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नीतीश की अंतरात्मा की आवाज, लालू को ले डूबा परिवारवाद?

बिहार में नीतीश का इस्तीफा और लालू के साथ महागठबंधन का टूटना बीजेपी और पीएम मोदी के लिए बड़ी जीत है.

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जेंटलमेंस गेम खेल चुके तेजस्वी यादव अपने कप्तान लालू प्रसाद यादव के साथ शायद ये भूल गए कि क्रिकेट की तरह ही राजनीति में भी हर गेंद के साथ मैच पलट सकता है. 20 महीने पहले, जब तेजस्वी डिप्टी सीएम बने थे तो उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो नीतीश कुमार को अपने अभिभावक, बॉस और कई बार तो दोस्त मानते हैं. ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाएं, कम बोलकर ज्यादा काम कैसे करें ये वो सीख रहे हैं.

लेकिन राजनीति में लंबी पारी खेलने के लिए बलिदान की अहमियत क्या होती है, ये न तो लालू समझ पाए और न ही तेजस्वी.

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वो भूल गए थे कि 1999 में रेल मंत्री रहते नीतीश कुमार ने एक हादसे की पूरी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. वो ये भी भूल गए कि ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी के एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुने जाने के बाद गठबंधन तोड़ दिया था. लोकसभा चुनाव में जेडीयू की करारी हार के बाद इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.

नीतीश के इसी ‘बलिदान’ ने हर बार उन्हें सत्ता पर फिर से काबिज किया. लेकिन लालू को अपने बेटों के करियर के सामने कुछ और नहीं दिखा. वो अपनी जिद पर अड़े रहे जिसका नतीजा उनके और पूरे परिवार के लिए बहुत महंगा साबित होने वाला है.
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पुत्र मोह के शिकार हुए लालू?

लालू पर परिवारवाद के आरोप नए नहीं हैं. बिहार में सरकार बनाने के दौरान लालू ने अपनी पार्टी की दूसरे सबसे बड़े नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी को डिप्टी सीएम न बनाकर तेजस्वी को आगे किया. दरअसल, लालू के पास इससे अच्छा मौका हो ही नहीं सकता था कि वो अपनी राजनीतिक जमीन को अपने उत्तराधिकारी को सौंपें और सीधे सत्ता तक पहुंचा दें.

लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों ने लालू परिवार का पीछा कभी नहीं छोड़ा. इस बार भी ये ही हुआ. सीबीआई ने इस पर छापेमारी की. तेजस्वी पर करोड़ों की जमीन अपने नाम करने से लेकर बेटी मीसा भारती और दामाद पर ईडी के छापों तक. एक के बाद एक कार्रवाई से लालू का कुनबा हिलने लगा.

लालू भले ही इसे राजनीति से प्रेरित कार्रवाई बताएं लेकिन नीतीश जानते थे कि आरोपों में दम है और अगर वो लालू-तेजस्वी का समर्थन कर दें तो उनकी छवि को इससे नुकसान पहुंचेगा. इसीलिए उन्होंने चुप्पी बनाए रखना ही बेहतर समझा.

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कांग्रेस की भूमिका

तेजस्वी ने अपने बचाव में नीतीश से मुलाकात भी की लेकिन मनाने में असफल रहे. महागठबंधन में तीसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस ने भी इसमें दखल दिया लेकिन खुलकर कुछ नहीं बोला. दरअसल, लालू यादव के घर हुई छापेमारी को कांग्रेस ने पहले राजनीति से प्रेरित करार दिया था. वही, कांग्रेस तेजस्वी के मुद्दे पर लालू को अपने रुख को नरम करने के लिए कह रही थी. लेकिन किसी ने खुलकर नहीं बोला.

कांग्रेस चाहती तो ये नौबत नहीं आती. अगर, नीतीश के साथ खड़े होकर उसने लालू पर दबाव बनाया होता और तेजस्वी इस्तीफा दे देते तो शायद ये गठबंधन पूरे पांच साल चलता.

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ये बीजेपी की जीत है!

नीतीश के इस्तीफे के तुरंत बाद पीएम ने दो ट्वीट कर उन्हें बधाई दी.

महागठबंधन का टूटना बीजेपी और पीएम मोदी के लिए बड़ी जीत है. लेकिन ये देखना भी दिलचस्प रहेगा कि नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी के साथ पहले भी 17 पुराना गठबंधन तोड़ चुके नीतीश कुमार इस बार कितना साथ निभाते हैं.

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