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BJP संसदीय बोर्ड से नितिन गडकरी-शिवराज बाहर क्यों हुए, स्वतंत्र छवि या कद का डर?

BJP Parliamentary Board का पुनर्गठन पार्टी में सत्ता के अधिक केंद्रीकरण की दिशा में एक स्पष्ट कदम है

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भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने बुधवार 17 अगस्त को पार्टी की सबसे बड़ी निकाय - संसदीय बोर्ड में एक बड़े बदलाव (BJP Parliamentary Board Rejig) की घोषणा की.

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बीजेपी के संसदीय बोर्ड में हुए ये हैं कुछ बड़े बदलाव:

  • बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को संसदीय बोर्ड से हटा दिया गया है.

  • बोर्ड में शामिल किए गए नए सदस्यों में कर्नाटक के पूर्व CM बीएस येदियुरप्पा, पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण जटिया, असम के पूर्व CM सर्बानंद सोनोवाल, तेलंगाना के नेता और बीजेपी के OBC मोर्चा के अध्यक्ष के. लक्ष्मण, बीजेपी OBC मोर्चा के पूर्व प्रभारी सुधा यादव और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष इकबाल सिंह लालपुरा शामिल हैं.

  • सुषमा स्वराज, अरुण जेटली के निधन, एम वेंकैया नायडू के उप-राष्ट्रपति बनने और थावरचंद गहलोत को राज्यपाल बनाए जाने के कारण संसदीय बोर्ड में आईं रिक्तियों के कारण यह फेर-बदल पिछले कुछ समय से लंबित थी. लेकिन पीएम मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दो नेताओं को हटाकर सिर्फ खाली पदों को नहीं भरा है बल्कि वास्तव में उससे आगे बढ़कर काम किया है.

फेरबदल के पीछे स्पष्ट रूप से मोदी-शाह की रणनीति है, कैसे?

संसदीय बोर्ड के फेरबदल पर स्पष्ट रूप से पीएम नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मुहर लगी है यानी यह उनकी ही रणनीति है. यह विशेष रूप से नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान को बाहर करने के फैसले से स्पष्ट है. दोनों ही नेताओं ने मोदी-शाह की जोड़ी के बीजेपी में प्रभावी होने से पहले संसदीय बोर्ड में प्रवेश किया था.

नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान को संसदीय बोर्ड से हटाना सरसल उन नेताओं को दरकिनार करने का एक तरीका प्रतीत होता है, जिनका कद पार्टी के शीर्ष दो नेताओं (मोदी-शाह) से स्वतंत्र है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बोर्ड में शामिल न किए जाने के फैलने को भी इसी अर्थ में देखने की जरूरत है.

ऐसा लगता है कि बीएस येदियुरप्पा को कर्नाटक में सीएम की कुर्सी के बदले मुआवजे के रूप में बोर्ड में जगह दिया गया है. यह अगले साल कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले लिंगायत नेता को खुश रखने का एक स्पष्ट प्रयास लगता है.

ऐसा लगता है कि सर्बानंद सोनोवाल को भी असम में हेमंत बिस्वा सरमा के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बदले पुरस्कृत किया गया है. उनका शामिल होना नॉर्थ-ईस्ट को प्रतिनिधित्व देने पर पार्टी के फोकस का भी संकेत देता है.

नितिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से बाहर क्यों किया गया?

बीजेपी संसदीय बोर्ड में फेरबदल की सबसे बड़ी खबर यह है कि नितिन गडकरी को हटा दिया गया है. यह विशेष रूप से आश्चर्यजनक है क्योंकि गडकरी बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष हैं और परंपरागत रूप से पूर्व अध्यक्ष स्वतः ही संसदीय बोर्ड का हिस्सा रहे हैं.

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यह परंपरा पहली बात तब टूटी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को संसदीय बोर्ड से हटाकर मार्गदर्शक मंडल में रखा गया था. मुरली मनोहर जोशी 80 साल की उम्र में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष होने के बावजूद संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिए गए थे लेकिन येदियुरप्पा को 79 साल की उम्र में लाया गया है.

नितिन गडकरी को केवल 65 वर्ष की आयु में हटा दिया गया था जबकि पार्टी के एक और पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह 71 साल की उम्र में संसदीय बोर्ड में बने हुए हैं. खास बात है कि राजनाथ सिंह ने मोदी को पहली बार (2006-09) अध्यक्ष रहते हुए संसदीय बोर्ड से हटा दिया था.

ऐसा लगता है कि गडकरी को स्वतंत्र स्टैंड लेने और स्वतंत्र छवि बनाने के लिए दंडित किया गया है. इन तीन कारणों से गडकडी की स्वतंत्र छवि है:


  1. उन्हें नागपुर में बैठे RSS नेतृत्व फेवरेट माना जाता है. नागपुर के एक ब्राह्मण, गडकरी पूरी तरह से RSS के समर्थन के कारण 2009 में पार्टी अध्यक्ष बने थे.

  2. प्रमुख बुनियादी ढांचा वाले मंत्रालयों को संभालने वाले नितिन गडकडी को बेहतर प्रदर्शन करने वाले मंत्रियों में से एक माना जाता है. दूसरे कई मंत्रियों के विपरीत गडकरी पीएम ऑफिस से कुछ हद तक स्वायत्तता के साथ काम करते हैं.

  3. नितिन गडकरी ने उदारवादी होने की छवि बनाई है और सांप्रदायिक बयानों से उन्होंने परहेज किया है. दूसरी तरफ वह ऐसे बयान देने के लिए भी जाने जाते हैं जो उनकी ही पार्टी की आलोचना करते हैं. हाल ही में, उन्होंने एक टिप्पणी की थी कि "राजनीति सत्ता में रहने के बारे में हो गई है". इससे पहले भी उन्होंने एक मराठी इंटरव्यू में मजाक में कहा था कि ''बीजेपी ने हर तरह के वादे किए क्योंकि उन्हें इतना बड़ा बहुमत मिलने की उम्मीद नहीं थी.''

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क्या शिवराज सिंह चौहान को चिंतित होना चाहिए?

शिवराज सिंह चौहान को 2013 में नरेंद्र मोदी के साथ संसदीय बोर्ड में शामिल किया गया था. 2011-12 की अवधि में, चौहान को अक्सर मोदी के प्रतिद्वंदी के रूप में पदोन्नत किया गया था. 2012 में बीजेपी की एक बैठक के दौरान, लालकृष्ण आडवाणी ने शिवराज चौहान के काम की तारीफ की थी. इसे मोदी के महत्व को कम करने के प्रयास के रूप में देखा गया.

चौहान वर्तमान में एकमात्र बीजेपी सीएम हैं जो मोदी के पीएम बनने से पहले से सत्ता में हैं. बाकी सभी मोदी और शाह के आशीर्वाद से सीएम रहे हैं. मप्र में उनका आधार मोदी और शाह से स्वतंत्र है.

उनके साथ शिवराज समीकरण थोड़ा मुश्किल रहा है. पहले एक उदारवादी के रूप में देखे जाने के बाद, वह 'नई बीजेपी' में वैधता हासिल करने के लिए मौजूदा कार्यकाल में ज्यादा हिंदुत्व समर्थक दिखने के लिए अपने रास्ते से हट गए हैं.

मोदी और शाह अभी तक एक ऐसा नेता तैयार करने में नाकाम रहे हैं जो मध्य प्रदेश में चौहान की जगह ले सके.

सांसद सत्यनारायण जाटिया संसदीय बोर्ड में चौहान से ज्यादा थावरचंद गहलोत की रिप्लेसमेंट दिखते हैं.

मोदी और शाह के बाकी मुख्यमंत्रियों के साथ प्रयोग भी पूरी तरह सफल नहीं हो रहे हैं. येदियुरप्पा की जगह लेने वाले बसवराज बोम्मई का बीजेपी के भीतर के वर्गों द्वारा ही विरोध किया जा रहा है.

फिर राजस्थान में, गजेंद्र सिंह शेखावत को संभावित सीएम चेहरे के रूप में पेश करने का प्रयास किया गया है, लेकिन पूर्व सीएम वसुंधरा राजे अभी भी राज्य बीजेपी में मजबूत कड़ी हैं.

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योगी जगह क्यों नहीं बना सके?

योगी आदित्यनाथ मोदी और शाह के बाद बीजेपी में अब तक के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. कुछ लोग कहेंगे कि वह वास्तव में मोदी के बाद दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं.

लेकिन उन्हें संसदीय बोर्ड में शामिल नहीं किया गया, हालाँकि यह निर्णय अपेक्षित तर्ज पर है. क्योंकि बाकी मुख्यमंत्रियों से पहले योगी को शामिल करना एक स्पष्ट संकेत होता. अब चाहे जानबूझकर किया गया हो या नहीं, लेकिन वो बीजेपी का अगला राष्ट्रीय चेहरा बनने की कतार में हैं.

दिलचस्प बात ये है कि यूपी की ठाकुर राजनीति में योगी के प्रतिद्वंद्वी राजनाथ सिंह संसदीय बोर्ड में बने हुए हैं. अब संसदीय बोर्ड में कोई मुख्यमंत्री नहीं है.

2013 में बीजेपी ने मोदी और चौहान को बोर्ड में शामिल किया था ताकि यह संकेत दिया जा सके कि बीजेपी एक संघीय लोकाचार के पक्ष में है और वो मानती है कि उसकी अधिकांश ताकत राज्यों में निहित है. लेकिन अब चौहान को हटाने और योगी के शामिल न होने से बीजेपी नेतृत्व और भी अधिक केंद्रीकरण की ओर बढ़ गया है.

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