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यूपी चुनाव: अवध का नवाब कौन बनेगा? 1993 से चुनाव नतीजे बताते अयोध्या का मिजाज

अवध में राम मंदिर का मुद्दा चलेगा या पिछड़ों की राजनीति, क्या है वोटों का गणित?

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उत्तर प्रदेश का अवध. वह इलाका जहां से राम मनोहर लोहिया निकले. नेहरू के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले आचार्य नरेंद्र देव निकले. कुछ हिस्सों में कम्युनिस्ट पार्टी भी सक्रिय रही. लेकिन यहीं से राम मंदिर निर्माण की आवाज भी उठी. पूरे देश में आंदोलन हुए. बीजेपी को एक राजनीतिक जमीन मिली. एसपी और बीएसपी की पिछड़ों की राजनीति में धर्म की एंट्री हुई. अब वो अवध किसका है? अखिलेश-मायावती के वोटर पर राम मंदिर ने कितना असर डाला? इसे तीन बार के लोकसभा और दो बार को विधानसभा चुनावों से समझते हैं?

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अवध में 22 जिले और 130 विधानसभा सीटें हैं

अवध में 22 जिलों की 130 विधानसभा सीटें हैं. फैजाबाद भी इसी में आता है. उसके अलावा औरैया, बहराइच, बलरामपुर, बाराबंकी, इटावा, फतेहपुर, गोंडा, अंबेडकर नगर, हरदोई, कन्नौज, कानपुर, कानपुर देहात, कौशाम्बी, लखीमपुर खीरी, लखनऊ, प्रतापगढ़, रायबरेली, श्रावस्ती, सीतापुर, सुल्तानपुर और उन्नाव शामिल है.

अवध में ही अयोध्या भी आता है, जहां 1991 से बीजेपी काबिज है. सिर्फ साल 2012 में एसपी के टिकट पर तेज नारायण पांडे ने जीत हासिल की. उसके अलावा इस विधानसभा सीट से बीजेपी को कोई हरा नहीं पाया. हर बार बीजेपी उम्मीदवार को औसत 40% से ज्यादा वोट ही मिले. हालांकि ये असर सिर्फ अयोध्या में ही दिखा. आस-पास की सीटों पर नहीं.

अवध में राम मंदिर से ज्यादा पिछड़ों की राजनीति हावी रही

अवध का मिजाज पूर्वांचल से थोड़ा अलग है. यहां हर पार्टी को कुछ न कुछ सीट मिल जाती है, लेकिन मुख्य मुकाबला एसपी, बीएसपी और बीजेपी के बीच रहा. कांग्रेस का असर रायबरेली-प्रतापगढ़ तक ही रह गया. फैजाबाद राम मंदिर आंदोलन का केंद्र रहा. जहां विधानसभा की 4 सीटें हैं. अयोध्या भी इनमें से एक है. लेकिन 2012 के चुनाव में चारों सीटों पर एसपी का कब्जा था. 2017 में चारों पर बीजेपी आ गई. लेकिन अयोध्या की सीट छोड़ दें तो बाकी जगहों पर बीजेपी और राम मंदिर का मुद्दा बहुत प्रभावी नहीं रहा.

अयोध्या के आसपास भी खूब हारी बीजेपी

अयोध्या के बगल में मिल्कीपुर सीट है, जहां से 1977 के बाद बीजेपी सिर्फ दो विधानसभा चुनाव जीत सकी. इस सीट को 1977 से 1985 तक कम्युनिस्ट पार्टी ने तीन बार जीता. 1989 में कांग्रेस और 1991 में बीजेपी आई. 1993 में फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ने वापसी की. 1996, 2002 और 2012 में एसपी, 2007 में बीएसपी और 2017 में बीजेपी आई. मिल्कीपुर की तरह ही बीकापुर भी अयोध्या से सटा है. 1990 के बाद से यहां सिर्फ 2 बार बीजेपी जीती. एसपी को 4 बार और बीएसपी को साल 2007 में जीत मिली. यानी फैजाबाद जैसी जगह पर बीजेपी का कभी भी एकतरफा राज नहीं रहा. इसकी एक बड़ी वजह ओबीसी वोट बैंक है, जिनकी संख्या अवध में ज्यादा है.

साल 2012 के विधानसभा चुनावों में अवध की 130 विधानसभा सीटों में से 93 पर एसपी को जीत मिली. दूसरे नंबर पर 15 सीटों के साथ बीएसपी थी. पार्टी का असर फतेहपुर और लखीमपुर खीरी जैसी जगहों पर रहा. तीसरे नंबर पर बीजेपी थी. 12 सीट मिली. कानपुर से सबसे ज्यादा 4 सीट मिली. कांग्रेस 7 सीटों के साथ चौथे नंबर पर थी. 2 निर्दलीय उम्मीदवारों ने प्रतापगढ़ की दो सीटों से जीत हासिल की. इसमें एक नाम कुंडा सीट से राजा भैया उर्फ रघुराज प्रताप सिंह का है. पीस पार्टी रायबरेली से एक सीट जीती.
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अवध: 2017 में एसपी 93 से घटकर 13 और बीएसपी 6 पर आ गई

साल 2017 में गैर यादव ओबीसी का बीजेपी से जुड़ने का असर दिखा. 5 साल पहले जो बीजेपी 12 सीटों पर सिमट गई थी, उसे 2017 में 103 सीट मिली. फैजाबाद, बहराइच, बाराबंकी, कानपुर, लखीमपुर, लखनऊ और सीतापुर जैसे शहरों से ज्यादा वोट मिले. दूसरे नंबर पर एसपी रही. 93 से 13 सीट पर आ गई. वजह साफ थी. अखिलेश की यादव सरकार वाली छवि की वजह से ओबीसी वोटर टूट गया. मायावती का भी वही हाल हुआ. 12 से 6 सीट पर आ गईं. उनका भी गैर जाटव वोट बिखर गया. अपना दल को 3 और कांग्रेस को 4 सीट मिली.

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अवध में फॉरवर्ड कास्ट में ब्राह्मण वोटर ज्यादा

अवध में फॉरवर्ड कास्ट की बात करें तो ब्राह्मण वोटर ज्यादा है. यही वजह है कि जब साल 2009 में कांग्रेस उभरकर आई तो अवध का बड़ा योगदान था. 19 लोकसभा में से 11 सीटों पर जीत हासिल की. सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक, तब कांग्रेस को 31% ब्राह्मण वोट हासिल हुए, जो 2007 के मुकाबले 12% ज्यादा थे. वहीं एसपी को 5 और बीएसपी को 1 सीट मिली. लेकिन साल 2014 और 2019 में ब्राह्मण वोटर बीजेपी के साथ चला गया.

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अवध से बीजेपी के बड़े नेता निकले, लेकिन सीमित सीटों पर रहा प्रभाव

अवध में बीजेपी नेता विनय कटियार का प्रभाव रहा है. वे 1991, 1996 और 1999 में तीन बार फैजाबाद से सांसद रहे. लखनऊ की लोकसभा सीट पर 1991 से बीजेपी का कब्जा है. इस सीट से 5 बार अटल बिहारी वाजपेयी, एक बार लालजी टंडन और दो बार से राजनाथ सिंह सांसद बने. लेकिन एक हकीकत ये भी है कि इस बार सीएम योगी आदित्यनाथ अयोध्या से चुनाव लड़ने वाले थे, लेकिन उन्हें गोरखपुर से उम्मीदवार बनाया गया. हार का डर या पॉलिटिकल स्ट्रेटजी. वजह जो भी रही हो. लेकिन अगर योगी अयोध्या से लड़ते तो शायद राम मंदिर मुद्दे से बीजेपी को थोड़ा और फायदा मिल सकता था.

बीजेपी से एसपी में आए स्वामी प्रसाद मौर्य प्रतापगढ़ से हैं. भले ही वे पडरौना चले गए, लेकिन उनका प्रभाव अवध में है. यहां यादव और कुर्मी वोटर ज्यादा है. लखनऊ, फैजाबाद, सुल्तानपुर, अंबेडकर नगर और बाराबंकी में मुस्लिम वोटर की अच्छी संख्या है. अगर ये कॉम्बिनेशन काम कर गया तो अखिलेश को फायदा मिल सकता है.

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यूपी में मंदिर का मुद्दा धीरे-धीरे पड़ा कमजोर, अवध में भी दिखा असर

1992 में विवादित ढांचा तोड़ा गया. इसके बाद अवध सहित प्रदेश की राजनीति बदल गई. 1993 में चुनाव हुए और 422 सीटों में से बीजेपी को सबसे ज्यादा 177(33%), एसपी को 109 (17%) और बीएसपी को 67(11%) सीट मिली. 1996 के चुनाव में बीजेपी को 174(32%), एसपी को 110 (21%) और बीएसपी को 67(19%) सीट मिली. लेकिन 2002 के बाद यूपी में बीजेपी का वोट शेयर लगातार घटा. 2002 में 20%, 2017 में 17%, 2012 में 15% रहा. यानी धीरे-धीरे मंदिर के मुद्दा फीका पड़ता गया और पिछड़ों की राजनीति हावी होती गई. यही असर अवध में भी दिखा. लेकिन जब धर्म की राजनीति के साथ बीजेपी ने पिछड़ों को जोड़ा तब वोटों की संख्या में भारी इजाफा हुआ. 2017 में बीजेपी को यूपी में 40% वोट मिले.

राम मंदिर से बीजेपी ने एक नैरेटिव सेट किया. कुछ सालों तक फायदा भी मिला. यही वजह है कि अबकी बार के चुनाव में एक गाना खूब बज रहा है. जो राम को लाये हैं हम उनको लाएंगे. संदेश साफ है. अयोध्या का मुद्दा हल हो गया. राम मंदिर बन रहा है. इसलिए बीजेपी को वोट करें. लेकिन यूपी में राम मंदिर पर पिछड़ों की राजनीति ज्यादा हावी होती दिख रही है. ऐसे में नतीजे साफ कर देंगे कि मंडल कमंडल की लड़ाई में अवध ने किसको चुना.

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