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गुलाम नबी आजाद को क्यों मुफ्ती मोहम्मद सईद से नसीहत लेनी चाहिए

गुलाम नबी आजाद अपनी पार्टी बना सकते हैं, ऐसा ही 1999 में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने किया था, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं.

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‘मैंने राजनीति संजय गांधी और मुफ्ती मोहम्मद सईद से सीखी थी, इसलिए मुझे किसी से नसीहत लेने की जरूरत नहीं है’. माना जाता है कि ये बातें साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कहीं पर गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) ने कही थीं.

याद रखिए ,ये वो समय था जब कांग्रेस के कई कद्दावर नेता पार्टी के भीतर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का कद और असर बढ़ने से घबराए थे क्योंकि साल 2013 में राहुल गांधी कांग्रेस के वाइस प्रेसिडेंट नियुक्त किए गए थे.

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मुफ्ती सईद और गुलाम नबी आजाद समीकरण क्यों जरूरी ?

मुफ्ती मोहम्मद सईद-गुलाम नबी आजाद समीकरण पर बात करना अभी इसलिए अहम है क्योंकि अब गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस छोड़ दी है. कहा जाता है कि वह अपनी पार्टी बनाने पर विचार कर रहे हैं.

तथ्य यह है कि गुलाम नबी आजाद के साथ जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के नेताओं जीएम सरूरी, हाजी अब्दुल राशिद, मोहम्मद अमीन भट, गुलजार अहमद वानी, चौधरी मोहम्मद अकरम और सलमान निजामी ने इस्तीफा दे दिया है, यह एक नए जम्मू-कश्मीर आधारित दल के बनने की तरफ इशारा करता है.

ऐसा ही कुछ कुछ साल 1999 में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने किया था जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार सत्ता में थी. सईद साहब पहले तो कांग्रेस छोड़कर 1987 में ही जनता दल में शामिल हुए थे और साल 1989 में केंद्र में गृह मंत्री भी बने थे. लेकिन कुछ साल बाद कांग्रेस में लौट आए पर फिर उन्होंने कांग्रेस को 1999 में छोड़ दिया और जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी बना ली.

गुलाम नबी आजाद और मुफ्ती सईद की राह एक जैसी?

मुफ्ती मोहम्मद सईद और गुलाम नबी आजाद दोनों ही राजीव गांधी से पहले के कांग्रेसी थे. सईद इंदिरा गांधी के वफादार थे और गुलाम नबी आजाद संजय गांधी के वफादार. दोनों ने अपने गृह राज्य जम्मू और कश्मीर के बाहर लोकसभा चुनाव जीता. सईद ने 1989 में मुजफ्फरनगर से जनता दल के टिकट पर चुनाव जीता जबकि गुलाम नबी आजाद ने 1980 और 1984 में महाराष्ट्र के वाशिम से, जो उस समय एक सुरक्षित कांग्रेस सीट होती थी. दोनों का ही राजीव गांधी से मतभेद था लेकिन अलग अलग तरीके से.

कहा जाता है कि कश्मीर पर मुफ्ती मोहम्मद सईद खुद को केंद्र यानि नई दिल्ली के हितों का एक मजबूत समर्थक मानते थे और वो राजीव गांधी जिस तरह से फारूक अब्दुल्ला के नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठबंधन में गए थे उसका विरोध करते थे.

कहा जाता है कि संजय गांधी की मृत्यु के बाद जिस तरह से राजीव को अहमियत देते हुए उन्हें राजनीति में लाया गया, इसको लेकर गुलाम नबी आजाद को थोड़ी नाराजगी थी.

कुछ मायनों में, आजाद ने खुद को राजीव गांधी की तुलना में पार्टी के हितों का ज्यादा मजबूत रक्षक माना. अब तीन दशक बाद यही भावना राहुल गांधी के खिलाफ उभरकर ज्यादा तीव्रता से सामने आई है.

अगर ईमानदारी से बताएं तो राहुल गांधी के कामकाज और उनकी टीम के एकतरफा तौर तरीकों की जो आलोचना गुलाम नबी आजाद ने की है उसमें कुछ भी गलत नहीं है. विशेष रूप से जिस तरह से राहुल ने 2019 में "एक आवेश में आकर इस्तीफा दिया".

हालांकि, गुलाम नबी आजाद खुद कांग्रेस की उसी चाटुकारिता और जवाबदेही नहीं लेने वाली संस्कृति के ही नेता हैं जिसके लिए वो राहुल गांधी की आलोचना करते हैं.

आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की बगावत के लिए गुलाम नबी आजाद काफी हद तक जिम्मेदार थे. उस संदर्भ में, आजाद ने एक महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय नेता के साथ डील करते समय नई दिल्ली के नेताओं में जो अहंकार होता है उसका ही परिचय दिया था.

लेकिन अपने ही राज्य (अब केंद्र शासित प्रदेश) जम्मू-कश्मीर में भी आजाद पर सेकेंड लाइन ऑफ लीडरशिप यानी दूसरी कतार को पनपने नहीं देने का आरोप लगा. इसके बावजूद आजाद को पार्टी और सरकार में प्रमुख स्थान मिलते रहे और उन्हें शायद ही कभी जवाबदेह ठहराया जाता था.

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आजाद के लिए आगे क्या और सईद से वो क्या सीख सकते हैं?

मुफ्ती मोहम्मद सईद ज्यादा चतुर राजनेता थे और आजाद से बेहतर नई दिल्ली और कश्मीर दोनों को समझते थे. सईद ने आजाद से बेहतर तरीके यह महसूस किया कि अपने सियासी वजूद को किसी खास सियासी पार्टी के साथ ही जोड़ कर ना रखा जाए. उन्होंने एक ऐसे नेता बने रहने की कोशिश की जो कश्मीरी हैं लेकिन नई दिल्ली के लिए भी "जरूरी " हैं, लेकिन कभी भी आजाद की तरह वो नई दिल्ली का फिक्सर नहीं बने.

मुफ्ती मोहम्मद सईद कभी भी गुलाम नबी आजाद की तरह कांग्रेस से अटके नहीं रहे और चतुराई से अपने करियर को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठा को बदल दिया.

आजाद को अब वही करने के लिए मजबूर किया जा रहा है जो सईद ने अपनी मर्जी से किया मतलब अपनी पार्टी बनाओ.

सईद उस समय नई दिल्ली के लिए 'उपयोगी' थे, जब वो जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए सियासी प्रतिस्पर्धा पैदा करने में कारगर थे. लेकिन उन्होंने इसके साथ अपनी शर्तों पर काम किया और बदले में कई छूट हासिल कीं. जैसे कि इखवानी ग्रुप को खत्म करने और कश्मीर में अधिक नरम नीति अपनाना. हालांकि महबूबा मुफ्ती के अधिक आक्रामक रुख से पीडीपी घाटी में बहुत व्यापक राजनीतिक स्पेक्ट्रम पर पकड़ बनाने में कामयाब रही है. गुलाम नबी आजाद में वो चालाकी और चतुराई का अभाव है जो मुफ्ती मोहम्मद सईद की राजनीति की विशेषता है. हालांकि, जम्मू-कश्मीर में नई दिल्ली के लिए गुलाम नबी आजाद कुछ काम के हो सकते हैं.

बीजेपी किसी ऐसे शख्स को घाटी में खोज रही है जो वोट काटने में कारगर हो और जम्मू के भी मुस्लिम बहुत इलाके जैसे डोडा, रजौरी और पूंछ में पैठ मजबूत कर सके.

डोडा के रहने वाले गुलाम नबी आजाद मुस्लिम भी हैं और वो इस स्कीम में पूरी तरह से फिट बैठते हैं. एक पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते भी वो महबूबा और फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं की काट के तौर पर भी कारगर हो सकते हैं.

इस मायने में उनका काम दरअसल 1999 में जिस तरह से मुफ्ती मोहम्मद सईद ने घाटी में सियासी प्रतिस्पर्धा बनाई वैसा ही कुछ उनको भी करना होगा. लेकिन केंद्र का उद्देश्य अलग है - इस बार मिशन जम्मू-कश्मीर में बीजेपी अपने नेतृत्व वाली सरकार बनाना चाहती है ताकि विधानसभा में उसके राज्य के दर्जे की वापसी की प्रक्रिया की जा सके.

ऐसे में गुलाम नबी आजाद को बीजेपी जम्मू-कश्मीर के मसले पर जो बड़ा से बड़ा रोल दे सकती है वो है ‘साइडकिक’ का यानि बीजेपी की स्कीम में मदद करने वाला शख्स.

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