हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता.
ये शेर पढ़ने के बाद क्या आप कुछ सोचने लगे, क्या आपकी आंखों के सामने कुछ जाने-पहचाने चेहरे घूमने लगे, क्या आपको कुछ बदनाम लोग याद आने लगे या कुछ ऐसे कातिल जिनकी कोई चर्चा ही नहीं करता है. तो फिर सोचिए कि ये शेर अकबर इलाहाबादी (Akbar Allahabadi) ने अपने जमाने में लिखा था और आज इसकी अहमियत शायद उस वक्त से ज्यादा ही है. उर्दू के मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी को लिसान-उल-'अस्र कहा गया, मतलब- वक्त की आवाज.
अकबर इलाहाबादी हिंदुस्तानी तहजीब के एक ऐसे कलकार थे, जिनकी शायरी में हास्य-व्यंग के अलावा इंकलाब, इश्क और हिंदू-मुस्लिम एकता की शानदार मिलावट देखने को मिलती है.
बिल्कुल अलग था अकबर इलाहाबादी का अंदाज-ए-बयां
अकबर साहब ने अपने दौर में अवाम की आवाज को अपनी नज्मों और गजलों का हिस्सा बनाया. उन्होंने छोटी-छोटी चीजों पर बेहद मजाजिकाय और अलग अंदाज में लिखा है.
16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद के बारा में जन्मे अकबर इलाहाबादी का पूरा नाम सय्यद अकबर हुसैन रिजवी था. रेलवे के इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में क्लर्क के पद पर काम किया और बाद में वो वकील भी बने. उन्होंने वकालत का तजुर्बा लेने के बाद वकीलों के लिए एक शेर लिखा, जिसे सुनकर शैतान भी चौंक गया होगा.
पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा,
लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए.
पारंपरिक, बागी और सुधारवादी थे अकबर इलाहाबादी
अकबर इलाहाबादी के बारे में कहा जाता है कि वो पारंपरिक होते हुए भी बागी थे और बागी होते हुए भी सुधारवादी. उन्होंने अपने दौर के दूसरे कलमकारों से खुद को अलग करते हुए शेर कहने का नया ढंग अपनाया. स्कूल जाने को मस्जिद जाने से बेहतर बताने की हिम्मत की. उनकी उर्दू गजलों में अंग्रेजी अल्फाज का बेहद खूबसूरत प्रयोग देखने को मिलता है.
छोड़ लिटरेचर को अपनी हिस्ट्री को भूल जा
शैख़-ओ-मस्जिद से तअ'ल्लुक़ तर्क कर स्कूल जा
चार-दिन की ज़िंदगी है कोफ़्त से क्या फ़ाएदा
खा डबल रोटी क्लर्की कर ख़ुशी से फूल जा
हास्य और व्यंग्य के उस्ताद के रूप में पहचाने जाने वाले अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजी हुकूमत के दौर में इंकलाबी शायरी भी लिखी. उनकी कलम की स्याही में कभी दहशत नहीं नजर आई. उनकी कलम से निकले शेर मौजूदा वक्त में भी प्रासंगिक नजर आते हैं.
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
आम का शौकीन शायर: अकबर इलाहाबादी को आम बेहद पसंद था. उन्होंने अपने एक दोस्त मुंशी निसार हुसैन के नाम खत लिखा और उसमें आम भेजने की दरख्वास्त की.
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में
तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए
हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार
साल 1919 का वो दौर जब हिंदुस्तान में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ. भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के रिश्तों में दरार आनी शुरू हो गई थी. ऐसे वक्त में अकबर इलाहाबादी ने अवाम में एकता लाने के लिए कुछ मिसरे लिखे.
हिन्दू व मुस्लिम एक हैं दोनों यानि एशियाई हैं
हम वतन, हम ज़ुबान, व हम किस्मत
क्यों न कह दूं कि भाई भाई हैं?
अकबर साहब के द्वारा की गई हिंदू-मुस्लिम एकता की बार-बार कोशिशों की वजह से कुछ अफवाहें भी उड़ीं. कहा जाने लगा कि अकबर को हिंदुओं द्वारा रिश्वत दी जा रही है और वो शराब पीने के जाल में फंस गए हैं. उन्होंने शराब जुड़ी एक गजल भी लिखी...
हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है,
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है.
अकबर इलाहाबादी की लेखनी में व्यंग, इश्क, तहजीब, सियासत और समाज से जुड़े लगभग हर जरूरी पहलू का असर देखने को मिलता है.
इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सक
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ
अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से
लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से
कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया
ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर'
यही वो दर है कि ज़िल्लत नहीं सवाल के बा'द
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो
"शायरों और आलोचकों सभी ने अकबर को अपनाया"
शायर और लेखक दीपक रूहानी ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि फिराक गोरखपुरी (Firaq Gorakhpuri) से लेकर शम्स उर्ररहमान फारूकी (Shamsur Rahman Faruqi) तक उर्दू के मकबूल शायरों और आलोचकों दोनों बिरादरी के लोगों ने अकबर इलाहाबादी को स्वीकार किया. जगह-जगह उनकी शायरी के चर्चे किए गए.
अकबर साहब की शायरी में हसी-मजाक, प्यार मोहब्बत हर तरह की खूबियां मिलती हैं. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लिखा, तहजबी में जो गिरावट आ रही थी, उसका भी जिक्र किया और सांस्कृतिक अस्तित्व को बनाए रखा. उन्होंने उर्दू को व्यंग की भाषा के टूल के रूप में इस्तेमाल किया. यह उर्दू और अकबर इलाहाबादी दोनो की खासियत है.
निजी जिंदगी में भी काफी दिलचस्प थे अकबर इलाहाबादी
जिस तरह से अकबर इलाहाबादी की शायरी में हर तरह का कलेवर नजर आता है, उसी तरह उनकी निजी जिंदगी के किस्से भी काफी दिलचस्प हैं. एक बार कलकत्ता की मशहूर गायिका गौहर जान इलाहाबाद आई थीं, तो वो अकबर साहब से मिलने गईं.
अकबर साहब अपने अंदाज में बातचीत करते हुए कहा कि पहले जज था अब रिटायर हो कर सिर्फ ‘अकबर’ रह गया हूं. हैरान हूं कि आपकी खिदमत में क्या तोहफ़ा पेश करूं. इस मुलाकात के दौरान ही उन्होंने गौहर जान के लिए कागज पर एक शेर लिखा और उन्हें पकड़ा दिया.
ख़ुश-नसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा,
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)