ADVERTISEMENTREMOVE AD

'सुख के बीज' कहानी संग्रह चाहत की दुनिया में अतृप्त भावों के समाने की दास्तान

'Sookh ke Beej' Book Review: लेखिका शिल्पी झा को 'व्यंग' लिखने की कला भूमिगत विरासत में मिली है

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

सुख की चाहत किसे नहीं होती? हर कोई सारे समय सुख ही सुख चाहता है और कभी भी अपने जीवन में दुख की हल्की छाया तक की कल्पना करना नहीं चाहता. लेकिन, दुख या अवसाद है कि वह सीमेंट में रेत की तरह घुसता जाता है और ठस्स पड़ी रेत की बोरी में पानी की तरह आसानी से जगह बनाता चला जाता है.

शिल्पी झा का पहला कहानी संग्रह 'सुख के बीज' चाहत की दुनिया में अतृप्ति के भावों के समाते जाने की दास्तान है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

भले शिल्पी झा खुद को पाठक मानती हैं, और सच तो यह है कि मुझे उनका अपने भीतर यह स्टूडेंटशिप बनाए रखना भाता है, भाया है. इसलिए उनकी कहानियों को पढ़ते समय आपको एक स्टूडेंट के भीतर के गहन ऑब्जर्वेशन का बोध होगा. निश्चित तौर पर इसमें उनके अपने साहित्येतर जीवन का भी हाथ है, जिसने उनके रचना संसार को ज़्यादा समृद्ध और सुंदर बनाया है.

आम तौर पर साहित्येतर क्षेत्रों से आए लोगों के लेखन में यह विशेषता पाई जाती है और इसीलिए भी उनका लेखन आम लेखन से थोड़ा अलग बनता जाता है. पाठकों के लिए यह और भी अच्छी स्थिति है, क्योंकि साहित्य के रास्ते उन्हें जीवन के अलग- अलग क्षेत्रों की जानकारी और अनुभव मिलते जाते हैं.

शिल्पी झा को 'व्यंग' लिखने की कला भूमिगत विरासत में मिली है 

शिल्पी के ब्लॉग 'मन पाखी' से मैं परिचित रही हूं. जिस दिन पहली बार पढ़ा था, उसी समय से उसके लेखन की कायल हो गई थी. शिल्पी के लेखन की एक खासियत- व्यंग है- उन्हें जैसे भूमिगत विरासत के रूप में मिली है. मिथिला की हैं, इसलिए सहज मैथिल व्यंग्य अपने आप चाय में चीनी की तरह घुलता मिलता उनके लेखन में आ जाता है. इसके लिए उन्हें कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता है.

'सुख के बीज' संग्रह में भी आपको यह झलक मिलेगी, खासकर 'आई लाइनर' कहानी में, जिसका नायक अपने बारे में कहता है- 'मैं? यानी इन छोटे से शहर की इकलौती यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर का इकलौता बेटा, जो उनकी होनहार दो बेटियों के बीच पैदा होने की गलती कर गया था'. लेकिन इस कहानी का अंत दिल में चींटी काट लेता है- 'वैसे भी प्रज्ञा को पता कहां, एक समय मैं माव और मेजेंटा में फर्क कर लिया करता था'. अहह!

'सुख के बीज' संग्रह में दस कहानियां है- किरदार, शुगर डैडी, काउंट योर ब्लेसिंग्स, सुख के बीज, पटना से चिट्ठी आई, वारिस, दूसरी बार, मंडल का बेटा, आई लाइनर और वह एक दिन. इन सभी कहानियों का ट्रीटमेंट बड़ा गहन और शांत है. आपको कोई किक नहीं मिल सकता है. मगर, इन सभी कहानियों में हालात की आंधियां और उसके मिजाज पल- पल रंग बदलते नजर आएंगे.

जेंडर बायस से दूर है शिल्पी की रचना 

आम तौर पर हम महिलाओं को पुरुषों से इतनी शिकायतें रहती हैं कि हम कभी भी उनके दुख या परेशानियों को न जानना चाहते हैं न समझना. मनुष्य होने की पहली पहचान है कि हम जेंडर विहीन होकर मनुष्य के मन के भावों के विभिन्न धरतालों को जानने- परखने का प्रयास करें. लेकिन, सामाजिक कन्डीशनिंग और पेट्रीयार्की का अतिक्रमण ऐसा करने से हमें रोकता रहा है. शिल्पी यहां ठहरती हैं, अपने को बदलती हैं, स्त्री- पुरुष के खांचे से खुद को बाहर निकाल कर 'किरदार' रचती हैं और तलाक के दंश से आहत पति मन के अवसाद को टटोलती है. तलाक पर शिल्पी की एक और कहानी है यहां- 'दूसरी बार', पर अलग मिजाज की.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

कहानियों से एक परिचय

आजकल पता नहीं, जेड या जी जेन युग है, लेकिन, जो भी है, उसका तगड़ा प्रतिनिधित्व करती है कहानी- 'शुगर डैडी' हमारे समय के एक फालतू से प्रेम और आसक्ति को अपने संधान का माध्यम बनाती कहानी- एकदम ठोस, निस्पंद और पत्थर जैसी सख्त तटस्थता और एकदम व्यावहारिक- 'बी प्रैक्टिकल' का जैसे उद्घोष करती कहानी, तो वहीं, 'जब जागो, तभी सवेरा' का जयगान करती कहानी 'काउंट योर ब्लेसिंग्स'. यहां शिल्पी एक औरत के माध्यम से हर उस औरत को अपनी कहानियों में ले ही आती है, जिसके जागने की उम्मीद में हम हर पल सोए रहते हैं या समाज हमें संखिया खिलाकर सुलाए रखता है. इस नींद से तभी मुक्ति मिलती है, जब हम खुद जगना तय कर लेते हैं. दर्द की बड़ी रिसती कटोरियाँ हैं- 'सुख के बीज' और 'पटना से चिट्ठी आई' कहानियां, तो 'धरती पर इंसान हैं अभी भी' की आस जगाती कहानी है 'वारिस'.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मण्डल का बेटा,वारिस,वह एक दिन - कहानी से रुबरु होते है

बहुत पहले हमने सुना था कि आजकल बेटे अनुकंपा के आधार पर नौकरी पाने के लिए पिता को रिटायरमेंट के कुछ दिन पहले किसी ऐसे रूप में मार देते हैं, जो बाहर से देखने में एकदम साधारण, सहज मृत्यु लगे. जिंदगी और मौत के बीच ऐसे तांडव अक्सर देखने- सुनने को मिल जाते हैं, संपत्ति या बंटवारे या ऐसे ही किसी स्वार्थ के कारण और इसे अंजाम देने में बोक्का दिमाग भी शातिर हो जाता है. 'मण्डल का बेटा' कहानी पढ़ते समय पहले जो एक हंसी आती रही, जो बाद में एक हल्की रूमानी कल्पना में बदलती है, वहीं बाद में एक भयावह सन्नाटा रचती है. लेकिन, भलाई करनेवाले इसमें भी भला कर जाते हैं 'वारिस' के डॉ सिन्हा की तरह. 'वह एक दिन' कहानी मुझे इसलिए भी अच्छी लगी कि उसकी एक किरदार का नाम विभा है. सोचिए, अपने नाम का कितना बड़ा ऑबसेशन होता है. मज़ाक को रहने दें, तो यह कहानी खोखले होते रिश्तों और दिखावा करते अभिनयों की करूण गाथा है, जहां ऊपर से सब चंगा होता है जी, मगर अंदर के रिसते पीब कोई नहीं देख पाता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अपने 'सुख के बीज' टटोलिए

कहानियों के डिटेल में जाने और यहाँ लिख देने का मतलब किसी फिल्म की कहानी बता देना या उसका अंत बता देना होता है. इसलिए, इन कहानियों के बारे में मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि बस लीजिए और पढ़ जाइए. खुद से इन कहानियों को टटोलिए, अपने मन को और अपने आसपास को टटोलिए. देखिए तो, अपने 'सुख के बीज' आपने कहाँ रख दिए हैं? शिल्पी ने जो बीज बोए हैं, उसके अंकुर फूट रहे हैं, बेल हरी- भरी होंगी. मुबारक शिल्पी!

( लेखिका विभा रानी वरिष्ठ कथाकार, नाटककार, रंगकर्मी, अभिनेत्री और लोक गायिका हैं, हिंदी और मैथिली में अब तक उनकी 20 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.साहित्य में योगदान के लिए उन्हें कथा सम्मान, घनश्याम दास सर्राफ़ साहित्य सम्मान तथा साहित्यसेवी सम्मान से पुरस्कृत किया जा चुका है. यहां लिखे विचार लेखिका के अपने हैं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×