मोदी के नाम स्टेडियम, आगे राजधानी भी?
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ मे टिहरी गढ़वाल के राजा नरेंद्र शाह की कहानी को प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी और उनके नाम पर अहमदाबाद में बने स्टेडियम से जोड़ा है. राजा नरेंद्र शाह के नाम पर नयी राजधानी नरेंद्रनगर का निर्माण 1919 में पूरा हुआ था. कई लोगों ने एडोल्फ हिटल द्वारा 1930 में स्टुटगार्ड में फुटबॉल स्टेडियम का नाम अपने नाम से रखे जाने से इसे जोड़ा, तो कई ने बेनिटो मुसोलिनी, सद्दाम हुसैन और किम इल शुंग से, जिन्होंने सत्ता में रहते अपने-अपने नाम से स्टेडियम बनवाए.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि भारत में तीन ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं जिनके सामने उनके समकक्ष नेताओं का कद बौना था- जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी. नेहरू और इंदिरा ने प्रधानमंत्री रहते हुए ही अपने नाम भारत रत्न करा लिया. क्या अब अगली बारी नरेंद्र मोदी की है? जिस तरह से सरदार पटेल क्रिकेट स्टेडियम का नाम राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के हाथों नरेंद्र मोदी किया गया है उससे यही लगता है कि 2022 या 2023 में कोविंद के हाथों भारत रत्न दिए जाने के पूरे आसार हैं.
गुहा लिखते हैं कि अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से अलग दिखने के लिए मोदी भारत की राजधानी को भी खर्चीले तरीके से यादगार स्मारक में बदल दे सकते हैं. 2014 में लोकसभा में नरेंद्र मोदी के भाषण की याद दिलाते हुए लेखक “बारह सौ साल की गुलामी” का जिक्र करते हैं. उनके मुताबिक नरेंद्र मोदी हिन्दुओं के बीच खुद को शिवाजी और पृथ्वीराज चौहान के अधूरे कार्य को पूरा करने वाले के शासक तौर पर स्थापित करना चाहते हैं.
बौद्ध अशोक या मुस्लिम मुगल या फिर ईसाई ब्रिटिश राज की तरह वे हिन्दुओं के शासनकाल को खड़ा करने का संदेश देना चाहते हैं. अंग्रेजों और मुगलों ने भारत की राजधानी बदली. शाहजहां ने राजधानी को आगरा से दिल्ली स्थानांतरित किया और उसका नाम शाहजहांबाद रखा. वर्तमान में सेंट्रल विस्टा प्रॉजेक्ट भारत को उपनिवेशवादी युग से बाहर ‘आत्मनिर्भर’ बनाने का प्रतीक होगा. शायद नयी राजधानी का नाम नरेंद्र महानगर या फिर मोदियाबाद हो.
दूसरा स्वतंत्रता संग्राम शुरू
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आम लोगों की आजादी पर हमले जारी हैं मगर दूसरा स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो चुका है. अदालतों ने ही आजादी की घंटी बजायी है. चिदंबरम लिखते हैं कि असहमति की आवाज़ को दबाने के लिए राज्य की संगठित शक्ति लगी हुई है जो आपातकाल के दौर से भी बदतर है.
दिशा रवि, पत्रकार सिद्दीक कप्पन, नौदीप, मुनव्वर फारूकी जैसे लोग राजनीतिक नहीं थे फिर भी उनकी आवाज़ दबाने की कोशिशें हुईं और उन्हें जेल में डाला गया. ऐसे मामलों में अदालतें लगातार पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में लोगों को भेजती रही.
चिदंबरम ने राजस्थान राज्य बनाम बालचंद मामले की याद दिलाते हुए लिखा है कि मूल नियम जमानत का होना चाहिए न कि जेल भेजने का. मगर, जांच एजेंसियों की नाकामी, जज के समय पर नहीं रहने, रिपोर्ट पेश नहीं करने जैसे आधारों पर अभियुक्तों को तारीख पर तारीख मिलती रहती है और वे जेलों में रहने को मजबूर कर दिए जाते हैं.
वहीं, अर्णव गोस्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह याद दिलाया है, “अगर एक दिन के लिए भी आजादी का अपहरण कर लिया जाए तो वह एक दिन बहुत सारे दिनों के बराबर होता है”. वरवर राव को जमानत मिल चुकी है, दिशा रवि जेल से बाहर आ गयी हैं. अदालतों ने आजादी को सुरक्षित बनाए रखा है. दूसरा स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो चुका है.
देश बदलेगा जब ‘बाबू’ बदलेंगे
चेतन भगत ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारतीय सिविल सेवा के अधिकारियों को बदलने की जरूरत है. संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की याद दिलाते हुए वे लिखते हैं कि उन्होंने चार बातें कही थीं- अधिकारियों को अपने नकारात्मक रुख में बदलाव लाना होगा, ऐसा क्यों हो कि सबकुछ बाबू ही चलाएं, देश के विकास में निजी क्षेत्र का योगदान सुनिश्चित किए जाएं और सब कुछ बाबुओं को हाथों में छोड़ने से देश आगे नहीं बढ़ सकेगा.
चेतन भगत लिखते हैं कि 5 ट्रिलियन जीडीपी का लक्ष्य हासिल करने के लिए निजी क्षेत्र का सहयोग जरूरी है और इसके लिए बाबुओं को बदलना होगा. सिविल सेवा के अधिकारियों को जिम्मेदारी लेने का समय आ गया है. हालांकि लेखक इस बात का भी उल्लेख करते हैं कि बड़े बदलाव लाने वाले नौकरशाहों को भी सम्मानित नहीं किया जाता है जबकि गलती होने पर उन्हें सजा दी जाती है. हर तीन साल में ट्रांसफर पर भी लेखक सवाल उठाते हैं.
कैसे नौकरशाह तेजी से काम करें और बदलाव लाने में भूमिका अदा करें, इसके लिए ऐसे बंधे-बंधाए नियमों से निकलना होगा. नौकरशाहों के लिए अच्छे काम की सराहना और प्रोत्साहन वाली संरचना बनाने की जरूरत है. खुद नौकरशाहों ने कभी बड़े बदलावों की आवाज़ नहीं उठायी. उन्हें अपने रुख में बदलाव लाना होगा. तकनीकी कौशल उनके लिए जरूरत बन चुकी है. इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज़ को इंडियन इनेब्लिंग सर्विसेज़ के तौर पर बदले जाने की जरूरत है.
राजनीति की दिशा बताएंगे 2021 के चुनाव
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि 2021 के चुनाव आने वाले समय में राजनीति की दिशा तय करेंगे. ये चुनाव राष्ट्रीय और शीर्ष क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य तय करेंगे. संघीय व्यवस्था की संरचना पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा. राजनीति और शासन को लेकर हरेक प्रदेश इन दिनों चुनौतियों का सामना कर रहा है.
चुनाव नतीजों में यह नजर आएगा. स्थानीय मुद्दे और नेतृत्व जरूर चुनाव नतीजों को प्रभावित करेंगे लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य भी इन चुनावों में नजर आएंगे. कोविड-19 की महामारी ने जीवन को बदला है. राजनीतिक संवाद और मुद्दे भी बदले हैं. स्वास्थ्य अचानक प्रमुख मुद्दा बन चुका है.
चाणक्य लिखते हैं कि महामारी के कारण मतदाताओं में क्या बदलाव आया है, यह भी देखे को मिलेगा. उत्तर भारत में तीन कृषि कानूनों के विरोध को लेकर आम लोगों में क्या प्रतिक्रिया है, इसका भी पता चलेगा. बंगाल और तमिलनाडु में सीएए और एनआरसी के मुद्दों का भी असर दिखेगा. तमिलनाडु के लिए श्रीलंका में तमिल हितों का मुद्दा प्रमुख है.
बीजेपी के लिए असम में सत्ता बचाना और पश्चिम बंगाल में इसके प्रदर्शन अहम है. वहीं कांग्रेस के लिए असम और केरल में बेहतर प्रदर्शन का दबाव है. क्षेत्रीय दलों में डीएमके, एआईएडीएमके, टीएमसी को अपना बेहतर प्रदर्शन करना है तो वामदलों के लिए केरल में अपनी सरकार बचाने की चुनौती है. केरल व्यक्तिगत तौर पर राहुल गांधी के लिए महत्वपूर्ण बन गया है.
चीन में गरीबी का खात्मा युगांतरकारी घटना
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि चाहे जिस तरीके से भी देखें शी जिनपिंग की यह घोषणा युगांतरकारी है कि चीन ने गरीबी को खत्म कर दिया है. कभी दुनिया के सबसे गरीब देशों में एक रहा था चीन.
भारत के साथ ही उसे भी गरीब देश के तौर पर देखा जाता था. मगर, आज चीन बदल चुका है. आज चीन में प्रति व्यक्ति आय दुनिया की औसत आय के बराबर हो चुकी है. चीन का दावा है कि उसने 85 करोड़ लोगों को गरीबी के दलदल से निकाला है.
नाइनन लिखते हैं कि हालांकि चीन के आंकड़ों पर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन यह उपलब्धि छोटी नहीं है. कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि गरीबी को लेकर चीन ने जो मानक तय किया है वह अपेक्षा से कम है. चीन ने 1.69 डॉलर की आय को अत्यंत गरीब लोगों का पैमाना रखा है. विश्व बैंक के हिसाब से यह 1.90 डॉलर है.
शी जिनपिंग ने ग्रामीण इलाकों से पूरी तरह से गरीबी खत्म करने का दावा किया. भारत जैसे देश के लिए यह महत्वपूर्ण है. भारत और चीन लगभग एक समय में ही आजाद हुए. बंद अर्थव्यवस्था दोनों देशों की खासियत थी लेकिन चीन ने भारत से पहले आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम बढाए. भारत अब भी राजनीतिक कारणों से इस दिशा में आगे बढ़ने से संकोच दिखा रहा है. कोविड-19 की महामारी ने बड़ा फर्क पैदा कर दिया है. जहां भारत और भी ज्यादा गरीबी के दलदल में धंसा है वहीं चीन गरीबी से उबरता हुआ दिख रहा है.
राजद्रोह के कानून को कूड़ेदान में फेंका जाए
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वक्त आ गया है जब राजद्रोह के कानून को कूड़ेदान मे फेंक दिया जाए. अंग्रेजों के जमाने में बने इस कानून का लगातार दुरुपयोग हो रहा है और दिशा रवि को जमानत देते हुए न्यायाधीश ने जो टिप्पणियां की है उसे देखते हुए इस कानून पर पुनर्विचार करने की जरूरत आ पड़ी है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि जिस दिन दिशा की जमानत हुई उसी दिन कपिल मिश्रा का एक वीडियो वायरल हो रहा था जिसमें दो पत्रकार उन्हें उनके पुराने वीडियो में दिखा रहे थे कैसे वे जेएनयू, जामिया और एएमयू के गद्दारों को गोली मारने के लिए कह रहे थे. कपिल मिश्रा पर कभी राजद्रोह का मुकदमा नहीं लगा, जबकि कई लोग मानते हैं कि उनके भाषण के बाद ही दिल्ली में दंगे भड़के थे.
तवलीन लिखती हैं कि दिल्ली दंगे में जो 53 लोग मारे गये, उनमें ज्यादातर मुसलमान थे. जिनके घर जलाए गये उनमें भी. उन दंगों में मस्जिद के साथ बेअदबी हुई, मंदिर के साथ नहीं. फिर भी दिल्ली पुलिस की मानें तो मुसलमानों ने अपने ही लोगों को मारा और अपने ही लोगों के घर जलाए.
वह लिखती हैं कि असम में चुनाव प्रचार करते हुए प्रधानमंत्री ने योग और भारतीय चाय को बदनाम करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश की बात कही. दिशा रवि की गिरफ्तारी इसी तथाकथित साजिश के तहत हुई. गोदी मीडिया ने दिशा रवि का मीडिया ट्रायल किया. दिशा रवि को जमानत देते हुए न्यायाधीश ने कहा कि टूलकिट में एक बात भी ऐसी नहीं दिखती जिससे कहा जा सके कि उसने दंगा भड़काने की कोशिश की.
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