ADVERTISEMENTREMOVE AD

मथुरा में मीट मना है: क्या सरकार को ऐसा करने का कानूनी अधिकार है?

ऋषिकेश में नॉननेज बैन करने वाले फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने बहाल रखा था, लेकिन शायद ये मथुरा में लागू न हो

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) ने 31 अगस्त को यह घोषणा की कि मथुरा में मीट की बिक्री पर प्रतिबंध (mathura meat ban) लगाया जाएगा तो उन्होंने यह उम्मीद नहीं की थी कि इस फैसले का विरोध होगा.

बेशक, ऐसी खबरें आई हैं कि स्थानीय कारोबारियों को इस बात की चिंता है कि उनकी रोजी-रोटी पर असर होगा, लेकिन इस वक्त इन प्रतिक्रियाओं को शांत कर दिया गया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अब उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले का विरोध हो या न हो, लेकिन ऐसे कदमों का कोई कानूनी आधार होना ही चाहिए- खास तौर से ये देखते हुए कि इसका असर मांस की बिक्री से स्पष्ट या अस्पष्ट तरीके से जुड़े लोगों पर होगा, साथ ही उन लोगों पर होगा, जो नॉन वेजिटेरियन हैं.

मुख्यमंत्री ने यह ऐलान करते समय बहुत बेशर्मी से कहा था कि जो लोग इस कारोबार से जुड़े हैं, वे लोग अब दूध बेच सकते हैं, लेकिन एक संवैधानिक लोकतंत्र इस तरह काम नहीं करता. जहां नागरिकों को आजादी से कोई भी पेशा अपनाने या कारोबार करने का मौलिक अधिकार होता है.

या जहां नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार होता है और इसमें खान-पान की पसंद भी शामिल है.

तो क्या उत्तर प्रदेश सरकार के पास ऐसा कोई तुरुप का पत्ता है जिसके जरिए वह इस मामले में जीत हासिल करे?

सरकार ने मीट के साथ-साथ मथुरा में शराब की बिक्री पर भी पाबंदी लगाई है. लेकिन शराब पर प्रतिबंध का कानूनी सवाल कुछ अलग है. इस मामले में गुजरात हाई कोर्ट राज्य में शराब पर प्रतिबंध के खिलाफ एक याचिका की सुनवाई कर रहा है लेकिन यह इस आर्टिकल का विषय नहीं है.

जब सुप्रीम कोर्ट ने ऋषिकेश में अंडों पर बैन को सही ठहराया था

अगर कोई उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को अदालत में चुनौती देता है तो हो सकता है कि सरकार अपनी सफाई में ओम प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य जैसे मामले का हवाला दे. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला दिया था.

2004 में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ होटल/रेस्त्रां मालिकों की अपील की सुनवाई की थी. यह अपील ऋषिकेश म्यूनिसिपल बोर्ड के नए उप नियमों के खिलाफ दायर की गई थी जिनमें उत्तराखंड के तीन शहरों ऋषिकेश, हरिद्वार और मुनी की रेती में अंडे बेचने को गैरकानूनी बनाया गया था.

अपील करने वालों का दावा था कि यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से कोई भी पेशा अपनाने या व्यापार करने के उनके अधिकारों का उल्लंघन था लेकिन इस सिलसिले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था कि यह प्रतिबंध मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबंधों के दायरे में आता है, जैसा कि अनुच्छेद 19 (6) में कहा गया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मामला जब सुप्रीम कोर्ट में गया तो उसने भी इस अपील को रद्द कर दिया. इस पर जस्टिस डीएम धर्माधिकारी ने वह विवरण दिया था, जो बताता था कि यह प्रतिबंध पेशे/व्यापार के अधिकार का उल्लंघन क्यों नहीं करता.

  • 01/01

    कोविड प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते हुए ‘व्रत पूर्णिमा’ के मौके पर 10 जून को हरिद्वार में हर की पौड़ी पर भक्तों की भीड़. इमेज सिर्फ रिप्रेजेंटेशन के लिए इस्तेमाल की गई है

    (फोटो- पीटीआई)

जस्टिस धर्माधिकारी ने कहा,

"इस अधिकार को केवल कानून द्वारा और ऐसे उचित आधार पर अनुच्छेद 19 (6) के तहत प्रतिबंधित किया जा सकता है, जो आम जनता के हित में पाए जाते हैं."

उनकी राय में अंडे बेचने पर पाबंदी का फैसला उन जरूरी शर्तों को पूरा करता था क्योंकिसंविधान के अनुच्छेद 51-ए के तहत मौलिक कर्तव्यों में समाज के सभी वर्गों के बीच सद्भाव को बढ़ावा देने और "हमारी मिश्रित संस्कृति की समृद्ध विरासत को संरक्षित करने" के कर्तव्य शामिल हैं.

· तीनों शहर तीर्थ स्थल हैं और पाबंदी लगाने का फैसला "तीनों शहरों में मंगल सूचक और उत्सव के दिनों में नियमित और समय-समय पर आने वाले निवासियों और तीर्थयात्रियों की धार्मिक और सांस्कृतिक इच्छाओं के सम्मान में लिया गया था."

· इन तीन शहरों में मांस-मछली की बिक्री पर पहले से प्रतिबंध लगा हुआ है- हरिद्वार में तो 1956 से है, इसलिए कोई नया सांस्कृतिक बदलाव नहीं किया गया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जस्टिस धर्माधिकारी ने इस प्रतिबंध को चुनौती देने वालों की चिंताओं को इसलिए भी खारिज किया क्योंकि उनकी संख्या अधिक नहीं थी. उन्होंने कहा था,

"अपीलकर्ता जो होटल और रेस्तरां चला रहे हैं और उनके जैसे दूसरे लोग तुलनात्मक रूप से समाज का एक बहुत छोटा वर्ग हैं जो शहर में नॉन वेजिटेरियन खाने का कारोबार करते हैं."

क्या यह फैसला मथुरा मीट बैन पर भी लागू होता है ?

जस्टिस धर्माधिकारी के फैसला पढ़कर आपको लगेगा, कि अगर ऋषिकेश में अंडे बेचने पर पाबंदी लगी है तो किसी दूसरी जगह ऐसी पाबंदी को नाजायज कैसे माना जा सकता है. लेकिन ऐसा नहीं है.

उस समय जस्टिस धर्माधिकारी ने कहा था, "तीन शहरों की भौगोलिक स्थिति और खास संस्कृति शहरों की नगरपालिका की सीमा के भीतर अंडे सहित नॉन वेजिटेरियन फूड आइटम्स के कारोबार और सार्वजनिक लेनदेन पर पूर्ण प्रतिबंध को सही ठहराती है."

इस पर यह तर्क भी दिया जाएगा कि मथुरा में भी ऐसी ही ‘खास’ संस्कृति है जो नॉन वेजिटेरियन खाने से परहेज करने की वकालत करती है. लेकिन तथ्य इसकी हिमायत करते नहीं दिखते.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
  • 01/01

    28 अगस्त, 2013 को जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर में भगवान कृष्ण के दर्शन को उमड़े श्रद्धालु

    (फोटो: आईएएनएस)

नेशनल रेस्त्रां एसोसिएशन ऑफ इंडिया के सदस्य अंकित बंसल ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया था कि मथुरा में शहर में रजिस्टर्ड मीट सेलर्स की संख्या 45 है और वहां के 300 होटलों और रेस्त्रां में से 50 में नॉन वेजिटेरियन खाना मिलता है. इसकी तुलना में, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ऋषिकेश और अन्य जगहों पर कई दशकों से मांस और मछली पर पाबंदी थी.

योगी आदित्यनाथ ने 2017 में कुर्सी संभालने के बाद मथुरा के कुछ हिस्सों में मांस और मछली पर रोक लगा दी थी लेकिन यह सिर्फ वृंदावन और बरसाना जैसे कुछ खास तीर्थ स्थलों पर लागू था.

जनसंख्या के लिहाज से भी पता चलता है कि मथुरा के हालात वैसे नहीं- भले ही हिंदुओं के लिए इसका धार्मिक महत्व कुछ भी हो.

मथुरा मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र की 17 प्रतिशत से ज्यादा आबादी मुसलिम है, जैसा कि 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं. इनमें से बड़ी संख्या में लोग नॉन वेजिटेरियन हो सकते हैं. इसके अलावा करीब 12 प्रतिशत दलित हैं और उनमें भी एक बड़ी संख्या में लोगों के नॉन वेजिटेरियन होने की उम्मीद है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

एक ऐसे शहर में जहां असल में ऐसी ही 'खास संस्कृति' नहीं दिखती हो, वहां यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि मीट बैन मांस बेचने वालों (कसाइयों या रेस्त्रां) के अधिकारों के लिहाज से जायज है या नहीं. यहां इस बात को याद रखना होगा कि यह बैन हर तरह के नॉन वेजिटेरियन फूड पर लगा है, सिर्फ बीफ पर नहीं.

जैसे आप 2008 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को याद कीजिए जिसमें उसने अहमदाबाद में जैन पर्यूषण पर्व पर बूचड़खानों को बंद करने को मंजूरी दी थी, क्योंकि ऐसा सिर्फ नौ दिनों के सीमित समय के लिए किया जा रहा था.

क्या 2004 के फैसले को आज अच्छा फैसला कहा जाएगा

तथ्यों को किनारे रखिए- ऐसी कई वजहें हैं जिनके चलते मथुरा मीट बैन को ऋषिकेश से जुड़े मामले के आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता. सबसे पहले, यह फैसला सिर्फ इस मुद्दे पर दिया गया था कि क्या ऐसा कोई बैन आजादी से अपना पेशा अपनाने/कारोबार करने के हक का उल्लंघन है.

इसमें इस तर्क का कोई वितर्क नहीं दिया गया था कि ऐसी पाबंदी उन लोगों की पसंद पर असर करती है जो मीट खाते हैं, उनकी अभिव्यक्ति की आजादी और बेशक, प्राइवेसी के अधिकार का उल्लंघन करती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

प्राइवेसी के अधिकार वाला तर्क 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही मजबूत हुआ है. 2017 में पुट्टास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से यह बात कही थी कि प्राइवेसी मूलभूत अधिकार है. इसमें फैसला लेने की स्वायत्तता शामिल है और किसी के खाने की पसंद भी उस स्वायत्तता का अटूट हिस्सा है.

इससे पहले, अहमदाबाद में बूचड़खानों को बंद कराने वाले मामले में भी अदालत ने कहा था,

“कोई क्या खाता है, यह उसका व्यक्तिगत मामला है, और यह उसके प्राइवेसी के अधिकार का हिस्सा है. हमारे संविधान का अनुच्छेद 21 प्राइवेसी का अधिकार देता है.”

अगर 2004 में इस अधिकार की रूपरेखा पर कोई शक रहा हो, तो पुट्टास्वामी मामले के बाद तो यह शक खत्म हो जाना चाहिए.

अगर हम इसे किसी पेशे को अपनाने/व्यापार करने के हक के लिहाज से भी देखें तो यह कहने का पर्याप्त आधार है कि 2004 के फैसला गलत था. जैसा कि हमने पहले भी कहा है, जस्टिस धर्माधिकारी ने यह भी कहा था कि यह मांग समाज का एक छोटा सा तबका कर रहा था.कोई शख्स मीट खाए या न खाए, यह उसका व्यक्तिगत फैसला है. खान-पान की पसंद का भारत में राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जिन लोगों को 2013 में सुप्रीम कोर्ट का कुख्यात सुरेश कौशल मामला याद होगा, उन्हें यह मामला भी जाना-पहचाना लगेगा. 2013 के फैसले में अदालत ने आईपीसी के सेक्शन 377 के तहत आपसी रजामंदी

से होमोसेक्सुअल एक्ट्स को फिर से अपराध घोषित किया था. तब अदालत ने कहा था कि इससे आबादी के एक ‘मामूली हिस्से’ पर असर हुआ था.

2018 में नवतेज जौहर मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया, और कौशल फैसले को भी. जजों ने साफ कहा था कि अगर कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितने लोग उससे प्रभावित होते हैं या बहुसंख्यकों के सामाजिक रीति-रिवाज क्या कहते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जस्टिस नरीमन ने स्पष्ट किया था:

ये मौलिक अधिकार चुनाव के नतीजों पर निर्भर नहीं करते. और, सामाजिक नैतिकता से संबंधित मामलों में रूढ़िवादिता क्या होनी चाहिए, यह तय करने का काम बहुसंख्यवादी सरकारों पर नहीं छोड़ा गया है... बदलती हुई और अलग-अलग बहुसंख्यकवादी सरकारें जिस तरह सामाजिक नैतिकता का एक खास दृष्टिकोण थोपती हैं, संवैधानिक नैतिकता उस पर हमेशा जीतती है.

हम सिर्फ यह उम्मीद कर सकते हैं कि योगी सरकार मथुरा मीट बैन के फैसले से पहले, कुछ कानूनी मसलों के बारे में सोचे और ऐसे फैसलों की वैधता के बारे में अपने कानून मंत्रालय से राय-मशविरा करे.

मौजूदा मामले में ऐसा लगता है कि इस बैन का कानूनी आधार कुछ कमजोर है. पर चूंकि सरकार के ‘पॉपुलर’ (इसकी जो वजह हो) या राजनैतिक विरोधी लगभग न के बराबर हैं, इसलिए इस मसले पर अदालत में ही सवाल किए जा सकते हैं.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×