'वारिस पंजाब दे' प्रमुख अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh) के खिलाफ पंजाब पुलिस की कार्रवाई को एक महीने गुजर गए हैं लेकिन अभी तक उसका कोई पता नहीं चला है.
पुलिस द्वारा बताई गई उसकी आखिरी पक्की लोकेशन 19 मार्च की रात की थी. जबकि अमृतपाल सिंह आखिरी बार 30 मार्च को एक अज्ञात स्थान से जारी एक वीडियो में नजर आया था.
क्या वह उसके बाद पकड़ा गया है? क्या वह देश से भागने में सफल रहा है? या वह मीडिया में अटकलें लग रहे इन कई ठिकानों में से किसी एक जगह छिपा हुआ है- पंजाब, उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र आदि?
कयास लगाने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि कहानी अमृतपाल सिंह की लोकेशन से कहीं ज्यादा बड़ी हो गई है. इसके चार पहलू हैं.
1. पुलिसिया कार्रवाई 'वारिस पंजाब दे' से बहुत आगे निकल गयी
भले ही पुलिसिया कार्रवाई का कथित लक्ष्य अमृतपाल सिंह का संगठन वारिस पंजाब दे था, लेकिन वास्तव में इसका दायरा काफी व्यापक था.
हिरासत में लिए गए कई लोगों का वारिस पंजाब दे से कोई संबंध नहीं था.
पिछले एक महीने में कई पत्रकारों से पुलिस ने पूछताछ की है. कई सिख पत्रकारों और सार्वजनिक हस्तियों के सोशल मीडिया हैंडल को भारत में बैन कर दिया गया. इनमें से ज्यादातर लोग 'वारिस पंजाब दे' से जुड़े नहीं हैं. बैन किए गए अकाउंट में कनाडा के राजनेता जगमीत सिंह और गुररतन सिंह, संगरूर के सांसद सिमरनजीत सिंह मान और कवयित्री रूपी कौर शामिल हैं.
पुलिस द्वारा पूछताछ किए गए एक्टिविस्ट में से एक का मानना है कि 'वारिस पंजाब दे' वास्तव में कार्रवाई का केवल एक हिस्सा था.
उस एक्टिविस्ट ने कहा, "वारिस पंजाब दे मुख्य फोकस नहीं था. यह सिख समुदाय के राजनीतिक रूप से जागरूक वर्ग पर एक मनोवैज्ञानिक कार्रवाई थी."
इस पर विस्तार से बताते हुए एक्टिविस्ट ने कहा, "पंजाब में स्वतंत्र पत्रकार, प्रवासी भारतीयों में सिख इंफ्यूएंसर और कलाकारों ने पंजाब-केंद्रित नैरेटिव को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने किसानों के विरोध के दौरान दिल्ली की नैरेटिव को हराने में मदद की. इस कार्रवाई का उद्देश्य था उन्हें चुप कराना और उनके नेटवर्क को तोड़ना."
कई सिख एक्टिविस्ट का मानना है कि इस पुलिसिया कार्रवाई की जड़ें 2022 में अमृतपाल सिंह के उभार में नहीं बल्कि 2020-21 के किसान आंदोलन में हैं.
एक्टिविस्ट ने कहा, "क्या आप जानते हैं कि इस ऑपरेशन से कौन प्रभावित हुआ? कृषि कानूनों का विरोध करने वाले पूरे 'गैर-किसान यूनियन' और 'गैर-वामपंथी' हिस्सा"
सिख सियासत के संपादक परमजीत सिंह गाजी उन पत्रकारों में शामिल हैं जिनका ट्विटर अकाउंट भारत में बंद कर दिया गया है. पुलिस इस महीने की शुरुआत में उनके आवास पर भी पहुंची थी.
गाजी के अनुसार, "कार्रवाई का ओवरऑल उद्देश्य वास्तविक जानकारी के प्रसार को नियंत्रित करना और केवल सरकार के नैरेटिव को बढ़ावा देना है."
2. आदेश दिल्ली से आ रहा
यदि वास्तव में इस ऑपरेशन की जड़ों को किसानों के विरोध में खोजा जा सकता है, तो स्वाभाविक अनुमान होगा कि आदेश केंद्र सरकार से आ रहे हैं, न कि पंजाब सरकार फैसले ले रही.
यह धारणा दो और तथ्यों से और मजबूत होती है:
तथ्य यह है कि लुमेन डेटाबेस के सामने ट्विटर के खुलासे के अनुसार, पिछले एक महीने में 150 से अधिक पंजाब-बेस्ड और सिख अकाउंट को ब्लॉक करने के लिए अनुरोध करने वाली एजेंसी, भारत सरकार थी.
जिस तरह से अमृतपाल सिंह के शीर्ष सहयोगियों को बीजेपी शासित राज्य असम ले जाया गया, वह केंद्र की सक्रिय भागीदारी के बिना नहीं हो सकता था.
यदि यह पूरी तरह से पंजाब की AAP सरकार का निर्णय होता, तो वे बंदियों को एक मित्रवत सरकार वाले राज्य में भेज सकते थे - जैसे तेलंगाना या पश्चिम बंगाल, न कि ऐसे राज्य में जिसका मुख्यमंत्री अक्सर AAP नेताओं के साथ शब्दों के युद्ध में लगा रहता है.
पंजाब में उग्रवाद के बैकग्राउंड की वजह से, पंजाब पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों के बीच कोर्डिनेशन हमेशा सुचारू रहा है, चाहे राज्य स्तर पर सत्ता में कोई भी पार्टी क्यों न हो.
इसमें इस तथ्य से भी मदद मिली होगी कि दो प्रमुख केंद्रीय एजेंसियों के प्रमुख - रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) के सामंत गोयल और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) के दिनकर गुप्ता - दोनों पंजाब कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं.
3. 'वारिस पंजाब दे' कमजोर हुआ है
इस बात की संभावना है कि पुलिसिया कार्रवाई के कारण 'वारिस पंजाब दे' एक संगठनात्मक दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा कमजोर हो गया है. अमृतपाल सिंह का दबदबा भी शायद कम हो गया हो. यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि वैशाखी पर सरबत खालसा बुलाने के लिए उनकी अपील को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली.
अमृतपाल सिंह के अधिकांश शीर्ष सहयोगी अब सलाखों के पीछे हैं, जिसमें पापलप्रीत सिंह भी शामिल है, जो कई हफ्तों से उसके साथ फरार था.
यह कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे अमृतपाल सिंह अपने प्रमुख सहयोगियों के बिना अपने भाग्य को पुनर्जीवित करने में सक्षम होगा, भले ही वह किसी तरह गिरफ्तारी से बचने में सफल होता रहा. बेशक, यह भी सच है कि इस कार्रवाई से अमृतपाल सिंह को पंजाब में कई ऐसे लोगों की सहानुभूति मिली, जो अन्यथा उनसे असहमत हो सकते थे.
इसके अलावा, सिखों का एक वर्ग मानता है कि अमृतपाल सिंह द्वारा किए गए अपराधों की तुलना में उसपर की जा रही कार्रवाई बहुत अधिक है.
एक धारणा यह भी है कि अमृतपाल सिंह द्वारा उत्पन्न खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए नेशनल मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.
4. संभल कर आगे बढ़ा अकाल तख्त
अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने पिछले एक महीने के घटनाक्रम को बड़ी चतुराई से संभाला है. सिखों के बीच सर्वोच्च लौकिक निकाय- अकाल तख्त इस कार्रवाई के खिलाफ बोलने और बंदियों की रिहाई का आह्वान करने में आगे रहा है.
अकाल तख्त जत्थेदार ने कई बैठकें भी कीं - जिसमें 27 मार्च को सिख निकायों और बुद्धिजीवियों के साथ एक उच्च स्तरीय बैठक और 7 अप्रैल को पत्रकारों के साथ एक बैठक शामिल थी.
जत्थेदार ने वैशाखी पर सरबत खालसा बुलाने के अमृतपाल सिंह के अनुरोध को टाल दिया. अगर वह मान जाते तो इससे केंद्र और राज्य सरकार के साथ टकराव बढ़ जाता.
उनके निर्देशों के तहत, SGPC कार्रवाई के दौरान गिरफ्तार किए गए सभी लोगों को कानूनी सहायता प्रदान करेगी, जिनमें असम ले जाए गए लोग भी शामिल हैं.
शिकायतों को शांतिपूर्ण तरीके से व्यक्त करने के लिए अकाल तख्त का मंच प्रदान करके, जत्थेदार ने कुछ हद तक स्थिति को कम करने में मदद की है.
हालांकि, अकाल तख्त और इससे भी बढ़कर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति खुद को हिंदुत्व पक्ष के हमलों के निशाने पर है. ताजा घटना एक महिला को हरमंदिर साहिब में प्रवेश से वंचित करने का एक वायरल वीडियो था. महिला की कहानी में कई लूपहोल के बावजूद, राष्ट्रीय मीडिया ने इसे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की ओर से शत्रुतापूर्ण कार्य के रूप में प्रस्तुत किया.
आगे क्या होगा?
एक बात तो साफ है कि कई संस्थाएं पंजाब में ध्रुवीकरण बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. ऊपर उल्लिखित हरमंदिर साहिब की घटना के बाद, कई पत्रकारों और कम से कम एक बीजेपी नेता ने सेवादार को 'खालिस्तानी' करार दिया. कार्रवाई के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर यह धारणा बनती दिख रही है कि पंजाब एक बार फिर अशांत राज्य बन गया है.
यहां तक कि बाहरी एजेंसियां भी खेल कर रही हैं - उदाहरण के लिए लें कि कैसे पाकिस्तान स्थित हैंडल ने बठिंडा मिलिट्री कैंप में जवानों में बीच गोलीबारी और हत्या को आतंकवादी हमले के रूप में पेश करने की कोशिश की.
आने वाले वक्त में भी किसी भी बात में भी 'खालिस्तान' एंगल जोड़ने का चलन और बढ़ने की संभावना है.
मई में होने वाला जालंधर उपचुनाव एक मील का पत्थर है. यह देखना दिलचस्प होगा कि अमृतपाल विरोधी कार्रवाई का चुनावी समीकरणों पर क्या असर पड़ा है. यह पंजाब की उन चार लोकसभा सीटों में से एक है जहां सिख अल्पसंख्यक हैं - इस सीट पर हिंदू, रविदासी और आदि धर्मी मतदाताओं की अच्छी खासी संख्या है.
चुनाव में दो बातों पर ध्यान देना होगा- AAP ने कितनी जमीन गंवाई है, कांग्रेस और SAD-BSP जैसी पारंपरिक पार्टियां कितनी पुनर्जीवित हुई हैं.
देखने लायक दूसरा पहलू यह है कि भले ही अमृतपाल सिंह कार्रवाई में चुनावी एक्शन से गायब हैं और उसके संगठन में दरार आ रही है, फिर भी अधिक उग्र पंथिक राजनीति की गुंजाइश बढ़ गई है. क्या मौजूदा खिलाड़ियों में से कोई इस स्थान को भरेगा या कोई अन्य नई इकाई उभर कर आएगी?
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