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गाजियाबाद में विक्रम,लखनऊ में सोफिया की मौत:दोनों मांगते रह गए मदद

गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या और लखनऊ विधानसभा के सामने आत्मदाह करने वाली महिला की अस्पताल में मौत.

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जब विकास दुबे को कथित एनकाउंटर में मारा गया तो क्या संदेश देने की कोशिश थी? क्या ये कि यूपी में जो अपराध करेगा वो बचेगा नहीं? अगर हां तो फिर क्यों इस ठोंको नीति के बावजूद गाजियाबाद में बदमाश बीच सड़क गोली मारकर चले गए? यूपी की दो घटनाएं एकदम दोनों दिल तोड़ देने वाली हैं. डरावनी भी. गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या और लखनऊ विधानसभा के सामने आत्मदाह करने वाली महिला सोफिया की अस्पताल में मौत. दोनों ही मामलों में पुलिस कठघरे में है.

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गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी का परिवार एक साल से पुलिस से गुहार लगा रहा था कि प्लीज हमारी मदद कीजिए. कुछ गुंडे हमारी लड़की को छेड़ते हैं.

गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या और लखनऊ विधानसभा के सामने आत्मदाह करने वाली महिला की अस्पताल में मौत.
छेड़छाड़ को लेकर पुलिस में दी गई शिकायत
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16 जुलाई को भी परिवार ने लिखित शिकायत दी थी, लेकिन एक्शन नहीं हुआ. उल्टा बदमाश एक्शन में आ गए. उन्होंने 20 जुलाई की रात को विक्रम जोशी को बीच सड़क गोली मार दी. चंद घंटे अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ने के बाद विक्रम जोशी की मौत हो गई.

विक्रम की बहन पायल ने कहा है कि अगर पुलिस समय पर एक्शन ले लेती तो आज ये वारदात नहीं होती. पुलिस अब हरकत में आई है, जब काफी देर हो चुकी है. 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. स्थानीय चौकी इंचार्ज को सस्पेंड किया गया है.

इस मामले पर इतना गुस्सा है कि इलाके के पत्रकार बुधवार को धरने पर बैठ गए. एकदम रटे रटाए अंदाज में विक्रम जोशी की हत्या के बाद शासन ने परिवार को 10 लाख रुपए का मुआवजा देने का ऐलान कर दिया. पत्नी को नौकरी दी जाएगी और उनके बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी.

“गाजियाबाद NCR में है तो आप पूरे यूपी में कानून-व्यवस्था का अंदाजा लगा लीजिए. एक पत्रकार को इसलिए गोली मार दी गई क्योंकि उन्होंने भांजी के साथ छेड़छाड़ की तहरीर पुलिस में दी थी. इस जंगलराज में कोई भी आमजन खुद को कैसे सुरक्षित महसूस करेगा?’’
प्रियंका गांधी का ट्वीट
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विधानसभा के सामने आत्मदाह

लखनऊ में विधानसभा के सामने मां सोफिया और बेटी गुड़िया ने आत्मदाह करने की कोशिश की थी. 22 जुलाई को सोफिया की मौत हो गई. अब इसके पीछे की कहानी सुनिए. ये कहानी है जिनकी मौत हुई है उनकी बेटी गुड़िया की जुबानी, जो उन्होंने फैजाबाद के आईजी को लिखित शिकायत में दी है.

“दबंग मेरी मां को पीट रहे थे. मैं बचाने गई तो मुझे भी पीटा. मेरे कपड़े फाड़े, छेड़छाड़ की. मैंने मामला दर्ज कराया. दबंग थाने आकर ही मामला दर्ज न करने का दबाव बनाने लगे. किसी तरह मामला दर्ज कराकर घर पहुंची तो वो मेरे घर आए और मुझे उठाकर ले गए. मुझे बंधक बनाकर रखा, पीटा, छेड़छाड़ की और मिट्टी का तेल डालकर जलाने की कोशिश की. मैं किसी तरह बचकर भागी और घर बार छोड़कर इलाके से बाहर चली गई. कुछ नेता, आरोपी और दारोगा ने मिलकर उल्टा मेरे ऊपर ही झूठी FIR दर्ज करा दी है. मुझे समझौता न करने पर जान से मारने की धमकी दी जा रही है. थाने के लोग आरोपियों और नेताओं से मिले हुए हैं. मुझे वहां से इंसाफ नहीं मिलेगा. मेरे खिलाफ मामला खत्म किया जाए.’’
IG को गुड़िया की चिट्ठी
गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या और लखनऊ विधानसभा के सामने आत्मदाह करने वाली महिला की अस्पताल में मौत.
IG को गुड़िया की चिट्ठी

गौर कीजिएगा कि गुड़िया और उसकी मां ये सब मई से झेल रही थीं. पूरा जून बीता. मदद के लिए 6 जुलाई को उन्होंने ये चिट्ठी लिखी थी. लेकिन मदद नहीं मिली. हारकर दोनों ने 17 जुलाई को विधानसभा के सामने आत्मदाह करने की कोशिश की. अब गुड़िया की मां गुजर चुकी हैं. कौन है जिम्मेदार?

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स्नैपशॉट
  • गाजियाबाद में छेड़छाड़ की शिकायत के बाद भी पुलिस ने एक्शन क्यों नहीं लिया?
  • क्या इन दोनों में कोई संबंध है कि पुलिस ने एक्शन नहीं लिया और अपराधियों की जुर्रत इतनी बढ़ गई कि उन्होंने शिकायत करने वाले को सरेआम गोली मार दी?
  • क्या विक्रम जोशी की हत्या के मामले में मुआवजे का ऐलान कर देने से पुलिस की गलती छिप जाएगी?
  • क्या अमेठी में गुहार लगाती गुड़िया की अनसुनी कर शासन-पुलिस उसकी मां की मौत के लिए जिम्मेदार नहीं हो गए?
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कानपुर एनकाउंटर हो गया कुछ न बदला

ये सब तब हो रहा है जब इसका बड़ा उदाहरण सामने आ चुका है कि पुलिस-अपराधी-नेताओं की साठगांठ का भस्मासुर खुद पुलिस के लिए भी ठीक नहीं. विकास दुबे केस में यही हुआ. 2001 में उसने थाने में हत्या की थी, किसी पुलिसवाले ने गवाही नहीं दी, वो छूट गया. 3 जुलाई को दबिश की खबर महकमे के मुखबिरों ने उसे दे दी और उसने 8 पुलिस वालों की हत्या कर दी. आजकल एक ऑडियो क्लिप भी वायरल हो रहा है जिसमें कथित तौर पर विकास दुबे एक पुलिसवाले से बातचीत कर रहा है.

विकास दुबे कह रहा है कि “इस बार इतना बड़ा कांड करूंगा कि ये लोग याद रखेंगे.” वो गालियां बक रहा है, कह रहा है कि चाहे जिंदगी भर जेल में रहूंगा लेकिन छोड़ूंगा नहीं, पूरी जीप को साफ कर दूंगा. वो पुलिस वाला भइया-भइया करता रहा, लेकिन आला अधिकारियों को इसकी सूचना नहीं दी. आखिर विकास ने जो कहा था वही किया. उस सिपाही ने क्यों नहीं बड़े अधिकारियों को सूचना नहीं दी? क्या वो जानता था कि अधिकारी भी नेताओं के हुक्म के आगे चुप्पी साध लेंगे और मैं मारा जाऊंगा?

यूपी सरकार कहती रही कि हम राज्य में ‘ठोंको नीति’ चला रहे हैं. लेकिन इसी ‘ठोंको नीति’ के दरम्यान विकास दुबे कानपुर कांड कर गया. ‘ठोंको नीति’ जारी रही और पुलिस ने विकास दुबे और उसके साथियों को ठोंक दिया. लेकिन इस एनकाउंटर के बाद भी गाजियाबाद में बदमाशों ने खुली सड़क पर एक पत्रकार को गोली मार दी. पुलिस में शिकायत के बावजूद. तो आप बस ये सोचिए कि ऐसी ठोंको नीति कहां कारगर हो रही है? दरअसल ठोंको नीति से हेडलाइंस हासिल करना अलग बात है और कानून व्यवस्था में सुधार अलग कहानी है. इसके लिए पुलिस-अपराधी-राजनीति की मिलीभगत को ठोंकने की जरूरत है.

क्विंट से बात करते हुए पूर्व डीजी पुलिस ओपीएस मलिक कहते हैं,

''व्यावहारिक रूप से भारत में पुलिस सिर्फ कानून की एजेंट नहीं. वो सरकार के मातहत आती है और सरकार राजनीतिक पार्टियां बनाती हैं. इसलिए वो सत्ताधारी पार्टी के सेल के तौर पर काम करती है, जैसे उस पार्टी के किसान सेल या लेबर सेल काम करते हैं. संक्षेप में कहा जाए तो वो रूलर्स पुलिस यानी शासक की पुलिस होती है, रूल्स पुलिस कानून की पुलिस नहीं होती. इसका नतीजा यह होता है कि कानून को लागू करने में कई समस्याएं आती हैं. उसकी विश्वसनीयता और छवि पर सवाल उठाए जाते हैं. जब तक उसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त नहीं किया जाएगा, सुधार नहीं होगा'.'

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