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क्या सांप्रदायिक ‘वोट बैंक’ की राजनीति अब बंगाल तक जा पहुंची है?

क्या पश्चिम बंगाल में वाम के कमजोर होने के कारण सांप्रदायिक पहचान की राजनीति जड़ें पकड़ने लगी है. 

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हाल के दिनों तक पश्चिम बंगाल की राजनीति में धर्म की कोई बड़ी भूमिका नहीं रही थी. ये बात थोड़ा हैरान करती है, क्योंकि विभाजन के दिनों में इस सूबे ने देश के कुछ सबसे बुरे सांप्रदायिक दंगे देखे थे.

तो फिर सांप्रदायिकता की राजनीति से बंगाल के अब तक बचे रहने के क्या कारण हो सकते हैं? बांग्लादेश की सीमा पर मालदा में हुई हिंसा पर जिस तरह की राजनीति की जा रही है, यह बंगाल के लिए नई है. पिछले कुछ सालों में आखिर क्या है जो बदल गया है?

हिंसा का इतिहास

16 अगस्त, 1946 को मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान नाम का एक अलग देश बनाने का सपना पूरा करने के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ के लिए आवाज उठाई थी.

कलकत्ते में जिन्ना के सपनों के पाकिस्तान की तरफ जाने वाली राह वहां के नागरिकों के खून में डुबाकर बनाई गई थी. जिन्ना के आह्वान के बाद जो दंगे भड़के थे, वैसे ब्रिटिश भारत ने पहले कभी नहीं देखे थे.

क्या पश्चिम बंगाल में वाम के कमजोर होने के कारण सांप्रदायिक पहचान की राजनीति जड़ें पकड़ने लगी है. 
1946 में कलकत्ता की एक सड़क पर दंगे के बाद का दृश्य. (फोटो : Public Domain Image)

पर वो बुरा सपना वहीं खत्म नहीं हुआ. विभाजन के बाद लाखों हिंदू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान छोड़कर पश्चिम बंगाल चले आए. उनमें से ज्यादातर के पास मौत और हिंसा की कड़वी यादें थीं, वे यादें, जो उन्हें अपने ही दोस्तों और पड़ोसियों ने दी थीं. समझा जा सकता था कि वे लोग अपने दिलों में मुसलमानों के लिए ढेर सी कड़वाहट भी साथ लाए थे.

विभाजन के बाद भी सांप्रदायिकता की घटनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं. 24 परगना, नादिया और मालदा जैसी जगहों पर कई छोटे-छोटे दंगे होते रहे. आखिरी सबसे बड़ा दंगा 1964 में हुआ था, जब उस समय के पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं का कत्ल किए जाने की खबरें बंगाल तक पहुंचीं.

फिर पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थियों की दूसरी लहर पश्चिम बंगाल आई. पर सीमा के उस पार से आए ये ‘बांगाल’ सांप्रदायिक नहीं थे, यही वे लोग थे, जो सूबे में कम्युनिस्ट पार्टियों के पहले वोटर बने.

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राजनीतिक हिंसा थी, पर वहां सांप्रदायिक रंग नहीं था

अगर यह कहा जाए कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा नहीं हुई, तो ये एक सफेद झूठ होगा. हिंसा थी, लेकिन सांप्रदायिक नहीं. हन्नन मुल्ला, जो 1980 से 2009 तक सीपीआई-एम सांसद रहे और आज पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं, आज भी सूबे को सांप्रदायिकता से बचाए रखने का श्रेय अपनी पार्टी को देते हैं.

क्या पश्चिम बंगाल में वाम के कमजोर होने के कारण सांप्रदायिक पहचान की राजनीति जड़ें पकड़ने लगी है. 
सीपीआई-एम का एक मुस्लिम कार्यकर्ता. (फोटो: रॉयटर्स)
विभाजन के दौरान, फिर 64 के दंगों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों के साथ नजदीकी से काम किया. ये सच है कि जिन लोगों के वहां कड़वे अनुभव रहे थे, उनमें यहां आक्रोश था, नफरत थी, पर हमने ये निश्चित किया कि उन्होंने जो खोया था, उसकी भरपाई यहां आर्थिक और सामाजिक रूप से हो सके. पुनर्वास की मांगें, शिक्षा और नौकरी की जरूरत, सब पर ध्यान दिया गया. 
हन्नन मुल्ला, पोलित ब्यूरो सदस्य, सीपीआई-एम

मुसलमानों के लिए भी मुल्ला दावा करते हैं कि बिना उनके धर्म को उनके राजनीतिकरण के लिए इस्तेमाल किए, पार्टी ने उनके उत्थान, उनकी शिक्षा के लिए मेहनत की.

भूमि के दोबारा बंटवारे के संघर्ष (जिससे कई मुसलमानों को फायदा मिला) से लेकर, शिक्षा और मदरसों के सुधार तक, वाम सरकार ने सुनिश्चित किया कि सरकार बंगाल के मुसलमानों के साथ खड़ी रहे.
हन्नन मुल्ला, पोलित ब्यूरो सदस्य, सीपीआई-एम

लेकिन अगर सबकुछ इतनी अच्छी तरह किया गया, तो जनसंख्या में 35 फीसदी मुसलमान होते हुए भी वाम सरकार को इतनी बुरी हार का सामना क्यों करना पड़ा? साफ है कि कहीं न कहीं वे वोट खो रहे थे.

पहचान की राजनीति: ममता ने बनाई या लेफ्ट ने दबाई

क्या पश्चिम बंगाल में वाम के कमजोर होने के कारण सांप्रदायिक पहचान की राजनीति जड़ें पकड़ने लगी है. 
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी. (फोटो: रॉयटर्स)

हन्नन मुल्ला के पास इसका एक आसान जवाब है. हां, लेफ्ट ने मुसलमानों को शिक्षा दी, पर वे उन्हें उनकी उम्मीदों से कदम मिलाने में मदद करने के लिए नौकरियां नहीं दे पाए. यहां लेफ्ट ममता बनर्जी को भी दोष देता है.

ममता बनर्जी ने हमें हराने के लिए राजनीति की विभाजनकारी शक्तियों का सहारा लिया. सांप्रदायिक बीजेपी से लेकर माओवादी ताकतों की मदद ली, यहां तक कि गोरखालैैंड मांगने वालों तक को भी साथ ले लिया. हमारे पास मुसलमान वोट थे और पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थी भी थे, क्योंकि हमने उन्हें आर्थिक विकास और सुरक्षा देने का वादा किया था. पर ममता ने धार्मिक नेताओं को अपनी तरफ मिलाकर, सांप्रदायिक ताकतों के दम पर उन्हें अपनी तरफ कर लिया.
हन्नन मुल्ला, पोलित ब्यूरो सदस्य, सीपीआई-एम
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क्या पश्चिम बंगाल में वाम के कमजोर होने के कारण सांप्रदायिक पहचान की राजनीति जड़ें पकड़ने लगी है. 
क्या पश्चिम बंगाल में सीपीआई-एम की गहरी पैठ ने पहचान की राजनीति को दबाया है. (फोटो: रॉयटर्स)

यह सच है कि चीजें इससे और अधिक मुश्किल हो सकती हैं.

कलकत्ता के 30 साल के फाइनेंशियल कंसल्टेंट शांतनु चौधरी को लगता है कि उसके दादा एक ‘आर्मचेयर कम्युनिस्ट’ हैं और हमेशा रहे हैं.

दादू जब 64 के दंगों के बाद यहां (पश्चिम बंगाल) आए तो उनके पास कुछ भी नहीं था. यूं तो वे किसी व्यक्ति के धर्म पर ध्यान नहीं देते, हर समुदाय में उनके करीबी दोस्त हैं, पर जब राजनीति की बात आती है, तो वे कई बार काफी सांप्रदायिक और मुस्लिम विरोधी बातें कर जातें हैं.
शांतनु चौधरी

कलकत्ता के एक पूर्व सीपीआई-एम सदस्य मानते हैं कि पार्टी के कमजोर होने पर पहचान की राजनीति बढ़नी ही थी, शायद इसीलिए बढ़ी भी है.

पिछले कई दशकों में पार्टी हर जगह मौजूद थी. कई पहचान के संघर्षों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया, यहां तक कि उन्हें दबा दिया गया. पर अब गोरखालैैंड आंदोलन जोर पकड़ता जाएगा. दलित भी अपने शोषण और पहचान की राजनीति की ओर बढ़ सकते हैं. और हां, मुसलमान भी. केंद्र का बनाया ध्रुवीकरण का माहौल उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर सकता है. यह कुछ ऐसा है, जैसे आवाज उठाने का मौका तलाश रहे लोगों को वो मौका मिल गया है.
पूर्व सीपीआई-एम सदस्य, कलकत्ता  

बहरहाल, पिछले कुछ महीनों से प्रदेश में सांप्रदायिकता की आड़ लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है, वह चिंता पैदा करने वाली है.

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