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कैप्टन अमरिंदर क्यों गए? - पंजाब में एक सर्वे से सिद्धू तक 8 वजह

2002 और फिर 2017 में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में अहम भूमिका निभाई. तो Captain Amarinder के लिए क्या गलत हुआ?

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जिसकी चर्चा इतने समय से चल रही थी, वो आखिर हो ही गया. कांग्रेस विधायक दल की बैठक की घोषणा के 24 घंटे से भी कम समय बाद, 18 सितंबर को कैप्टन अमरिंदर सिंह (Captain Amarinder Singh) ने पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है.

48 विधायकों के कथित तौर पर पार्टी आलाकमान को पत्र लिखकर उन्हें हटाने की मांग करने के बाद से ही इस्तीफे कि अफवाहें आने लगी थीं. इसके चलते पंजाब के पार्टी प्रभारी हरीश रावत ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई.

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क्विंट ने अगस्त में ये भी खबर दी थी कि कांग्रेस कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने के लिए मजबूर हो सकती है. कम से कम पंजाब की राजनीति में, इसने एक बड़े करियर का अंत किया, जिसने पंजाब के इतिहास में सबसे दर्दनाक दौर भी देखा.

पंजाब में कांग्रेस पर कैप्टन का बहुत कर्ज है. 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद कांग्रेस से उनके इस्तीफे से सिखों के बीच उन्हें काफी सम्मान मिला. हालांकि, कुछ साल बाद वो वापस कांग्रेस में लौट आए, लेकिन 1980 और 1990 के दशक के उस दाग से वो लगभग अछूते रहे, जिसने पंजाब में सिखों के बीच पार्टी की साख को काफी नुकसान पहुंचाया था.

इसने 2002 में और फिर 2017 में भारी बहुमत के साथ कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में अहम भूमिका निभाई. तो कैप्टन के लिए क्या गलत हुआ?

पार्टी सर्वे में घटती लोकप्रियता दिखी

कैप्टन की अप्रूवल रेटिंग उनके कार्यकाल के मुश्किल से दो साल में ही गिरने लगी. 2019 की शुरुआत में, CVoter ट्रैकर के मुताबिक, कैप्टन की अप्रूवल रेटिंग 19 फीसदी थी और 2021 की शुरुआत में ये गिरकर 9.8 फीसदी हो गई. लेटेस्ट ट्रैकर के मुताबिक, उनकी अप्रूवल रेटिंग अब नेगेटिव में है.

कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक, पार्टी आलाकमान ने इस साल अगस्त में पंजाब के कई जिलों में एक सर्वे किया था और इसने कैप्टन के खिलाफ बड़े पैमाने पर सत्ता विरोधी लहर का खुलासा किया था. इससे आलाकमान को एहसास हुआ कि अगर वो कैप्टन को नहीं हटाते हैं, तो पंजाब उनके हाथों से फिसल सकता है.

ड्रग माफिया के खिलाफ कार्रवाई नहीं

भ्रष्टाचार विरोधी सरकार का वादा कभी पूरा नहीं हुआ. ड्रग्स, रेत-खनन और केबल माफिया जो SAD-BJP शासन की एक विशेषता थी, कैप्टन के कार्यकाल में भी जारी रही. ये तब भी हुआ, जब कैप्टन ने गुटखा साहिब की शपथ ली कि वो ड्रग माफिया पर नकेल कसेंगे.

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धार्मिक ग्रंथ बेअदबी मामलों में बादल के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं

बरगारी में 2015 की बेअदबी की घटनाओं और बाद में महल कलां में प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की SIT रिपोर्ट को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा खारिज करने के बाद इस साल कैप्टन की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट हुई.

जनता में उम्मीद थी कि इस मामले में बादल की भूमिका का पर्दाफाश होगा और उनके खिलाफ कार्रवाई होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बेअदबी के मामलों में बादल के खिलाफ कार्रवाई की कमी से ये धारणा पैदा हुई कि कैप्टन उनके साथ नरमी बरत रहे हैं या कैप्टन की उनके साथ मिलीभगत है.

अधूरे वादें

कैप्टन अमरिंदर पर नौकरी देने और बेरोजगारी भत्ता देने जैसे अपने अन्य चुनावी वादों को पूरा न करने का भी आरोप लगाया गया था. जमीनी हालात ये भी बताते हैं कि बुजुर्गों के लिए 1500 रुपये मासिक पेंशन के पात्र कई लोगों को या तो 750 रुपये मिल रहे थे या कुछ मामलों में तो कुछ भी नहीं मिल रहा था.

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अधूरे वादों की अधिक संख्या के कारण ही पार्टी हाईकमान को चुनाव से पहले पूरा करने के लिए कैप्टन को 18 कार्यों की सूची देनी पड़ी.

विरोध प्रदर्शन

कैप्टन अमरिंदर के मुख्यमंत्री कार्यकाल को कई समूहों के विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा है, जैसे सरकारी कर्मचारियों से लेकर पारा-टीचर्स, किसानों, आशा वर्कर्स, बेरोजगार युवाओं, दलित समूहों आदि.

हालांकि, तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के विरोध का निशाना मुख्य रूप से केंद्र सरकार पर है, लेकिन प्रदर्शनरत किसानों ने राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ असंतोष का एक सामान्य माहौल बनाया और इसका असर कैप्टन पर भी पड़ रहा था.

हाल ही में आया कैप्टन का बयान कि किसानों का विरोध पंजाब की आर्थिक स्थिति और विकास को नुकसान पहुंचा रहा है, कैप्टन का किसानों के गुस्से से न जुड़ने का संकेत था.

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कैप्टन तक पहुंच का आसान नहीं होना

कैप्टन के खिलाफ सबसे बड़ी शिकायतों में से एक थी कि उन तक पहुंच पाना मुश्किल है. उन्हें शायद ही कभी विधायकों से मिलते या जनता तक पहुंचते देखा गया और वो ज्यादातर मोहाली के पास अपने फार्महाउस से ही काम-काज संचालित करते थे.

पार्टी विधायकों की अक्सर शिकायत रही कि कैप्टन ने उनके अनुरोधों और याचिकाओं पर कार्रवाई नहीं की और ज्यादातर समय नौकरशाहों पर भरोसा करते थें.

वफादारों ने छोड़ा साथ 

कैप्टन को हमेशा से पंजाब कांग्रेस के भीतर गुटबाजी का सामना करना पड़ा है. इससे पहले उनके प्रतिद्वंद्वी राजिंदर कौर भट्टल और प्रताप सिंह बाजवा थें. लेकिन मौजूदा कार्यकाल में उनकी खींचतान मुख्य रूप से अमृतसर पूर्व से कांग्रेस विधायक और पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू से रही है, जो 2017 में कांग्रेस में शामिल हुए थे.

हालांकि 2018 में अपने इस्तीफे के बाद से सिद्धू अलग-थलग पड़ गए थें, लेकिन धार्मिक ग्रंथ बेअदबी के मामलों पर SIT की रिपोर्ट के खारिज होने से राजनीतिक समीकरण बदल गए.

कैप्टन के कई पूर्व वफादारों ने भी उनका साथ छोड़ दिया. उदाहरण के लिए तृप्त राजिंदर बाजवा, सुखजिंदर रंधावा और सुखबिंदर सरकारिया जैसे नेता - जिन्हें एक साथ ‘माझा एक्सप्रेस’ के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वे इस क्षेत्र से आते हैं. माझा एक्सप्रेस ने कैप्टन को बाजवा के खिलाफ गुटीय संघर्ष जीतने में मदद की थी.

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लेकिन इस बार उन्होंने भी कैप्टन का साथ छोड़ दिया क्योंकि उन्हें एहसास हो गया था कि अगर कैप्टन के साथ बने रहे तो वो हार सकते हैं. अब वो पंजाब कांग्रेस के सत्ता संघर्ष में सिद्धू के सबसे प्रबल समर्थक हैं.

लेकिन साथ छोड़ने वाले सिर्फ ‘माझा एक्सप्रेस’ नहीं थे. यहां तक ​​कि पंजाब कांग्रेस के तत्कालीन प्रमुख सुनील जाखड़ जैसे कप्तान समर्थक नेता ने भी विधायक प्रताप बाजवा और राकेश पांडे के परिजनों को सरकारी नौकरी देने के उनके फैसले की आलोचना की थी.

हाईकमान का दबाव

कैप्टन की गिरती लोकप्रियता कांग्रेस आलाकमान के राज्य इकाइयों के प्रति अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय दृष्टिकोण के अनुरूप दिखती है. पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस नेतृत्व ने तेलंगाना में रेवंत रेड्डी, महाराष्ट्र में नाना पटोले और केरल में के सुधाकरन जैसे बेहद सक्रिय राज्य इकाई अध्यक्षों को नियुक्त किया है.

इसका सबसे बड़ा कारण इन राज्यों में पार्टी पदाधिकारियों के इनपुट के आधार पर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का हस्तक्षेप था. ऐसा ही जून में नवजोत सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर पंजाब में किया गया. हालांकि, पार्टी को उम्मीद थी कि कैप्टन और सिद्धू एक साथ काम करेंगे लेकिन सिद्धू की नियुक्ति के बाद भी कलह जारी रहा.
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अब आगे क्या

याद रहे कि कैप्टन के पास अभी भी अपने पीछे समर्थकों की फौज है. मतदाताओं के एक बड़े हिस्से द्वारा पहली पसंद न होने के बावजूद कैप्टन पुराने हिंदू मतदाताओं में लोकप्रिय हैं. ये वे वोटर्स हैं जो राज्य स्तर पर या तो बीजेपी या कांग्रेस को पसंद करते हैं और मुखर सिख नेताओं से सावधान रहते हैं. कैप्टन के पीछे हटने के बाद भी कांग्रेस इस तबके को कैसे अपने साथ बनाये रखती है, यह देखना अहम होगा.

दूसरा कि कैप्टन के पास अभी भी विधायकों और प्रशासन में वफादारों का एक हिस्सा साथ है. देखना होगा कि क्या उनका उत्तराधिकारी सभी गुटों को साथ लेकर पार्टी के अधूरे वादों को पूरा कर पाएगा.

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