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Bihar: नीतीश सबके हैं? NDA में फिर चले तो गए लेकिन फायदे से ज्यादा नुकसान है?

Nitish Kumar की बीजेपी से 18 महीने की दुश्मनी अब फिर से दोस्ती में बदल रही है.

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लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए का कुनबा बिहार में बढ़ने जा रहा है, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दल यूनाइटेड (JDU) ने आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव और INDIA गुट को बाय-बाय कर दिया है. बीजेपी से 18 महीने की दुश्मनी अब फिर से दोस्ती में बदल रही है. दोनों के साथ आने से बिहार में एक बार फिर सत्ता परिवर्तन हो रहा है.

लेकिन बीजेपी-जेडीयू की दोस्ती के बीच कई सवाल हैं, जैसे- नीतीश पलट तो गए लेकिन क्या उन्हें फायदा होगा? नीतीश की साख पर क्या असर पड़ेगा? बीजेपी के साथ विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ने के बाद भी जेडीयू कमजोर हुई थी, तो अब फिर से मिलने से क्या जेडीयू के 'आंगन में कमल खिल' जाएगा?

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नीतीश की छवि को लगेगा 'डेंट'?

जेडीयू के बीजेपी के साथ आने पर ये तो साफ है कि नीतीश कुमार की छवि पर असर पड़ेगा. क्योंकि बीजेपी से 2022 में गठबंधन तोड़ने के बाद से नीतीश कई दफा सार्वजनिक रूप से कहा चुके हैं "मर जाना कबूल है, उनके साथ जाना नहीं". लेकिन नीतीश फिर दोबारा बीजेपी के साथ जा रहे हैं. और ये पहली बार नहीं है, इससे पहले साल 2014 में नीतीश कुमार ने कहा था कि मिट्टी में मिल जाएंगे पर भाजपा से नहीं मिलेंगे. लेकिन फिर 2017 में महागठबंधन छोड़ एनडीए में शामिल हो गए थे.

हालांकि कुछ राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बीजेपी के साथ जाने से नीतीश को सरकार चलाने के हिसाब से ज्यादा नुकसान नहीं होगा. क्योंकि बिहार में बीजेपी के साथ नीतीश कुमार मिलकर लंबे समय तक सरकार चला चुके हैं, और गठबंधन काफी सहज रहा था.

एक राजनीतिक विश्लेषक के मुताबिक, "बीजेपी ने ही नीतीश कुमार को 'सुशासन' बाबू का टैग दिया है, दोनों दल आपस में काफी सहज है. दोनों दलों के नेताओं में कई तरह की सहमति है इसलिए दोनों का गठबंधन जमीन पर भी स्वीकार है."

"नीतीश कुमार और जेडीयू की इमेज महागठबंधन में जाने से खराब हो रही थी, खासकर आरजेडी के साथ, जिसका विरोध कर ही नीतीश और उनकी पार्टी सत्ता में आए हैं. अगर आप 2014 का लोकसभा और 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव छोड़ दें, तो जेडीयू हमेशा राजद और कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ चुनाव लड़ी है. ऐसे में कार्यकर्ताओं और वोटर्स दोनों में जेडीयू के बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ने से निराशा थी, और इसका पार्टी को नुकसान भी हुआ है."

उन्होंने आगे कहा, "आप नीतीश के बयान याद कर रहे हैं तो अमित शाह, सम्राट चौधरी और बीजेपी नेताओं के भाषणों को याद कर लीजिए, जो नीतीश के लिए बीजेपी के दरवाजे बंद बता रहे थे, लेकिन देखिए अब सब कैसे नीतीश कुमार का स्वागत करने के लिए आतुर हैं. सबसे पहले अमित शाह ने ही नीतीश के एनडीए में आने के संकेत दिये, जिसके बाद से बिहार की पूरी पॉलिटिक्ल तस्वीर बदल गई."

JDU को होगा नुकसान, कितना जलेगा 'चिराग'?

एक और आंकड़े देखिए. 2013 में बीजेपी से गठबंधन तोड़ने के बाद 2015 विधानसभा चुनाव में नीतीश ने जब आरजेडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था तब उन्हें भले ही 2010 के मुकाबले सीटों का नुकसान हुआ था लेकिन मोदी लहर के बीच भी सत्ता में वापसी हुई थी.

बता दें कि नीतीश कुमार 2013 में एनडीए से पीएम नरेंद्र मोदी की वजह से अलग हुए थे. क्योंकि नीतीश कुमार नहीं चाहते थे कि बीजेपी नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए. हालांकि 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बहुत बड़ी जीत हुई थी.

जब 2015 में आरजेडी और जेडीयू ने मिलकर चुनाव लड़ा था तब आरजेडी 80, जेडीयू 71 और बीजेपी को सिर्फ 53 सीट हासिल हुई थी. 2017 में वापस आई नीतीश की पार्टी 2020 के चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर लड़ने के बावजूद 71 से घटकर 43 सीटों पर आ गई यानी पार्टी को 28 सीटों का नुकसान हुआ था. जबकि बीजेपी 21 सीटों की बढ़त के साथ 53 से 74 पर पहुंच गई.

यहां एक बात और अहम है कि 2020 में नीतीश के खिलाफ "चिराग" फैक्टर काम कर गया था. दरअसल, 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी (तात्कालीक) ने एनडीए से अलग चुनाव लड़ा था, जिसका सीधा असर जेडीयू पर पड़ा और बीजेपी को नीतीश के सामने मजबूत होने का मौका मिला.

LJP करीब 135 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें से अधिकतर जेडीयू के प्रभाव वाली थी, इसका असर नतीजों में भी दिखा. आंकड़ों के अनुसार, जेडीयू को चिराग की एलजेपी के अलग चुनाव लड़ने से करीब 41 सीटों पर नुकसान हुआ.

इन सीटों पर जेडीयू की जितने वोटों से हार हुई, उतना ही एलजेपी को वोट मिला था. इसमें सूर्यगढ़ा, धोरैया, जमालपुर, शेखपुरा, चेनारी, करगहर, शेरघाटी, अतरी, मधुबनी, मीनापुर, रघुनाथपुर, बड़हरिया, एकमा, बनियापुर, राजापाकर, महनार, साहेबपुरकमाल, अलौली, खगडिया, नाथनगर, इस्लामपुर, सुगौली, सुरसंड, बाजपट्टी, लौकहा, कदवा, सिंहेश्वर, सिमरी बख्तियारपुर, गायघाट, समस्तीपुर, महुआ और मोरवा विधानसभा क्षेत्रों में लोजपा के मिले वोट ने जेडीयू को हरा दिया था.

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2022 में नीतीश कुमार जब बीजेपी से गठबंधन तोड़कर आरजेडी के साथ गए थे तब उन्होंने जेडीयू की बैठक में कहा था कि बीजेपी ने हमें कमजोर करने की कोशिश की. हमेशा हमें अपमानित किया. वहीं 2023 के अगस्त महीने में नीतीश कुमार ने चिराग पासवान का नाम लिए बिना बगैर कहा था कि विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए बीजेपी का "एजेंट" जिम्मेदार रहा.

ऐसे में इस बार फिर अगर चिराग जेडीयू के खिलाफ विरोधी तेवर दिखाते हैं तो नीतीश कुमार को फिर नुकसान हो सकता है. वहीं एलजेपी के सूत्रों से ये भी खबर आ रही है कि नीतीश की एनडीए में एंट्री से चिराग लोकसभा चुनाव में 23 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार सकते हैं. मतलब 17 कैंडिडेट नीतीश की जेडीयू के खिलाफ और 6 अपनी सीटें. हालांकि इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.

नीतीश की बार्गेनिंग पावर का क्या होगा?

बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी और दल में टूट की कयासों के बीच ये माना जा सकता है कि नीतीश बीजेपी से इस बार अपनी शर्तों पर बार्गेन नहीं कर पाएंगे, जैसा अब तक करते आए थे. इस पर एकराजनीतिक जानकार ने कहा, "ये सच है कि पिछले चार सालों में जेडीयू सीटों के आंकड़ों और कई नेताओं के जाने से कमजोर हुई है लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि पार्टी का आधार राज्य से खत्म हो गया है."

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जेडीयू को 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में 15.42 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 2015 में पार्टी का वोट शेयर 16.83 था यानी तमाम विरोध और गुटबाजी के बावजूद पार्टी को 1.4 प्रतिशत वोट शेयर का नुकसान हुआ. ऐसे में इन आंकड़ों के लिहाज से जेडीयू को कमतर आकना गलत ही लगता है.

राजनीतिक जानकार ने आगे कहा, "आकंड़ों और जातीय समीकरण के हिसाब से देखेंगे तो नीतीश आज भी मजबूत हैं. बिहार में इतने सालों से सत्ता में साझेदार रही बीजेपी आज तक प्रदेश में अपना नेता नही बना पाई. सुशील मोदी, मंगल पांडेय, नित्यानंद राय, नंद किशोर यादव, संजय जायसवाल, सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा जैसे तमाम सरीखे नेता, जिन्हें सरकार और संगठन दोनों में अहम जिम्मेदारी दी गई लेकिन ये बीजेपी को अकेले दम पर लड़ने की स्थिति में नहीं ला पाये. अश्विनी चौबे और गिरिराज सिंह जैसे नेता अपने क्षेत्र तक ही सीमित रह गये, उनके बयानों से पार्टी को लाभ कम आलोचना का ज्यादा ही सामना करना पड़ा."

जेडीयू से अलग होने के बाद बीजेपी नीतीश के लवकुश समीकरण को साधने की भरपूर कोशिश की. पार्टी उपेंद्र कुशवाहा, आरसीपी सिंह को साथ लाई, सम्राट चौधरी को बिहार बीजेपी की कमान दी लेकिन ये सब कुशवाहा वोट को बहुत हद तक अपने पाले में ला पाए लेकिन कुर्मी को साधने में सफल नहीं हुए. बीजेपी नीतीश के फेस वैल्यू को समझती हैं, उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए महिलाओं और लड़कियों के लिए कई अहम योजनाएं चलाई हैं, जिसको लेकर महिला वोटर्स का उनके प्रति आकर्षण अभी भी कायम है. इसलिए ये कहना कि नीतीश की बार्गेनिंग पावर कम होगी, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. नीतीश आज भी बिहार में सबसे बड़े नेता हैं.
राजनीतिक जानकार
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जेडीयू के एक पूर्व पदाधिकारी ने कहा, "नीतीश पॉलिटिक्स में भी इंजीनियरिंग करते हैं. ऐसे में उनको कम आकना सही नहीं होगा. वो कभी घाटे का सौदा नहीं करते. जब तक उनकी शर्ते और मांग नहीं मानी जाती, वो कोई कदम नहीं उठाते. इस बार भी ऐसा होगा. लेकिन हां, हमारा और बीजेपी के साथ साथ पुराना है तो अगर कहीं 19-20 होता है तो एडजस्ट कर लिया जाएगा."

नीतीश के हाथों होगी कमान ?

नीतीश-बीजेपी की दोस्ती में सबसे अहम सवाल मुख्यमंत्री की कुर्सी का है. कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जाता रहा है कि इस बार बीजेपी बिहार में अपना सीएम बनाएगी. कई बीजेपी के नेता खुलकर इस पर बयान भी दे चुके हैं. लेकिन बीजेपी हाईकमान ने कभी इस पर मुहर नहीं लगाई. 2020 विधानसभा चुनाव के पहले भी ऐसी मांग उठी थी लेकिन तब जेपी नड्डा, अमित शाह की तरफ से साफ कहा गया की एनडीए के सीएम फेस नीतीश कुमार होंगे.

बिहार बीजेपी के एक पदाधिकारी ने कहा, "नीतीश के सीएम बनने से पार्टी को कोई दिक्कत नहीं है. उनकी फैस वैल्यू, उनकी सर्व स्वीकारिता है. हां, ये सच है कि प्रदेश के नेताओं की इच्छा है कि बिहार में भी बीजेपी का सीएम बने, लेकिन जब टॉप लीडरशिप नीतीश के साथ है, तो सबको वहीं मानना होगा."

तो क्या इस बार नीतीश के साथ आने पर बीजेपी नेताओं की बयानबाजी पर लगाम लगेगी? इस पर बीजेपी नेता ने कहा, "इस बार पहले जैसा नहीं होगा, कई मुद्दों पर नीतीश कुमार और बीजेपी हाईकमान की बात हुई है. जेडीयू के नेता भी बीजेपी विरोधी बयान से बचेंगे. लेकिन अगर ऐसा हुआ तो पार्टी अपने स्तर पर संज्ञान ले कार्रवाई करेगी."

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BJP के लिए नीतीश 'जरूरी' या 'मजबूरी'?

दरअसल, बीजेपी की निगाह अभी लोकसभा चुनाव पर है. बीजेपी से जुड़े सूत्रों की मानें तो, "पार्टी इस बार लोकसभा चुनाव में 350+ सीट का लक्ष्य लेकर चल रही है. पार्टी को लगता है कि अगर बिहार में जेडीयू, पंजाब में अकाली और आंध्रा में चंद्रबाबू साथ आ जाएं तो वो अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकती है."

नीतीश के इंडिया ब्लॉक में साथ रहने से बिहार में महागठबंधन का जातीय समीकरण मजबूत हो जाता है. 2015 का चुनाव इसका परिणाम है. अब तक आए सर्वे में भी बिहार में एनडीए 25 से 30 के बीच लटका नजर आ रहा है. 2014 के चुनाव में बिना नीतीश के एनडीए 31 पर अटक गया था लेकिन 2019 में नीतीश कुमार के साथ आने से एनडीए को बिहार में 40 में 39 सीटें मिली थी. ऐसे में पार्टी के लिए नीतीश जरूरी और मजबूरी दोनों हो गये हैं.
सूत्र

दरअसल, बिहार का पॉलिटिकल इक्वेशन बिलकुल अलग है. एक राजनीतिक विश्लेषक ने कहा, "बिहार में हिंदू-मु्स्लिम की राजनीति नहीं चलती. यहां का जातीय समीकरण बिल्कुल अलग है. नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के साथ रहने से अतिपिछड़ा वोट एनडीए को 80 से 85 प्रतिशत मिल जाता है. लेकिन साल 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के आरजेडी के साथ जाने पर महागठबंधन को 60 फीसदी और एनडीए को 40 प्रतिशत वोट ही मिला था.

दूसरा, जातीय सर्वे और आरक्षण के बढ़े प्रतिशत के कारण पिछड़ा और अतिपिछड़ा वोट बैंक महागठबंधन के पाले में जा सकता है. ऐसे में ये बीजेपी के लिए चिंता की वजह बन गये थे और पार्टी किसी भी कीमत पर नीतीश को साथ लाने के लिए तैयार थी.

जानकारों का कहना है कि नीतीश कुमार के एनडीए में जाने से इंडिया ब्लॉक तो कमजोर होगा ही लेकिन ब्लॉक का नेतृत्व करने की इच्छा रखने वाली कांग्रेस को भी धक्का लगेगा और ये चुनाव से पहले बीजेपी के लिए "मोरल विक्ट्री" होगी. बीजेपी ये संदेश भी जनता में देगी की "इंडिया" ब्लॉक बन ही नहीं पाया.

ये तो हुई बीजेपी के फायदे की बात लेकिन नीतीश के लिए राह आसान नहीं है, भले ही नीतीश लगातार सीएम बने हुए हैं, लेकिन 2010 विधानसभा चुनाव में 115 सीट जीतने वाली नीतीश की जेडीयू 2020 आते-आते 45 सीटों पर सिमट गई है. मतलब साफ है साथी पार्टी मजबूत हुई और नीतीश की पार्टी कमजोर.

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