इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
27 दिसंबर 1797 को ताज नगरी आगरा (Agra) में जन्में मिर्जा असदउल्लाह बेग खान गालिब (Mirza Ghalib) को इश्क का शायर कहते हैं. लेकिन गालिब बागी भी थे. जिंदगी पर लिखा, जिंदगी जीने के तरीके पर लिखा, सरजमीं वालों पर लिखा और उस ऊपर वाले पर भी लिखा और क्या खूब लिखा. आज दुनिया 'मॉडर्न है...लोकतांत्रिक है' लेकिन किसी को किसी गाने में भगवा रंग आने पर ऐ'तराज है, किसी को किसी फिल्म में किसी सामान्य सीन पर आपत्ति है.
सवाल ये है कि हम आगे बढ़ते हुए पीछे जा रहे हैं या असल में पीछे. अब देखिए ना गालिब ने तब क्या लिखा, जब मुसलमान बादशाह तख्त पर था!
तअज्जुब ये कि जब गालिब ने ये लिखा तो सुना गया और बड़े प्यार से सुना गया. और इस पर भी तवज्जोह चाहूंगा कि मुसलमान शायर गालिब ने सबसे प्राचीन हिंदू धर्म नगरी काशी को हिन्दुस्तानियों का काबा बताया.
मुगल दरबार में शाही शायर थे गालिब
मिर्जा गालिब, बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) के दरबार के शाही शायरों में शामिल थे, बादशाह ने भी उनसे इल्म हासिल किया. बाद में बहादुर शाह जफर ने गालिब को 'दब्बर-उल-मुल्क़' और 'नज़्म-उद-दौला' की शाही उपाधियों से नवाजा.
मिर्जा गालिब ने 1827 में दिल्ली से कलकत्ता का सफर किया. इस दौरान वो रास्ते में आने वाले कई शहरों- लखनऊ, बांदा और बनारस में ठहरते हुए गए थे. वो बनारस में करीब दो महीने तक रुके थे. सफर मुकम्मल होने के 30 साल बाद 1861 में अपने दोस्त मिर्जा सय्याह को लिखे खत में बनारस को याद करते हुए वो लिखते हैं कि...
‘बनारस का क्या कहना! ऐसा शहर कहां पैदा होता है. इंतहा-ए-जवानी में मेरा वहां जाना हुआ. अगर इस मौसम में जवान होता तो वहीं रह जाता. इधर को न आता!’
इसके अलावा उन्होंने बनारस पर फारसी जुबान में ‘चिराग़-ए-दैर’ नाम की मसनवी लिखी, जिसमें कुल 108 शेर हैं. ‘चराग़-ए-दैर’ यानी मंदिर का दीप.
कहा जाता है कि गालिब ने जिस तरह से बनारस के लिए लिखा है, उतना खूबसूरत ना तो उन्होंने आगरा के लिए लिखा और ना ही दिल्ली के लिए.
मिर्जा गालिब ने चिराग़-ए-दैर को फारसी जुबान में लिखा, हम आपको उसका हिंदी तर्ज़ुमा बताता हैं.
ब-ख़ातिर दाराम ईनक दिल जमीने
बहार आईं सवाद ए दिल नशीने
यानी...फूलों की इस सरजमीन पर मेरा दिल आया है, क्या अच्छी आबादी है, जहां बहार का चलन है
कि मी आयद ब दावा गाह ए लाफ़श
जहानाबाद अज बहर ए तवाफ़श
यानी...यह वो फख्र करने वाली जगह है, जिसके चक्कर काटने खुद दिल्ली भी आती है.
इबादत-ख़ाना-ए-नाक़ूसियानस्त
हमाना काबा ए हिन्दूस्तानस्त
यानी...बनारस हम शंख-नवाजों का मंदिर है, हम हिन्दुस्तानियों का का’बा है.
मिर्जा गालिब लिखते हैं कि “बनारस हर एक आत्मा को सुकून बख्सने वाली धरती थी. बनारस में कुम्हलाया हुआ क्या घास का एक तिनका और क्या कोई कांटा...सभी कुछ गुलिस्तां थे. उसकी मिट्टी भी इज्जतदार थी.”
वैसे तो ना जाने मिर्जा गालिब ने क्या सोच कर लिखा लेकिन आप इसे मजहबी मसलों पर एक गालिब का फलसफा भी समझें तो क्या बुरा है.
हम को मअलूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को 'गालिब' ये खयाल अच्छा है.
उर्दू शायर चंद्रभान खयाल ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि गालिब एक सेक्युलर शख्स थे, वो सभी मजहबों का एहतराम करते थे और उन्होंने हमेशा इंसानियत, मोहब्बत और भाईचारे को सबसे ऊपर रखा. उस वक्त के हिंदुस्तान और बनारस में हिंदू-मुस्लिम एकता जैसी चीजें बहुत नजदीक से उन्होंने महसूस की और उसे लिखा.
पूरे हिंदुस्तान में हमारी एक हजार साल की जो तारीख रही है, उसमें हिंदू-मुसलमान सभी मिल-जुलकर रहते थे. जरा-जरा सी बात पर किसी के भावनाओं पर ठेस पहुंचने जैसी बातें उस जमाने में नहीं हुआ करती थी. अगर हम देखें तो हमारी उर्दू शायरी का पूरा मिजाज बिल्कुल सेक्युलर है.चंद्रभाव खयाल, उर्दू शायर
उन्होंने आगे कहा कि अब हमारे हिंदुस्तान में कुछ लोग इतने कट्टर हो गए हैं कि थोड़ी सी बात पर उनकी भावनाओं को ठेस पहुंच जाती है. जिस जाफरानी रंग पर आज वबाल हो रहा है, वो कोई नया नहीं है...ये सदियों से चला आ रहा है. इस तरह की तमाम चीजों से हमारा कुछ भला नहीं होने वाला है, इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा. मिर्जा गालिब एक इल्हामी शायर थे, इंसान के लगभग हर मसलों का हल गालिब के कलम में देखने को मिलता है. वो ऐसे शायर हैं, जो उपदेश नहीं देते बल्कि दोस्त बनकर समझाते हैं.
तो गालिब के हिंस्दुस्तान के हिंदुस्तानी होने के नाते ही याद रखिए.
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