मोदी, ED, CBI और बीजेपी. जब यूं लग रहा था कि बीजेपी से कोई बैर नहीं ले सकता, कम से कम हिंदी बेल्ट में तो नहीं, तो बिहार का बवाल हो गया. बीजेपी अभी महाराष्ट्र में कुर्सी झटकने का जश्न मना ही रही थी कि बिहार हाथ से निकल गया. बीजेपी को बिहार में नीतीश ने जो चोट पहुंचाई है उसका दर्द बीजेपी को कई और राज्यों और यहां तक कि 2024 के चुनाव में महसूस हो सकता है.
आम परसेप्शन यही है कि देश में बीजेपी यत्र-तत्र-सर्वत्र है. लेकिन गौर करेंगे तो पता चलेगा कि मध्य प्रदेश से नीचे कर्नाटक को छोड़ दें तो बीजेपी उतनी ताकतवर नहीं है. और मध्य प्रदेश के ऊपर भी राज्यवार नजर डालिएगा तो पाइएगा कि यूपी को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में बीजेपी उतनी मजबूत नहीं जितना बताती है.
महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना को तोड़कर सत्ता पाई है. अगर उद्धव लड़ने का मन बनाते हैं और मतदाता के सामने शिंदे को गद्दार साबित करने में कामयाब होते हैं तो कोई ताज्जुब नहीं कि उन्हें सहानुभूति वोट मिलें.
मध्य प्रदेश में अगले साल चुनाव होना है. लेकिन अभी हाल ही में हुए लोकल चुनावों में कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी है. पिछले चुनाव में बीजेपी के पास महापौर की सभी 16 सीटें थीं, लेकिन अब घटकर 9 रह गई हैं. यानी सात सीटों का नुकसान. कांग्रेस ने तो दावा किया पंचायत चुनाव में उसे ज्यादा सीटें मिली हैं.
राजस्थान में अगले साल चुनाव होना है और वहां बीजेपी का संगठन चरमराया हुआ है. विजयाराजे सिंधिया और सतीश पूनिया खेमों में तनाव है. ऊपर से गहलोत जैसे धुरंधर से मुकाबला है. लिहाजा बीजेपी को कितनी कामयाबी मिलेगी कह नहीं सकते.
पंजाब हाथ से निकल चुका है. आम आदमी पार्टी ने सूपड़ा साफ कर दिया है. वहां वापसी में बीजेपी को लंबा वक्त लग सकता है.
गुजरात में भी अगले साल चुनाव होने वाले हैं. हालांकि पार्टी ने हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर को पटा लिया है लेकिन पिछले चुनाव में बीजेपी हारते-हारते बची है. ऐसे में इस बार भी रास्ता बहुत आसान रहने वाला है, ऐसा नहीं कह सकते.
झारखंड में जेएमएम गठबंधन ने पिछली बार बीजेपी को बुरी तरह हराया था. 2024 का चुनाव हालांकि अभी दूर है, लेकिन बीजेपी जमीन पर काम करने के बजाय विपक्ष को ED-CBI के जरिए घेरने में जुटी है. ये बताता है कि जनाधार को लेकर वो आश्वास्त नहीं है.
हरियाणा के आखिरी विधानसभा चुनाव में पार्टी सत्ता से बेदखल होते-होते बची है. जिनके खिलाफ चुनाव प्रचार किया, उस JJP से हाथ मिलाकर कुर्सी बची.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने अपना हर नुस्खा अपनाया. लोग तोड़े, हिंदू-मुस्लिम किया, केंद्रीय एजेंसियों को लगाया, लेकिन ममता ने पटक दिया.
छत्तीसगढ़ में भी अगले साल चुनाव होने हैं. वहां भूपेश बघेल मजबूत स्थिति में दिख रहे हैं. बीजेपी का संगठन वहां बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं. चुनाव से पहले साल में पार्टी ने क्षेत्रिय संगठन महामंत्री के रूप में अजय जामवाल को नियुक्त किया है. अध्यक्ष भी बदला है. अरुण साव को लेकर आए हैं. ये नेता ऐसे नहीं हैं कि अपने दम पर भूपेश को टक्कर दे सके.
दिल्ली में केजरीवाल डटे हुए हैं और अब दिल्ली से निकल-निकल कर बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं.
यूपी में बीजेपी मजबूत स्थिति में है लेकिन पहले से कमजोर हुई है. बीएसपी का रंग देख वहां गैर बीजेपी वोटर एसपी के आसपास जमा हो रहा है. बिहार का सियासी घटनाक्रम देख अखिलेश ने कहा भी है कि बिहार से बीजेपी भगाओ का नारा दिया गया है.
कुल मिलाकर निष्कर्ष ये है कि उत्तर के ज्यादातर राज्यों में बीजेपी के खिलाफ माहौल बना है या बन रहा है. ये सही है कि राज्यों के चुनाव में वोट का पैटर्न अलग है और लोकसभा चुनावों में अलग. लेकिन नड्डा का ये दावा फिलहाल तो हवा हवाई लगता है कि बचेगी सिर्फ बीजेपी और क्षेत्रिय पार्टियां खत्म हो जाएंगी.
अब विपक्ष के पास मौका
ये सच है कि जो वोटर विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ वोट करता है वो लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ चला जाता है लेकिन राज्यों की हालत देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि बीजेपी अजेय नहीं हुई है. उसका विपक्ष मुक्त भारत का सपना अभी साकार होता नहीं दिख रहा. अब अगर विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर वोटर को विकल्प बनने का भरोसा दिला पाए, कोई ऐसा चेहरा ला पाए जिसके आसपास लोग गोलबंद हो पाएं तो 2024 में बीजेपी को ज्यादा मेहनत करनी पड़ सकती है.
विपक्ष का चेहरा नीतीश?
और इसी बात को लेकर बिहार में हुआ बदलाव अहम है. बीजेपी के साथ जाने से पहले नीतीश कुमार की राष्ट्रीय महत्वकांक्षाएं थीं. लेकिन एनडीए में जाने के बाद मोदी के आगे कोई और नहीं वाला बंपर आ गया. अब नीतीश फिर से विपक्ष के साथ हैं, जिसमें कांग्रेस भी है. वो कांग्रेस जिसके बिना बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर टक्कर देना क्षेत्रिय दलों के बस की बात नहीं है. ममता बनर्जी ने हाल फिलहाल कोशिश की थी कि वो मोदी से मुकाबले के लिए विपक्ष का चेहरा बन जाएं लेकिन एक तो उनका व्यक्तित्व और दूसरा गैर हिंदी राज्य की नेता होने के कारण उनको लेकर सहमति बनना मुश्किल है. दलों में बन भी जाए लेकिन वोटर के बीच स्वीकृति दूर की कौड़ी है. ऐसे में नीतीश कुमार एक विकल्प हो सकते हैं. इस लिहाज से बिहार का सियासी उठापटक बहुत अहम है. वैसे भी इमरजेंसी के समय और उससे पहले भी बिहार बदलाव का केंद्र रहा है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)