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वेस्ट UP के जाटलैंड में BJP का आत्मविश्वास डगमगाया सा क्यों है?

अगर जाटों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया तो बीजेपी 2014 के प्रदर्शन से काफी पीछे रह सकती है.

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मेरठ के गांव अछौंड़ा में दोपहर का वक्त है. चौधरी रामपाल और सतपाल खाट पर बैठे चुनावी चर्चा में तत्लीन हैं. थोड़ी देर में बच्चों का शोरगुल और चुनावी नारों की आवाज कानों में सुनाई पड़ती है, वो पड़ोसी से कहते हैं पप्पू गुर्जर आ रहा है. चौधरी अजित सिंह की पार्टी से प्रत्याशी चौधरी गुर्जर आते ही सबको नमस्कार करते हैं और पिछली बार की गलती ना दोहराने की अपील करते हैं. उनका इशारा है 2014 में बीजेपी को वोट देने से.

चौधरी रामपाल और सतपाल दोनों आरएलडी प्रत्याशी को भरोसा दिलाते हैं कि वोट तो इस बार उसे ही मिलेगा. आश्वस्त पप्पू गुर्जर बाकी गांव में जनसंपर्क के लिए आगे बढ़ जाते हैं.

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दस मिनट भी नहीं बीतते कि बीजेपी से युवा प्रत्याशी सोमेन्द्र तोमर भी वोट की फरियाद लेकर चौधरी रामपाल और सतपाल के पास आ टपकते हैं. बीजेपी प्रत्याशी जाटों को समझाते हैं कि देखो इस समय मुस्लिमों से सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है और हिंदुओं को एकजुट होकर मतदान कर मुस्लिम उम्मीदवार को हराना चाहिये. दोनों जाट किसान उन्हें भरोसा दिलाते हैं कि वोट उन्हें ही मिलेगा.

उनके जाते ही मैं पूछता हूं कि आपने वायदे तो दोनो से कर दिए हैं लेकिन वोट किसे देंगे? बिना किसी झिझक के वो कहते है वोट तो इस बार चौधरी को जाने हैं. यह पूछने पर कि क्यों बीजेपी को वोट नहीं पड़ेगा? जाट कहते हैं बीजेपी ने हमें कुछ नहीं दिया, उल्टे चौधरी का सामान बाहर फेंकवा दिया. चौधरी से मतलब अजित सिंह से है और सामान फेंकवाने से मतलब उनका घर खाली कराने से है.

जाट नहीं है साथ

शामली, बागपत, मेरठ, मुजफ्फनगर जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाके में घूमने पर जाटों की बीजेपी से नाराजगी साफ दिखती है. मुजफ्फनगर दंगों के बाद 2014 में बीजेपी का साथ देने वाले जाटों का बीजेपी से खासा मोहभंग हो चुका है.

वजह कई हैं, जाटों के आरक्षण पर सरकार का ढुलमुल रवैया, हरियाणा में जाट आंदोलन को कुचलने की कोशिश करना, अजित सिंह का घर खाली कराना और ऊपर से नोटबंदी ने उनकी तकलीफों को गुस्से में बदल दिया है.

अब अगर जाटों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया, तो बीजेपी 2014 के प्रदर्शन से काफी पीछे रह सकती है, जब उसे पश्चिमी यूपी के इन 73 सीटों में से 60 सीटों पर बढ़त हासिल थी.

जाटों की नाराजगी को समझते हुए ही प्रधानमंत्री ने मेरठ की रैली में सपा, कांग्रेस, मायावती, अखिलेश को स्कैम के विभूषण से नवाजते वक्त अजित सिंह को भूल गए. चुनाव बाद की संभावनाओं को देखते हुए बीजेपी अजित सिंह के दरवाजे को बंद करना नहीं चाह रही है.

अजित सिंह बीजेपी को नुकसान पहुचाएंगें

अजित सिंह का लोकदल भले उतनी सीटें न जीत पाए लेकिन बीजेपी के लिए लोकदल बड़ी वोटकटवा पार्टी हो सकती है. केवल जाट वोट से लोकदल बहुत सीटें नहीं जीत सकती. उसे अगर गुर्जर के साथ थोड़ा मुस्लिम भी न मिले पर बीजेपी को अगर जाट वोट न मिले तो लखनऊ पहुंचने का बीजेपी का सपना धाराशायी हो सकता है.

2012 के विधानसभा चुनाव में लोकदल कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ी थी और 9 सीटें जीती थी. पर इस बार अजित सिंह के साथ अच्छी बात ये हो रही है कि जहां लोकदल प्रत्याशी बीजेपी प्रत्याशी को हराने की क्षमता में है, वहां मुस्लिम वोट भी लोकदल को मिल सकता है, क्योंकि यहां बीजेपी का ध्रुवीकरण काम नहीं कर रहा. मसलन बड़ौत, बागपत, शामली, छपरौली जैसी सीटें पर लोकदल को मुस्लिम वोट मिल सकते हैं.

नोटबंदी के असर का पहला ट्रेलर दिखने वाला है

नोटबंदी पर अगर सबसे बड़ी चुनावी टिप्पणी कहीं से मिलनी है, तो वो है पश्चिमी यूपी से जहां के हर गांव में तकरीबन हर समुदाय के लोगों में चाहे वो गुर्जर हो या जाट नोटबंदी के खिलाफ आक्रोश है और बीजेपी का नोटबंदी कथानक पूरी तरह से इस इलाके में फ्लॉप हो गया लगता है. अच्छौड़ा के राकेश कहते हैं कि खरीफ के समय पैसा न मिलने से किसान बीज-खाद नहीं खरीद पाया. कुछ के खेत परती रह गए तो कुछ ने जैसे-तैसे काम चलाया. मुनाफा तो छोड़िये लागत भी किसान नहीं निकल पाएंगे. गन्ना के अलावा इस इलाके में साक-सब्जियों की अच्छी पैदावार होती है. पर पैसा न होने की वजह से रोपाई के लिए समय पर ट्रैक्टर नहीं मिले और तैयार सब्जियों को मंडी तक ले जाने के लिए वाहन नहीं मिले.

किसानों को सब्जियों औने-पौने दामों पर बेचना पड़ा. गन्ना किसान इसलिए नाराज हैं कि चीनी मिलों में नोटबंदी से काम ठप्प पड़ गया. उनके गन्ने खेतों में पड़े रह गए. जिनके गन्ने खरीद लिए गए उनके चेक अभी भी कैश होने के इंतजार में घूम रहे हैं. शादी ब्याहों की तो बात ही छोड़ दीजिये वो खौफनाक अनुभव जाटों को जिंदगी भर याद रहेगा.

ध्रुवीकरण की धार उतनी मजबूत नहीं है

बीजेपी की सबसे बड़ी चिंता इस समय यही है कि जाटलैंड में ध्रुवीकरण मॉडल पूरी ताकत के साथ सभी सीटों पर काम नहीं कर रहा. आदित्यनाथ ने पश्चिमी यूपी की तुलना कश्मीर से की तो मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी संगीत सोम सुरेश राणा हर भाषण में आजम खान को जेल भिजवाने और दंगे के आरोपी जाट युवकों को जेल से छुड़ाने की हुंकार भर रहे हैं.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह मेरठ, नोएडा, अलीगढ़ की रैली में गोहत्‍या बंद करने के कथानक को बार बार दोहरा रहे हैं. बीजेपी अपने संकल्पपत्र में घोषणा कर चुकी है कि सत्ता में आते ही पश्चिमी यूपी में सभी बूचड़खाने बंद किए जाएंगे और थानों में अलग से ऐसे मामलों से निपटने को विशेष अधिकारी की नियुक्ति होगी. पर दिक्कत ये है कि इन सबके वाबजूद ध्रुवीकरण का कैराना, मुजफ्फरनगर मॉडल सभी सीटों पर यूनिवर्सिल नहीं चल रहा. दंगे के बाद पैदा हुई जाट मुस्लिमों की दूरियां अभी पूरी पटी नहीं है. पर ये भी सच है कि वो इन दूरियों को और नहीं बढ़ाना चाहते. दिक्कत दोतरफा है, हिंदुओं का ध्रुवीकरण हर सीट पर नहीं हो रहा पर मुस्लिम बीजेपी को हराने के लिए जीतने वाले उम्मीदवार के पक्ष में ध्रुवीकृत हैं.

गठबंधन का गुडविल काम कर रहा है

बीजेपी के खिलाफ एक और फैक्टर काम कर रहा है, वो है कांग्रेस-सपा का गठबंधन. बल्कि उससे ज्यादा अखिलेश का गुडविल. कई सीटों पर सपा की कमजोर स्थिति है पर वहां भी गांव में बनाई गई सीमेंट की सड़क और चमचमाती 100 नंबर वाली इनोवा कार बीजेपी के अच्छे दिन के चुनावी नारे पर भारी पड़ रहे हैं.

अच्छोंड़ा के बगल के गांव परतापुर में दो युवक महेश और संजीव कहते है कि गावों की सड़के गढ्ढा बन गई थी. बीजेपी विधायक और सांसद से कई बार मिलने पर भी कुछ नहीं हुआ लेकिन अखिलेश सरकार ने उन्हें ठीक करवाया. दक्षिणी मेरठ के इस इलाके में बीएसपी के मजबूत हाजी याकूब के उम्मीदवार होने के बावजूद काफी लोगों का रुझान सपा कांग्रेस प्रत्याशी की तरफ है.

कुल मिलाकर पश्चिमी यूपी बीजेपी और मायावती का लिटमस टेस्ट है. मायावती अपने 93 मुस्लिम उम्मीदवारों के साथ मुल्ला मुलायम बन पाती हैं या नहीं और बीजेपी का ध्रुवीकरण मॉडल चल पाता है या नहीं यह यूपी की चुनावी कहानी लिखेगी, पर इस इलाके में बीजेपी नेताओं के चुनावी प्रचार को देखकर लगता है कि शुरुआती आत्मविश्वास की जगह घबराहट ने ली है, क्योंकि अगर पश्चिमी यूपी में बीजेपी अच्छा नहीं कर पाई तो आगे के चरणों में अपने नुकसान की भरपाई करना बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल होगा, क्योंकि अगला चरण तो सपा का है.

(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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