णुता पर भी है. वे संविधान को बचाने की हिमायत भी कर रही हैं. एक ऐसी सेक्युलर लड़ाई जिसमें सभी आस्थाओं के लोग समान रूप से भागीदार हैं. आम तौर पर मुसलमान औरतों को तीन तलाक, इस्लाम पर खतरे या वोट बैंक जैसे मुद्दों पर एकजुट करने की कोशिश की जाती है. यह एकदम अलग संघर्ष है जिसमें वे न सिर्फ मुसलमान मर्दों, बल्कि सभी धर्मों के मर्दों और औरतों के साथ कंधे से कंधा मिला रही हैं.
इन औरतों से अलग हैं, पिजड़ा तोड़ जैसे संगठन की लड़कियां. इन विरोध प्रदर्शनों में उन्होंने यह बैनर भी दिखाया कि औरतें हिंदू राष्ट्र को तहस-नहस कर देंगी. लड़कियों ने एक पोस्टर में यह भी लिखा था कि रामराज्य सीता के लिए खराब ही था.
25 दिसंबर को संगठन ने दिल्ली में मनुस्मृति दहन दिवस मनाया, चूंकि मनुस्मृति महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक साबित करती है. लड़कियों और औरतों का यूं उठकर खड़े होना साबित करता है कि यह गैर मामूली वक्त में कितना अहम है.
धर्म किस तरह औरतों को अनुचर बनाता रहा है, यह कौन नहीं जानता. यह मौका है जब औरतें बिना डरे अपनी बात कहने के लिए आगे आ रही हैं. रक्षक भी बन रही हैं, जैसे केरल की आयशा रेन्ना और कन्नूर की लदीदा फरजाना ने अपने दोस्त शाहीन अब्दुल्ला को पुलिसवालों से बचाया और प्रदर्शनकारियों के बीच स्टार बन गईं. इन फीयरलेस लड़कियों को देखकर किसी ने मजाज़ का शेर पढ़ा था- तेरे माथे पे ये आंचल बहुत खूब है लेकिन/तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.
पूर्वोत्तर के महिला आंदोलन भी नजीर
यूं पूर्वोत्तर की महिलाओं ने ऐसे कई प्रदर्शन किए हैं जिन्होंने वहां के राज्यों की सामाजिक-राजनैतिक सत्ता की चूलें हिलाकर रख दी थीं. सत्तर के दशक में शराब और ड्रग्स के खिलाफ मणिपुर में शुरू हुए मीरा पैबी आंदोलन ने बाद में आफ्स्पा का भी विरोध किया.
मीरा पैबी ने थंगजाम मनोरमा बलात्कार मामले में अर्ध सैनिक बलों को खूब घेरा, यहां तक कि निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किए. नागालैंड का मदर्स एसोसिएशन भी शराबबंदी का एक लंबा आंदोलन चला चुका है. इसी तरह मिजोरम में 2013 में विवाह, उत्तराधिकार और तलाक विधेयक के खिलाफ एमएचआईपी के अंतर्गत महिलाओं ने जबरदस्त आंदोलन किए. ये औरतें मिजोरम में शादियों में दुल्हन के दाम लगाने जैसे कस्टम के खिलाफ थीं. ये विधेयक बाकी रिवाजों को तो खारिज कर रहे थे लेकिन इस एक प्रावधान को नहीं.
तो यह जरूर याद रखिए कि जिससे न खून का रिश्ता है, न जात का और मजहब का, उसके साथ भी इंसाफ का रिश्ता जरूर होता है. इंसाफ की इसी जद्दोजेहद में यह भी याद रखा जाना चाहे कि नागरिकता अकेले नहीं, साथ में हासिल की जाती है.
संविधान के प्रस्ताव में बंधुत्व हासिल करने का वादा भी है. इस बंधुत्व के बिना बाकी के तीन वादे, आजादी, बराबरी और इंसाफ हासिल करने के वादे पूरे नहीं किए जा सकते. औरतें, हम सबको वही याद दिलाने की कोशिश कर रही हैं. इस बार परचम सचमुच उनके हाथ में है.
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