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बीजेपी, AAP, कांग्रेस सभी को अंबेडकर की तस्वीर प्यारी है, उनकी राजनीति नहीं

राजेंद्र पाल गौतम को उस कार्यक्रम में जाने की सजा मिली है, जिसे अंबेडकर ने खुद शुरू किया था.

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने एक सामूहिक धर्मांतरण कार्यक्रम में हिस्सा किया लिया, भारतीय राजनीति की बदसूरती की ढेरों परतें उधड़ गईं. इस कार्यक्रम में दलित समुदाय के लोग बौद्ध धर्म अपना रहे थे.

लेकिन हम इस पर बात करें, इससे पहले कुछ सच्चाइयां.

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सच यह है कि राजेंद्र पाल गौतम ने कुछ भी गलत नहीं किया था. उन्होंने एक ऐसे आयोजन में हिस्सा लिया था, जिसकी शुरुआत खुद बाबा साहेब अंबेडकर ने की थी.

कथित रूप से “हिंदू भगवानों के खिलाफ टिप्पणी” सिर्फ एक प्रतिज्ञा थी. प्रतिज्ञा यह है कि बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद लोग हिंदू भगवानों, जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण, गौरी और गणपति की पूजा नहीं करेंगे. यह बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा है और किसी भी स्थिति में यह किसी देवता का अपमान नहीं करती, जैसा कि बीजेपी ने दावा किया है.

बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म अपनाया था और उसी की याद में हर साल यह कार्यक्रम देश के अलग-अलग हिस्सों में आयोजित किया जाता है.

(इस कार्यक्रम के बारे में अधिक जानकारी के लिए क्विंट के तेजस हरद का आर्टिकल यहां पढ़ें.)

हां, गौतम पर यह कहकर निशाना साधा गया कि उन्होंने हिंदुओं पर हमला किया. बीजेपी ने उनके खिलाफ एक पुलिस शिकायत भी दर्ज कराई. आखिरकार, उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.

11 अक्टूबर, मंगलवार को वह पुलिस स्टेशन में बैठे थे, जब उनके घर पर वाल्मीकि जयंती मनाई जा रही थी.

इस घटनाक्रम के चार पहलू उभरकर आते हैं.

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1. अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म पर हमला किया जा रहा है

गौतम ने बहुत सौम्य तरीके से प्रतिक्रिया दी. उन्होंने इस्तीफा देने के बाद कहा कि "बेड़ियां टूट गई हैं" और वह अपनी पार्टी को और नुकसान से बचाने के लिए इस्तीफा दे रहे हैं.

सच्चाई यह है कि गौतम को निशाना बनाया गया और एक ऐसे कार्यक्रम में भाग लेने के चलते इस्तीफा देने को कहा गया जिसके केंद्र में अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म है.

यह वैसे ही है, जैसे आप मुसलमानों को कलमा शहादा पढ़ने, सिख को अमृत चखने या ईसाइयों को बपतिस्मा करने के लिए सजा दें.

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इसलिए गौतम को एक नजीर की तरह पेश किया गया है. संदेश यह है कि अगर एक नेता ऐसे कार्यक्रम में हिस्सा लेता है तो उसे “हिंदू विरोधी” करार दिया जाएगा और उसकी पार्टी को उसकी राजीतिक कीमत चुकानी होगी.

यह अंबेडकरवादी बौद्ध नेताओं और नौकरशाहों को भी संदेश देने की कोशिश है. दलित समुदाय में यह वर्ग राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा मुखर रहा है.

इसके भी आगे, यह सभी अल्पसंख्यक धर्मों के लिए एक संदेश है. कि अगर धर्मांतरण के जरिए वे हिंदुओं के संख्याबल को कम करने की कोशिश करेंगे तो उन्हें बख्शा नहीं जाएगा. भले ही हिंदू धर्म के भीतर भेदभाव की वजह से धर्मांतरण किया जा रहा हो.

यह इशारा भी है कि इस्लाम और ईसाई धर्म पहले निशाने पर हों लेकिन दूसरे धर्मों को भी नहीं छोड़ा जाएगा, अगर वे मजहब हिंदू धर्म पर बट्टा लगाने की कोशिश करते हैं.

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2. बाबा साहेब मंजूर हैं, लेकिन उनकी राजनीति नहीं

बीजेपी ने हमला किया, इस सच्चाई के बावजूद कि वह लंबे समय से बाबा साहेब को एक प्रतीक के तौर पर एप्रोप्रिएट करने में लगी है.

यह साफ है कि बीजेपी इस राजनीतिक ताने-बाने को एक बड़े खतरे के रूप में देखती है और बाबा साहेब को पूजना, सिर्फ जुमलेबाजी भर है.

लेकिन अगर कोई एक पल के लिए भी बीजेपी को भूल जाए, तो इस पूरे प्रकरण में आम आदमी पार्टी का दामन भी उजला नजर नहीं आता. जाहिर है, उसने अपने मंत्री के साथ खड़े होने की बजाय गुजरात में अपने चुनाव अभियान को प्राथमिकता दी है. गुजरात में दलितों की संख्या महज 7% है.

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और अंबेडकरवादी दलित इससे काफी कम हैं. इसकी वजह से आम आदमी पार्टी ने आसानी से इस मामले में समझौता कर लिया.

राजेंद्र पाल गौतम का बचाव करने के लिए कोई बड़ा नेता सामने नहीं आया.

इससे उलट, सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया और यहां तक कि विजय नायर के समर्थन के लिए पूरी पार्टी मशीनरी जुटाई गई. यह वही पार्टी है जिसके मुखिया अरविंद केजरीवाल अक्सर ऐसी तस्वीरों को जारी करते रहते हैं जिनमें उनके पीछे बाबा साहेब अंबेडकर की बड़ी सी तस्वीर लगी होती हैं. और यह वही पार्टी है जो घोषणा करती है कि बाबा साहेब की तस्वीरें शहीद भगत सिंह के साथ पंजाब के सभी सरकारी दफ्तरों में लगाई जाएंगी.

केजरीवाल ने अपने ऑफिस स्पेस में बीआर अंबेडकर की तस्वीर लगाई है.

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ऐसा लगता है कि पार्टी बाबा साहेब की तस्वीर को तो चिपकाना चाहती है लेकिन उनकी राजनीति को नहीं संभाल सकती.

यह भी अजीब है कि सिसोदिया राजपूत और 'महाराणा प्रताप के वंशज' होने का घमंड दिखाते हैं. केजरीवाल अक्सर कहते हैं कि वह अग्रवाल समाज के सदस्य हैं. लेकिन राजेंद्र पाल गौतम के लिए एक अंबेडकरवादी बौद्ध होना सबके लिए समस्या पैदा करता है.

और दिलचस्प यह है कि कांग्रेस भी राजेंद्र पाल गौतम पर हमला करने वालों में शामिल हो गई. दिल्ली युवा कांग्रेस ने गौतम पर हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने का आरोप लगाते हुए एक ट्वीट किया. हालांकि आलोचनाओं का सामना करने के बाद उन्होंने ट्वीट को डिलीट कर दिया.

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3. अंबेडकरवादी राजनीति के लिए कम गुंजाइश

इस पूरी घटना ने बताया है कि अंबेडकरवादी राजनीति की गुंजाइश कम हो रही है. यूं इसे पहले से "हिंदू विरोधी" माना जाता था लेकिन हिंदुत्व के बढ़ते प्रभुत्व के साथ यह सोच और बढ़ रही है.

2020 के दिल्ली दंगों में भी, जैसा कि द क्विंट बता चुका है कि हिंदुत्व समूहों ने अंबेडकरवादियों को निशाना बनाया था और रागिनी तिवारी ने तो उनकी हत्या की अपील भी की थी.

सिर्फ हिंदू धर्म के पहलुओं की आलोचना करने पर दलितों को सजा देना आसान भी हो गया है.

जैसे लिए हाल ही में काशी विद्यापीठ के लेक्चरर मिथिलेश कुमार गौतम को सिर्फ यह कहने के लिए बर्खास्त कर दिया गया था कि हिंदू महिलाओं को नवरात्र पर व्रत रखने की बजाय हिंदू कोड बिल और भारतीय संविधान पढ़ना चाहिए.

अंबेडकरवादियों और दलितों को निशाना बनाना इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि बसपा और आरपीआई जैसी अंबेडकरवादी पार्टियों का चुनावी भविष्य ढलान पर है.

कभी उत्तर प्रदेश में सरकार बना चुकी और एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी रही बसपा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर सिमट गई थी.

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दिल्ली में उसकी मौजूदगी लगभग शून्य है और इसका फायदा आम आदमी पार्टी और राजेंद्र पाल गौतम जैसे नेताओं को मिला.

गौतम का निर्वाचन क्षेत्र पूर्वोत्तर दिल्ली का सीमापुरी है. 2003 से 2013 के बीच सीमापुरी में बसपा का वोट शेयर 10% से ज्यादा था. लेकिन आम आदमी पार्टी की 2015 और 2020 की जीत के वक्त यह वोट शेयर बहुत मामूली था.

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4. हिंदुत्व का आधिपत्य

यह स्पष्ट है कि हिंदुत्व भारतीय राजनीति पर आधिपत्य जमाने के लिए आ गया है. प्रवेश वर्मा, नंद किशोर गुर्जर जैसे बीजेपी नेताओं ने हाल ही में दिल्ली में कथित रूप से नफरत भरे बयान दिए लेकिन कोई हंगामा या पुलिस कार्रवाई नहीं हुई.

हिंदुत्व के आधिपत्य का ही नतीजा है कि अल्पसंख्यकों, या खुद अपने मंत्री पर हमला होने के बावजूद आम आदमी पार्टी ने मुंह नहीं खोला.

इसी के चलते बहुसंख्यक समुदाय के भीतर एक राजनीतिक तबके को एक तरह से वीटो की ताकत मिल गई है जो बीजेपी के साथ-साथ गैर बीजेपी पार्टियों के विकल्पों को तय कर रही है. राजनीति से बाहर, मीडिया और फिल्मों में भी यह चर्चा को स्वरूप दे रहा है.

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