14 अप्रैल को डॉ भीमराव अंबेडकर की 130वीं जयंती है. दुनियाभर के वो लोग जो सामाजिक न्याय और समरसता में भरोसा रखते हैं वो इसे धूमधाम से मनाते हैं और अपने देश की सभी राजनीतिक पार्टियां भी इसकी तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ती. इस बार यूपी की समाजवादी पार्टी ने कुछ 'अलग' करने की सोच इस दिन को 'दलित दिवाली' के तौर पर मनाने का फैसला लिया है. प्रदेश में पंचायती चुनाव की प्रक्रिया चल रही है और विधानसभा चुनाव नजदीक है, ऐसे में इस कदम के सामाजिक और राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं. समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने 'दलित दिवाली' के तौर पर मनाने का ऐलान तो किया साथ ही सत्ताधारी दल बीजेपी पर भी भड़कते दिखे.
यूपी कांग्रेस ने अखिलेश यादव के इस कदम को 'दिखावा' बताया है. साथ ही कई अंबेडकरवादी ऐसे हैं, जिसे इस 'दलित दिवाली' शब्द से ही आपत्ति है, सोशल मीडिया पर भी इसके खिलाफ ट्रेंड चलता दिखा. ऐसे में क्विंट हिंदी ने कुछ युवा अंबेडकरवादियों से बातचीत की और जाना कि अखिलेश यादव के इस कदम और 'दलित दिवाली' से आखिर आपत्ति क्या है?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव कहते हैं कि 'संविधान सभा में तो खुद डॉ. अंबेडकर ने दलित शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, जयपाल सिंह मुंडा कहते थे कि हमें आदिवासी शब्द चाहिए, एसटी शब्द नहीं. लेकिन, जिस दिन जयपाल जी मौजूद नहीं थे उसी दिन बिल को पास कर दिया गया था.'
लक्ष्मण का कहना है कि आजादी के बाद जो चीजें हमारे व्यवहार में आईं, उस लिहाज से दलित शब्द को शेड्यूल कास्ट (SC) कम्युनिटी के लिए माना गया. लिहाजा मेरी समझ में अखिलेश यादव को 'दलित दीपावली' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था. इसका पहला ही अर्थ ये निकलता है कि अंबेडकर सिर्फ दलितों के नेता थे.
‘हमारा मानना है कि अंबेडकर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के सबसे बड़े आइकॉन थे. दलित टर्मिनोलॉजी इस बड़ी छतरी को छोटा कर रही है. बेहतर होता कि अखिलेश समता दिवस या न्याय दिवस जैसा कोई शब्द देते.’लक्ष्मण यादव, असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली यूनिवर्सिटी
दिवाली ही क्यों?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के श्यामलाल कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर जितेंद्र मीणा कहते हैं कि आखिर 'दिवाली' ही क्यों? उनका कहना है कि दिवाली का कल्चरल सेंस हिंदुत्व से जुड़ा है. उसके पीछे एक नैरेटिव है, इससे दिख रहा है कि हिंदुत्व की पॉलिटिक्स के ग्राउंड पर ही समाजवादी पार्टी भी खेलना चाहती है.
‘लेकिन, आप जिस ग्राउंड पर खेलना चाह रहे हैं, आपके सामने वाली पार्टी उस ग्राउंड की चैंपियन है. तो दलित दिवाली के नाम के बजाए डॉ भीमराव अंबेडकर के नाम से ही बड़े पैमाने पर इसे मनाकर सेलिब्रेट किया जा सकता था.’जितेंद्र मीणा, असिस्टेंट प्रोफसर, दिल्ली यूनिवर्सिटी
'बहुजन समुदाय' को खास ध्यान में रखकर बनाए गए डिजिटिल प्लेटफॉर्म 'द शूद्र' के सुमित चौहान कहते हैं कि जिस किसी ने अगर बाबा साहब को पढ़ा है वो उनका योगदान जानते हैं और वो कभी भी दलित दिवाली जैसे शब्द या कार्यक्रम की आयोजन की बात नहीं कह सकता.
सुमित का कहना है कि अखिलेश यादव भी उसी रास्ते पर हैं, जिसपर पहले कुछ पार्टियां चलती आईं हैं और बाबा साहब को सिर्फ दलित समुदाय तक सीमित रखने की कोशिशें करती आई है.
‘बाबा साहब आधुनिक भारत के निर्माता हैं. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना, काम के घंटों को तय कराना, इंश्योरेंस और कर्मचारियों के टीए-डीए जैसी सुविधाएं दिलाने में, महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिलाने जैसी चीजों में डॉ भीमराव अंबेडकर का योगदान रहा है. तो क्या ये सिर्फ एक समुदाय के लिए था?’सुमित चौहान, द शूद्र
8 अप्रैल को अखिलेश यादव ने ये ऐलान किया था, 10 अप्रैल को उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और इस नाम रखे जाने पर भी अपनी बात रखी.
अखिलेश यादव ने कहा कि 'नाम तो कुछ भी हो सकता है, नाम पर शिकायत हो सकती है, सबसे बड़ा सवाल है बीजेपी-कांग्रेस वाले दिए जलाएंगे कि नहीं' इसी के साथ ही अखिलेश ने प्रदेश में ‘बाबा साहेब वाहिनी’ के गठन का ऐलान किया.
दलित दिवस' में कितनी पॉलिटिक्स?
लक्ष्मण यादव कहते हैं कि समाजवादी पार्टी भी आगामी चुनावों की तैयारी कर रही है. लेकिन इससे अंबेडकर की छवि सीमित हो रही है और इसका कोई फायदा भी नहीं मिलने जा रहा. वो कहते हैं,
राजनीतिक नारों का अब जमीन से कोई सरोकार नहीं होता. इसके कोई मायने नहीं हैं कि आप अंबेडकर की जयंती पर अंबेडकर को याद करें और परशुराम की जयंती पर उन्हें याद करें. मेरा राजनीतिक पार्टियों से सवाल है कि आखिर आपकी विचारधारा क्या है?
जितेंद्र मीणा इसे समाजवादी विचारधारा से बिलकुल उलट कदम के तौर पर देखते हैं. उनका कहना है कि सामाजवादी पार्टी की पॉलिटिक्स करने वालों को पता होना चाहिए कि समाजवाद में तो कहीं पर भी इस तरीके का स्पेस नहीं है. वहां आप राजनीति को दूसरे तरीके से देखते हैं.
अंबेडकर और हिंदुत्व दोनों को मिलाकर एक विचारधारा को संकीर्ण करने की कोशिश के तौर पर इस कदम को देखा जाना चाहिए, जिसकी बिलकुल भी जरूरत नहीं है. इसे बहुजन नजरिए से देखा जाना चाहिए था.जितेंद्र मीणा, असिस्टेंट प्रोफसर, दिल्ली यूनिवर्सिटी
सोशल मीडिया पर भी 'दलित दिवाली' की खूब चर्चा है. कोई समाजवादी पार्टी के पुराने किस्से गिना रहा है तो कोई इस कदम को प्रतीक की राजनीति का उलटा पड़ जाना बता रहा है.
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