दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के लिए इस वक्त वोटिंग हो रही है. हर चुनाव की तरह इस बार भी एक दिलचस्प मुद्दा है बेलवेदर सीटों का. ये ऐसी सीटें होती हैं, जहां वही पार्टी जीतती है जो विधानसभा चुनाव में विजयी होती है.
दिल्ली में ऐसे विधानसभा क्षेत्र काफी ज्यादा हैं, जिन्हें बेलवेदर सीटें कहा जा सकता है. करीब 27% यानी कि 70 में से 19 सीटें बेलवेदर मानी जाती हैं.
1993 से 2015 के बीच इन सीटों पर दिल्ली में जीतने वाली पार्टियां ही जीती हैं. 1993 में बीजेपी, 1998, 2003 और 2008 में कांग्रेस, और 2015 में AAP.
चुनाव विश्लेषक और सीवोटर के फाउंडर यशवंत देशमुख का कहना है कि 'हर सीट अपने आप में एक दुनिया है." देशमुख के मुताबिक, बेलवेदर सीटें मीडिया के नजरिए से दिलचस्प होती हैं. हर चुनाव में बेलवेदर सीटों का अलग सेट नजर आ सकता है.
इन बातों को ध्यान में रखते हुए हम देखते हैं कि ये 19 बेलवेदर सीटें दिल्ली के चुनावी परिदृश्य के बारे में क्या कहती हैं.
कुछ सीटें पर रूझान से अलग वोटिंग क्यों?
इन 19 बेलवेदर सीटों पर 1993 से राज्य में जीतने वाली पार्टी ने ही बाजी मारी है. अगर इनमें वो सीटें भी जोड़ लें, जिन्होंने किसी एक चुनाव में अलग वोट किया हो तो बेलवेदर सीटों की संख्या 50% से ज्यादा पहुंच जाएगी.
ये दिखाता है कि दिल्ली का चुनाव और राज्यों के मुकाबले ज्यादा स्थानीय होकर नहीं रह जाता है. ऐसा कुछ हद तक इसलिए भी है कि दिल्ली छोटा है और बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा शहरी है. ऐसे में स्थानीय मुद्दों के असर का स्कोप कम रह जाता है.
इस बात को ज्यादा अच्छे से समझने के लिए दूसरे तरीके से भी देखना चाहिए. वो ये कि- कुछ सीटें पर रूझान से अलग वोटिंग क्यों होती है?
दो फैक्टर ऐसी सीटों को प्रभावित करते हैं. एक प्रभावशाली स्थानीय नेता और दूसरा जनसंख्या संबंधी फैक्टर. कई बार इन दोनों फैक्टर का जोड़ भी जिम्मेदार हो सकता है. जैसे कि एक प्रभावशाली डेमोग्राफिक सेक्शन का प्रभावशाली स्थानीय नेता.
उदाहरण के लिए, 2000 के दशक में कांग्रेस राज्य में जीती थी, फिर भी बीजेपी ने पालम, बिजवासन और दिल्ली कैंट जैसी जाट-बहुल सीटों और जनकपुरी, शालीमार बाग, मोती नगर और हरि नगर जैसी पंजाबी-बहुल सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया था.
इनमें से कुछ सीटों पर बीजेपी ने प्रभावशाली नेता खड़े किए थे. जैसे जनकपुरी से जगदीश मुखी, मोती नगर से पूर्व सीएम मदन लाल खुराना और हरि नगर से हरशरण बल्ली.
इसी तरह 2013 की एंटी-इंकम्बेंसी वेव में, गांधी नगर से अरविंदर सिंह लवली, सुल्तानपुर माजरा से जय किशन, सीलमपुर से चौधरी ,मतीन अहमद और चांदनी चौक से प्रलाद सिंह साहनी जैसे कांग्रेस उम्मीदवार अपनी सीट बचाने में सफल रहे थे.
इसमें एक डेमोग्राफिक फैक्टर भी है. एंटी-इंकम्बेंसी होने के बावजूद, कांग्रेस ने ओखला, सीलमपुर, मुस्तफाबाद, चांदनी चौक और बल्लीमारान जैसी मुस्लिम-बहुल सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया था.
मुस्लिम-बहुल सीटों पर बीजेपी फेल
बीजेपी ने जहां जाट और पंजाबी बहुलता होने के चलते कुछ सीटों को अपना गढ़ बनाया, पार्टी दलित और मुस्लिम-बहुल सीटों पर फेल रही है. उदाहरण के लिए, बीजेपी ने सुल्तानपुर माजरा, अंबेडकर नगर जैसी SC-आरक्षित, और मटिया महल, सीलमपुर, बल्लीमारान जैसी मुस्लिम-बहुल सीटें कभी नहीं जीती हैं.
दिलचस्प बात है कि पुरानी दिल्ली की मटिया महल सीट पर कांग्रेस को भी कभी जीत नहीं मिली है.
क्लास डेमोग्राफिक्स एक और फैक्टर हो सकता है. जैसे बीजेपी ने ग्रेटर कैलाश जैसी सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया है. ये ऐसी सीटें हैं जहां मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास वोटर अच्छी-खासी तादाद में हैं. दिल्ली में 8 फरवरी को चुनाव है, नतीजे 11 फरवरी को आएंगे.
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