गुजरात में बीजेपी (BJP) नेतृत्व में बदलाव होना ना तो पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के बारे में कुछ बताता है और ना ही उनकी जगह आए भूपेंद्र पटेल के बारे में या फिर उन दूसरे नेताओं के बारे में जिन्होंने एक बार फिर मौका खो दिया. यह बदलाव अगर कुछ बताता है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के काम करने के तरीकों के बारे में बताता है.
कई लोग इसे मोदी-शाह के अहंकारी होने का सबूत देते हैं, तो कई इसे उनका एक और मास्टरस्ट्रोक बताते हैं. लेकिन आखिर में, गुजरात में बदलाव के बारे में लोगों की राय मुख्य रूप से मोदी और शाह के बारे में उनके विचारों की उपज थी.
रूपाणी को लेकर नेगेटिव फीडबैक की वजह से हटाया गया
स्पष्ट रूप से, मोदी और शाह को यह फीडबैक मिला कि चुनाव में एक साल का ही समय बचा है. बीजेपी रूपाणी के नेतृत्व में अच्छी स्थिति में नहीं हो सकती है और बदलाव की जरूरत है.
पाटीदार समुदाय तक पहुंचने की जरूरत को महसूस करते हुए ही रूपाणी को लेवा पटेल नेता भूपेंद्र पटेल से बदल दिया गया है, जो विश्व उमिया फाउंडेशन और सरदार धाम जैसे कई सामुदायिक संगठनों से जुड़े हैं.
यह मोदी और शाह की ओर से कुछ हद तक व्यावहारिकता और फ्लेक्जिबिलिटी को दर्शाता है. रूपाणी को 2016 में ऐसे समय में मुख्यमंत्री बनाया गया था, जब गुजरात में जाति का ध्रुवीकरण चरम पर था, पाटीदार समुदाय ने आरक्षण की मांग की थी और ओबीसी नेताओं ने विरोध प्रदर्शन किया था.
उस समय दोनों पक्षों की तरफ से नकारात्मक नजर आने वाली आनंदीबेन पटेल को हटाना जरूरी था और उनकी जगह विजय रूपाणी को नियुक्त किया गया था. जैन पृष्ठभूमि से मृदुभाषी नेता होने के नाते, रूपाणी को किसी भी जाति समूह द्वारा विरोधी ढंग से नहीं देखा गया था.
लेकिन पांच साल बाद हालात बदल गए, जाति ध्रुवीकरण अब उतना नहीं है. लेकिन बीजेपी को पाटीदारों का वोट अपनी तरफ करना है, खासकर सौराष्ट्र में.
ऐसी आशंका भी थी कि अगर कांग्रेस हार्दिक पटेल या परेश धनानी को सीएम उम्मीदवार के रूप में उतारती है, तो इन समुदाय में यह बीजेपी के आधार को नुकसान पहुंचा सकता है.
इस बीच, महामारी से निपटने में रूपाणी की विफलता के साथ-साथ लगातार ग्रामीण अशांति का मतलब था कि उनके साथ बने रहने से मामला और बिगड़ता. नतीजतन, रूपाणी की जगह भूपेंद्र पटेल ने ले ली है.
कर्नाटक, उत्तराखंड, असम और केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के मामले
रूपाणी को हटाना कोई इकलौता मामला नहीं है. मोदी और शाह ने राजनीतिक वास्तविकताओं और कई आंकलन कर पिछले एक साल में कुछ और महत्वपूर्ण बदलाव भी किए.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में बसवराज बोम्मई को बीएस येदियुरप्पा से बदल दिया गया था. जनता दल की पृष्ठभूमि से होने के बावजूद उन्हें नियुक्त किया जाना आश्चर्यजनक था, क्योंकि उन्हें आरएसएस पृष्ठभूमि के कई बीजेपी नेताओं से ज्यादा वरीयता दी गई थी.
उत्तराखंड में, त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में कुछ खास नहीं हो पा रहा था और तीरथ सिंह रावत को नेतृत्व में लाने पर भी वो संतुष्टि नहीं मिल सकी जो बीजेपी आलाकमान चाह रही थी. तभी इस बदलाव के चार महीने बाद ही मोदी और शाह ने तीरथ सिंह रावत की जगह 45 साल के पुष्कर धामी को नियुक्त किया.
हालांकि यह बदलाव भी बीजेपी के लिए राज्यो में कुछ खास हालात नहीं बदल पाएगा, यह पर्याप्त नहीं है, लेकिन रिपोर्ट्स से पता चलता है कि इससे बीजेपी की गिरावट तो होगी, लेकिन कुछ हद तक धीमी हो सकती है.
असम में विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद मुख्यमंत्री का बदलाव करना थोड़ा अलग मामला है जो पार्टी की बदलती प्राथमिकताओं को बताता है.
AASU और AGP पृष्ठभूमि से आने वाले सर्बानंद सोनोवाल ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए बीजेपी के लिए असमिया राष्ट्रवाद को बढ़वा देते हुए बीजेपी की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
लेकिन उनका उद्देश्य पूरा होने पर पार्टी ने अब हिमंत बिस्वा सरमा जैसे नेता को चुनने का फैसला किया, जो वैचारिक रूप से हिंदुत्व समर्थक हैं और राज्य में नागरिकता संशोधन अधिनियम को लागू करने के लिए ज्यादा प्रतिबद्ध नजर आते हैं.
केवल सीएम का बदलाव ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्रीपरिषद में फेरबदल भी जमीन से आने वाले फीडबैक पर की गई कार्रवाई की जरूरत को दर्शाता है. यह उत्तर प्रदेश में आने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए किया गया. कुर्मी, एक लोध, एक पासी, एक धनगर, एक कोरी और एक ब्राह्मण. एक ब्राह्मण मंत्री को छोड़कर, अन्य गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोटों पर अपनी पकड़ बनाए रखने के बीजेपी के प्रयासों का हिस्सा थे, जो शायद पार्टी से दूर जा रहे थे.
अब, यह बहुत संभव है कि उनकी नियुक्ति इन समुदायों को बीजेपी से दूर जाने से नहीं रोक पाएगी या गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक में सत्ता परिवर्तन इन राज्यों में सत्ता विरोधी लहर को रोकने में मदद नहीं करेगा.
लेकिन कम से कम ये फैसले मोदी और शाह की बदली हुई परिस्थितियों और नकारात्मक प्रतिक्रिया के आधार पर बदलाव करने की क्षमता को दर्शाते हैं. इसके उलट, कांग्रेस अभी भी पंजाब के संकट को मैनेज करने में जुटी है, जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद वह सत्ता में बने हुए हैं.
बीजेपी में हाई कमान कल्चर की शुरुआत
मोदी और शाह भले ही बदली हुई परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया दे रहे हों, लेकिन गुजरात में सत्ता परिवर्तन बीजेपी में आलाकमान के कल्चर की स्थापना को भी दर्शाता है. यह कुछ ऐसा है जिसके लिए बीजेपी हमेशा कांग्रेस की आलोचना करती आई है.
पाटीदार संगठन से उनके संबंध होने के बावजूद, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भूपेंद्र पटेल का राजनीतिक रूप से कोई खास दबदबा हो. वह पहली बार विधायक बने हैं और अहमदाबाद के घाटलोदिया जैसे बीजेपी के जाने माने गढ़ से जीते हैं.
भले ही मोदी और शाह पाटीदारों को खुश करना चाहते थे, लेकिन अपेक्षाकृत अधिक राजनीतिक दबदबे वाले कई नेता थे जिन्हें पार्टी चुन सकती थी जैसे परषोत्तम रूपाला, आरसी फालदू, जीतू वघानी.
यह स्पष्ट है कि पार्टी आलाकमान को कोई ऐसा नेता चाहिए, जो राजनीतिक रूप से कोई बहुत ज्यादा दबदबा नहीं रखता हो. कांग्रेस पहले ही भूपेंद्र पटेल को "रिमोट कंट्रोल्ड मुख्यमंत्री" कह चुकी है. दिल्ली से चीजों को नियंत्रित करने की आवश्यकता के अलावा, मोदी और शाह यह भी संदेश दे रहे हैं कि उनकी योजनाओं में कोई भी निकाय अपरिहार्य नहीं है.
बीजेपी सूत्रों ने कैबिनेट में फेरबदल होने के बाद द क्विंट को बताया था कि "वो किसी को भी ज़मीन से लाकर खड़ा कर सकते हैं और बड़े से बड़े चेहरे को वापस जमीन पर भी गिरा सकते हैं ."
यही बात सीएम की नियुक्तियों पर भी लागू होती है. मोदी और शाह बीजेपी में सभी को यह संदेश देना चाहते हैं कि किसी को भी अपने पद को हल्के में नहीं लेना चाहिए, यहां तक कि भूपेंद्र पटेल जैसे पहली बार विधायक, पुष्कर धामी जैसे कनिष्ठ नेता या बसवराज बोम्मई जैसे "बाहरी" को पुरस्कृत किया जा सकता है.
लेकिन मोदी-शाह के रुख में एक समस्या जरूर है, जब किसी सीएम या मंत्री का नेगेटिव फीडबैक आता है तो उस पर तुरंत कार्रवाई की जाती है लेकिन जब वही बात खुद पर आती है तब कोई कार्रवाई होती नहीं दिखती.
पूर्व स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को छोड़ दें तो आर्थिक गड़बड़ी, महामारी या चीनी घुसपैठ के कारण हुई तबाही, केंद्र सरकार में बिना किसी हलचल के निकल गई है, किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. ऐसा प्रतीत होता है कि नकारात्मक प्रतिक्रिया प्रमुख केंद्रीय मंत्रियों पर लागू नहीं होती है.
एक और अपवाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, जो महामारी से निपटने में सफल नहीं हुए, लेकिन इसके बावजूद उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. यह जरूर ही मुख्य रूप से राजनीतिक दबदबे के कारण है, योगी की अच्छी खासी हिंदुत्व कट्टरपंथियों के बीच दबदबा होने के कारण. तो आखिर में यह बात कही जा सकती है कि मोदी-शाह के सामने किसका कद कितना है यह किसी के प्रदर्शन के आधार पर तय नहीं होता.
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