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क्या आप RSS के संस्थापक हेडगेवार के बारे में ये जानते हैं? 

हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने के लिए हेडगेवार ने संघ की नींव रखी

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डॉ. केशव राव बलिराम हेडगेवार यानी डॉक्टर जी ने 27 सितंबर,1925 को जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की थी तो शायद इन्हीं दिनों का सपना देखा था. आज भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों की केंद्र में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार है.

देश के नक्शे पर कुछ जगहों को छोड़ दिया जाए तो भगवा हर तरफ नजर आता है. संघ की शाखाओं का जबरदस्त विस्तार हुआ है. पूर्वोत्तर पर कब्जा हो चुका है. दक्षिणी राज्यों को छोड़ दिया जाए तो पूरा भारत बीजेपी की जद में है. जिस कांग्रेस ने कभी भारत पर एकछत्र राज किया आज वह अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही है. लेफ्ट फ्रंट भी सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. आइये एक नजर डालते हैं संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जीवन यात्रा और उनके विचारों पर.

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जन्म और शिक्षा

डॉ. हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर के ब्राह्मण परिवार में हुआ था. जब वो महज 13 साल के थे तभी उनके पिता पंडित बलिराम पंत हेडगेवार और माता रेवतीबाई का प्लेग से निधन हो गया. उसके बाद उनकी परवरिश दोनों बड़े भाइयों महादेव पंत और सीताराम पंत ने की. शुरुआती पढ़ाई नागपुर के नील सिटी हाईस्कूल में हुई. लेकिन एक दिन स्कूल में वंदेमातरम गाने की वजह से उन्हें निष्कासित कर दिया गया. उसके बाद उनके भाइयों ने उन्हें पढ़ने के लिए यवतमाल और फिर पुणे भेजा. मैट्रिक के बाद हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बी एस मूंजे ने उन्हें मेडिकल की पढ़ाई के लिए कोलकाता भेज दिया. यह बात 1910 की है. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह 1915 में नागपुर लौट आए.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना

उन दिनों देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी और सभी सचेत युवा उसमें अपनी सोच और क्षमता के हिसाब से भागीदारी निभा रहे थे. हेडगेवार भी शुरुआती दिनों में कांग्रेस में शामिल हो गए.1921 के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और एक साल जेल में बिताया. लेकिन मिस्र के घटनाक्रम के बाद भारत में शुरू हुए धार्मिक-राजनीतिक खिलाफत आंदोलन के बाद उनका कांग्रेस से मन खिन्न हो गया. 1923 में सांप्रदायिक दंगों ने उन्हें पूरी तरह उग्र हिंदुत्व की ओर ढकेल दिया. वह हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बी एस मुंजे के संपर्क में शुरू से थे. मुंजे के अलावा हेडगेवार के व्यक्तित्व पर बाल गंगाधर तिलक और विनायक दामोदर सावरकर का बड़ा प्रभाव था. सावरकर ने ही हिंदुत्व को नए सिरे से परिभाषित किया था. वह मानते थे कि सिंधु नदी से पूर्व की ओर लोगों की विका़स यात्रा के दौरान सनातनी, आर्यसमाजी, बौद्ध, जैन और सिख धर्म समेत जितने भी धर्मों और धार्मिक धाराओं का जन्म हुआ वह सभी हिंदुत्व के दायरे में आते हैं. उनके मुताबिक मुसलमान, ईसाई और यहूदी इस मिट्टी की उपज नहीं है और इसलिए इस मिट्टी के प्रति उनके मन में ऐसी भावना नहीं है जो हिंदुओं के मन में होती है.

इसी परिभाषा के आधार पर उन्होंने हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना की और उस परिकल्पना को साकार करने के लिए 1925 में विजय दशमी के दिन डॉ. हेडगेवार ने संघ की नींव रखी. वह संघ के पहले सरसंघचालक बने. संघ की स्थापना के बाद उन्होंने उसके विस्तार की योजना बनाई और नागपुर में शाखा लगने लगी. भैय्याजी दाणी, बाबासाहेब आप्टे, बालासाहेब देवरस और मधुकर राव भागवत इसके शुरुआती सदस्य बने. इन्हें अलग अलग प्रदेशों में प्रचारक की भूमिका सौंपी गई.

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राजनीति से आरएसएस को दूर रखने का फैसला

हेडगेवार ने शुरू से ही संघ को सक्रिय राजनीति से दूर सिर्फ सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों तक सीमित रखा. इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति थी. वह ऐसा नहीं चाहते थे कि संघ शुरुआत में ही ब्रितानी हुकूमत की नजरों में खटकने लगे और उसका विस्तार न हो सके. इसी से बचने के लिए उन्होंने संघ को राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने से रोका और उस पर सख्ती से अमल किया. लेकिन 1930 में जब महात्मा गांधी ने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा तो हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं को पत्र लिख कर सूचित किया कि संघ आंदोलन में शामिल नहीं होगा. साथ ही यह भी कहा कि अगर कोई व्यक्ति निजी हैसियत में इस अंदोलन में शामिल होना चाहता है तो हो सकता है. हेडगेवार खुद भी निजी तौर पर उसमें शामिल हुए.

हेडगेवार का मानना था कि संगठन का प्राथमिक काम हिंदुओं को एक धागे में पिरो कर एक ताकतवर समूह के तौर पर विकसित करना है. हर रोज सुबह लगने वाली शाखा में कुछ खास नियमों का पालन होता. शरीर को फिट रखने के लिए व्यायाम और शारीरिक श्रम पर जोर दिया जाता. हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद पर चर्चा होती. शिवाजी और मंगल पांडे जैसे हिंदू नायकों की कहानियां सुनाई जातीं. लक्ष्य साफ था संगठन के विस्तार के लिए आचार-विचार एक होना चाहिए.

हेडगेवार का हिंदुत्व के बारे में स्पष्ट मत था. उनका कहना था

“कई सज्जन यह कहते हुए भी नहीं हिचकिचाते कि हिंदुस्तान केवल हिंदुओं का कैसे? यह तो उन सभी लोगों का है जो यहां बसते हैं. खेद है कि इस प्रकार का कथन/आक्षेप करने वाले सज्जनों को राष्ट्र शब्द का अर्थ ही ज्ञात नहीं. राष्ट्र केवल भूमि के किसी टुकड़े को नहीं कहते. 

यहां कौन लगे रहें इस बारे में भी उनके विचार स्पष्ट थे

एक विचार-एक आचार-एक सभ्यता एवं परम्परा में जो लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं उन्हीं लोगों की संस्कृति से राष्ट्र बनता है. इस देश को हमारे ही कारण हिंदुस्तान नाम दिया गया है. दूसरे लोग यदि इस देश में बसना चाहते हैं तो अवश्य बस सकते हैं. हमने उन्हें न कभी मना किया है न करेंगे. किंतु जो हमारे घर अतिथि बन कर आते हैं और हमारे ही गले पर छुरी फेरने पर उतारू हो जाते हैं उनके लिए यहां रत्ती भर भी स्थान नहीं. संघ की इस विचारधारा को पहले आप ठीक ठाक समझ लीजिए”  
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डॉ. हेडगेवार का निधन 21 जून, 1940 को हुआ. उनके बाद सरसंघचालक की जिम्मेदारी माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को सौंप दी गई. इन दिनों डॉ मोहनराव मधुकर भागवत यानी मोहन भागवत यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. बीते 92 साल में संघ में बहुत कुछ बदला है. चाल, चरित्र और चेहरा सब कुछ बदला है. सियासत से दूर रहने वाला संगठन अब सियासत में आकंठ डूबा हुआ है. 1951 में भारतीय जन संघ की स्थापना संघ के सियासी धड़े के तौर पर हुई. जिसका नाम 1980 में बदल कर भारतीय जनता पार्टी कर दिया गया.

केंद्र समेत देश के कई राज्यों में आज बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का शासन है. लेकिन इन 92 सालों में एक चीज नहीं बदली है. वह है मुसलमानों और ईसाइयों को लेकर इसकी सोच.

केंद्र समेत देश के कई राज्यों में आज बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का शासन है. लेकिन इन 92 सालों में एक चीज नहीं बदली है. वह है मुसलमानों और ईसाइयों को लेकर इसकी सोच.

(यह स्टोरी पहली बार 31.03.18 में प्रकाशित की गई थी. डॉ. केशव राव बलिराम हेडगेवार के जन्मदिन पर इसे दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है)

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