सृजन की परिकल्पना को संसार में साकार करने वाली आधी आबादी इस सनातन संसार की पहली जननी है. पुरुष कितना भी चाह ले लेकिन सृजन का पहला और मौलिक अधिकार संसार में किसी के पास है तो वह नारी है. आधी आबादी के वजूद का केन्द्र किसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता भी है तो वह धुरी सृजन की कहलाती है, उसी केंद्र के अक्षांश और देशांतर रेखाओं की तरह स्त्रियां अपने सृजन से संसार को रोशन कर रही हैं. अपने अस्तित्व को चारदीवारी और चूल्हे-चौके के साथ या उससे बाहर निकल कर समाज को जागरुक कर रही हैं.
वर्तमान परिस्थितियों और स्त्रीवादी आन्दोलन की जड़ों में जिस सशक्तिकरण का राग अलापा जा रहा है, उसके भी इतर स्त्रियां सशक्त होने के साथ-साथ सक्षम भी हैं. समान अधिकार, समान विचार, समान कार्य और व्यवहार तो मौलिक अधिकार हैं, जो उस आबादी को मिल भी रहे हैं पर अब भी निर्णायक भूमिका में महिलाओं का हस्तक्षेप जरूरी है.
संसार के कई बड़े फ़ैसले आज भी पितृ सत्ता के अधीन हैं, जबकि सुकोमल मन में वात्सल्य, ममता और करुणा के साथ-साथ निर्णायक भाव भी रहता है, जो उस महिला को निर्णयों में पारंगत बनाता है.
वर्तमान दौर में शिक्षा से लेकर राजनीति और शास्त्र से लेकर शस्त्र तक की सभी विधाओं में महिलाएं अव्वल हैं, कॉरपोरेट घरानों में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत प्रभावी है. और भारत तो उस संस्कृति का पोषक रहा है, जिसने लोकमाता अहिल्या के शासन को स्वीकार कर श्रेष्ठता के नए आयामों का भी दर्शन किया है. शासन व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता, कूटनीतिक कदम, स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी के शौर्य का भी यह भारत साक्षी रहा है तो आज़ादी की लड़ाई के पूर्व मुगलों के दमन का प्रतिकार करने वाली क्षत्राणियों के शूर का भी समय गवाह रहा है. भारत ने दुनिया को यह भी दिखलाया कि रिलायंस फ़ाउंडेशन की नीता अंबानी, आईसीआईसीआई की चंदा कोचर, जीवामी की ऋचा कौर तक कैसे महिलाओं के नेतृत्व में कॉरपोरेट ने प्रगति के सोपान चढ़े हैं.
इसके बावजूद भी कॉरपोरेट में अन्य देशों की तुलना में भारत में स्थिति थोड़ी कमज़ोर है. कुछ समय पहले क्रेडिट सुइस नामक स्विस संगठन ने कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की स्थिति पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट की मानें तो भारत में महिलाओं के लिए कॉरपोरेट की दुनिया अब भी बेहद सिमटी हुई है. दुनिया भर के 56 देशों की तीन हज़ार कंपनियों का सर्वेक्षण किया गया, जिसमें भारत को 23वें पायदान पर रखा गया है. रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच सालों में कंपनी की बोर्ड टीम में महिलाओं की भागीदारी में केवल 4.3 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है. वरिष्ठ प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी 2016 में महज़ 6.9 फ़ीसदी थी. लेकिन, थोड़े इज़ाफ़े के साथ अब वह 8.5 फ़ीसदी हो गई है.
राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के दख़ल का प्रभाव अपेक्षाकृत कम ज़रूर है लेकिन कुछ राजनीतिक दलों में महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान होने के कारण स्थिति थोड़ी ठीक हो सकती है. इस क्षेत्र में महिलाओं को आगे आना चाहिए क्योंकि उनकी नेतृत्व और निर्णायक क्षमता का राष्ट्र को लाभ मिलता है.
स्त्री नेतृत्व के मुद्दे पर हमारा पिछड़ापन एक आईना है. दूसरी ओर समाज और पारिवारिक स्तर पर भी महिलाओं की दयनीय स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है.
ऐसे दौर ने महिलाओं को अपने पंख ख़ुद फैलाने का हौसला दिया है. राजनीतिक रूप से दुनिया की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमाओ भंडारनायिका और देश की प्रथम प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, दोनों ही आधी आबादी की सक्षमता और नेतृत्त्व क्षमता का जीता जागता उदाहरण हैं.
हाल ही में रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है, दोनों ही देशों की राजनीतिक समझ और संवैधानिक ढांचे को देखेंगे कि महिला नेतृत्वकर्ताओं की कमी के चलते रूस से समझौतावादी पहल भी नहीं हो पाई, जबकि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है. इसी के साथ, दूसरी ओर देखें तो राजधानी कीव की महिलाएं पूरे यूक्रेन में सबसे सुंदर कही जाती हैं. यहां लड़कियों को अपनी पसंद से ज़िंदगी जीने की आज़ादी है. हालांकि, बात जब देश की आन-बान-शान की हो, तो वे मोर्चे पर भी डटे रहने में पीछे नहीं रहती हैं.
इतिहास गवाह है कि यूरोप का सबसे बड़ा नारीवादी संगठन 1920 में आज के पश्चिमी यूक्रेन यानी गैलिसिया में ही बना था. इसका नाम था 'यूक्रेनियन वुमंस यूनियन’. इसकी लीडर मिलेना रूडनिट्स्का थीं. बाद में भी यूक्रेन में फ़ेमिनिस्ट ओफेनजाइवा, यूक्रेनियन वुमंस यूनियन, फ़ेमेन जैसे बड़े संगठन रहे. इसमें फ़ेमेन जैसे संगठनों को अपनी लीडर्स की जान की परवाह करते हुए देश छोड़ना पड़ा.
कोयला खनन और लोहे के लिए मशहूर यूक्रेन में घर के काम से लेकर संसद तक महिलाएं पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं. 2019 के यूक्रेनी संसदीय चुनाव में 87 महिलाएं चुनकर संसद पहुंचीं. चुने गए कुल सांसदों में से करीब 50 फ़ीसदी महिलाएं थीं.
यूक्रेन की जनगणना के मुताबिक महिलाओं का देश की आबादी में हिस्सा 54% है. देश में 60% से ज़्यादा महिलाओं ने कॉलेज लेवल या इससे ज़्यादा पढ़ाई की है. आज जब पूरी दुनिया यह देख रही है कि यूक्रेनी महिलाओं के हाथों में हथियार हैं, वे रूस जैसे देश से लड़ रही हैं तो इसके पीछे भी बड़ा कारण है. यूक्रेन 1993 से अपनी सेना में महिलाओं को नियुक्त कर रहा है. सेना में महिलाओं की भागीदारी 15 प्रतिशत है.
सैन्य अधिकारियों के रूप में कुल 1100 महिलाएं तैनात हैं. युद्ध के मैदान में 13,000 से अधिक महिलाएं मौजूद हैं. वर्तमान में, यूक्रेन की महिला सैनिक देश के अशांत पूर्वी हिस्से में रूसी समर्थित विद्रोहियों से मुक़ाबला कर रही हैं. रूस ने डोनबास के दोनों क्षेत्रों को एक अलग देश के रूप में मान्यता दी है और सेना को तैनात करने के आदेश भी दिए हैं. आज यूक्रेनी सेना सहित वहां की आम महिलाएं भी आक्रामक तेवर में रूस का जवाब दे रही हैं.
विश्व के अन्य देशों में भी जब हम महिलाओं के दख़ल को देखेंगे तो यही पाएंगे कि महिलाओं के पास सुकोमल तन-मन के अतिरिक्त कई ऐसे गुणों की खदान हैं, जो उनके नेतृत्वकर्ता होने की पुष्टि करती हैं.
दुनिया में तमाम तरह के आंदोलनों जैसे जलवायु परिवर्तन, असमानता, हिंसा, भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, राजनीतिक स्वतंत्रता, LGBTQI अधिकार जैसे मुद्दे दुनिया के सभी हिस्सों में सिर उठा रहे हैं. इस दशक में बड़ी संख्य़ा में ऐसी महिलाएं भी देखी गई हैं, जो विभिन्न मुद्दों पर अपनी चिंताओं का झंडा बुलंद करने के लिए सड़कों पर उतरीं.
भारत में समानता के लिए महिलाओं की समानता की दीवार बनाने से लेकर चिली में सड़कों पर बलात्कार के ख़िलाफ़ नारे लगाने तक, सक्रियता की इस शैली ने तानाशाही, भ्रष्ट या पक्षपाती सरकारों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन और बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की स्थापना पर आपत्ति जैसे मुद्दे भी पुरज़ोर तरीके से उठाए हैं. गरिमा और सुरक्षा के सिर्फ़ महिला केंद्रित मुद्दों के लिए लड़ाई में बदलाव आया है और अब इसमें व्यापक नीतिगत मुद्दे भी शामिल हो गए हैं.
आंदोलनों की इस शैली की ही तरह, दुनियाभर की राजनीतिक परिदृश्य में भी काफी बदलाव आया है, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं नेतृत्व करती दिख रही हैं. फ़िनलैंड में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनने और न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री के मैटरनिटी लीव लेने के साथ, राजनीति में दबदबा बढ़ाते हुए महिलाएं आगे बढ़ती दिख रही हैं. 1 जनवरी 2019 तक 50 देशों में 30 फ़ीसदी या अधिक महिला सांसद हैं. रवांडा, क्यूबा और बोलीविया टॉप पर हैं, जहां निचले सदन में क्रमशः 61.3%, 53.2% और 53.1% सीटों पर महिला सांसद हैं. जबकि भारत में स्थिति थोड़ी गंभीर है.
राजनीति में महिलाओं की वैश्विक रैंकिंग में 191 देशों में भारत 149वें पायदान पर है. 16वीं लोकसभा में सिर्फ़ 11.3% महिला सांसद थीं, जो 2019 में 17वीं लोकसभा में बढ़कर 14% हो गईं. यह संख्या विश्व औसत से काफ़ी कम है. भारत अपने पड़ोसी देशों अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल में भी पीछे है. हालांकि, भारत में आंदोलनकारी के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में आने वाली महिलाओं की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, जो निजी जीवन में बड़ा बदलाव है, जिसे उन्होंने घरों तक सीमित कर दिया था.
हालांकि दुनिया में महिलाएं केवल अपने अधिकारों के लिए ही नहीं लड़ रहीं बल्कि समाज की संरचना, एकरूपता, समानता और अन्याय के विरुद्ध भी उसी जोश से सड़कों पर आन्दोलन कर रही हैं. संसदों में अपना पक्ष भी रख रही हैं. अन्याय के खिलाफ दुनिया भर में महिलाओं के आंदोलन की क़ामयाबी 20वीं सदी में देखी जा सकती है, जब संयुक्त राष्ट्र ने उत्तरी अमेरिका और यूरोप में महिलाओं के प्रयासों की सराहना की, जो अपने अधिकारों की लड़ाई जीतने में कामयाब रही थीं. पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 1911 में मनाया गया था, लेकिन भारत में काफ़ी देर से 1975 में सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के गुजारिश पर समानता को लेकर एक रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति का पता लगाया
आज हालात इस तरह हो चुके हैं कि महिलाओं को अपना दख़ल समाज के हर क्षेत्र में रखना चाहिए. पत्रकारिता, शिक्षा, चिकित्सा, लेखन, व्यवसाय, उद्योग, राजनीति, सामाजिक नेतृत्व आदि. दुनिया के तमाम क्षेत्रों में महिलाओं के आने से, उनके दख़ल रखने से, उनके नेतृत्व करने से समाज में बड़ा बदलाव हो सकता है. समय इस बात का भी गवाह बनेगा कि महिलाओं के नेतृत्व में सफलता का सेहरा बंधना तय है.
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