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हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव परिणाम से कांग्रेस को क्या सीख लेनी चाहिए

Himachal Pradesh में कांग्रेस ने एक शानदार चुनाव प्रचार अभियान चलाया, गुजरात में इसके उलट हुआ

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गुजरात में बेहद खराब प्रदर्शन और हिमाचल प्रदेश में आसान जीत के साथ कांग्रेस के लिए दो राज्यों के चुनाव परिणाम मिले-जुले रहे. हालांकि कांग्रेस पार्टी ने कभी भी गुजरात में जीतने की उम्मीद नहीं की थी, लेकिन 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों की तुलना में इसके प्रदर्शन में काफी गिरावट आई है. 2017 में जहां कांग्रेस पार्टी ने गुजरात में 41.4 फीसदी वोट शेयर के साथ 77 सीटें जीती थीं वहीं इस बार, कांग्रेस ने सिर्फ 17 सीटें जीतीं और उसका वोट शेयर 27.3 प्रतिशत रहा.

हिमाचल प्रदेश के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो कांग्रेस पार्टी ने इस बार 43.8 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 40 सीटें जीती हैं, जो कि 2017 की 21 सीटों और 41.7 प्रतिशत वोट शेयर में बड़ी बढ़त दर्शा रही है.

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हिमाचल प्रदेश : स्थानीय कैंपेन लेकिन बीजेपी के लिए काउंटर-नैरेटिव के साथ

कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में एक अत्यधिक स्थानीय अभियान चलाया, जिसमें पूरी तरह से राज्य-विशिष्ट मुद्दों जैसे बेरोजगारी, पुरानी पेंशन योजना, सेब-बेल्ट किसानों की दुर्दशा पर ध्यान केंद्रित किया गया. यहां तक कि जब अग्निवीर योजना जैसे राष्ट्रीय मुद्दे उठाए गए, तो इसका कारण यह था कि हिमाचल प्रदेश हर साल सैकड़ों युवाओं को सेना में सेवा देने के लिए भेजता है, ऐसे में यह मुद्दा राज्य की बेरोजगारी की समस्या से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है.

लेकिन केवल स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने से बढ़कर, कांग्रेस ने न केवल मौजूदा बीजेपी सरकार के प्रदर्शन की आलोचना की और सत्ता विरोधी लहर पर पकड़ बनाने का प्रयास किया, बल्कि सक्रिय रूप से एक काउंटर-नैरेटिव भी प्रदान किया. कांग्रेस के अभियान की जो थीम थी वह 'हिमाचल, हिमाचलियत और हम' थी, जोकि प्रदेश में प्रचलित धार्मिकता के विशिष्ट ब्रांड पर केंद्रित रही और इस बात पर जोर दिया गया है कि इसमें (धर्म के विशिष्ट ब्रांड में) बीजेपी की हिंदुत्व राजनीति द्वारा कब्जा नहीं किया गया है. यह समग्र अभियान को दिया गया एक सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण परिभाषित मोड़ था.

प्रियंका गांधी ने यहां कई चुनावी अभियानों का नेतृत्व किया, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस के चेहरे के लिए वो उपयुक्त थीं. राहुल गांधी हिमाचल प्रदेश से पूरी तरह दूर रहे. उन्होंने एक बार भी प्रदेश का दौरा नहीं किया, जिसकी वजह से कई लोगों की भौहें तन गईं. लेकिन बिना किसी बड़े वैचारिक संदेश के प्रियंका का कैंपेन व्यापक तौर पर विनम्र था और मुख्य रूप से कैडर को प्रोत्साहित करने वाला था, उनके कैंपेन ने उन्हीं संदेश को आगे बढ़ाने के लिए काम किया जो स्थानीय नेतृत्व द्वारा दिए गए थे. इस तरह कैंपेन की थीम में एक निरंतरता को रेखांकित किया गया.

इसमें कोई शक नहीं है कि हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के चुनावी कैंपेन में बड़ी खामियां थीं, जैसे कि 'डबल इंजन की सरकार' पर जोर देना और जो राज्य स्थानीय मुद्दों पर वोट देने के लिए जाना जाता है उसके चुनाव का राष्ट्रीयकरण करना. बीजेपी का ये कार्ड कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहा. इसके अलावा भले ही कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने अपने असंतुष्ट नेताओं के विद्रोह को देखा, लेकिन कांग्रेस अभी भी इसे बेहतर तरीके से प्रबंधित करने में सक्षम थी.

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गुजरात : असंगठित प्रचार, नेताओं की भीड़-भाड़ नहीं या मिलाजुला प्रयास नहीं 

हिमाचल प्रदेश के विपरीत, गुजरात में कांग्रेस कोई भी राज्यव्यापी नैरेटिव प्रदान करने में सक्षम नहीं थी. कल्याणकारी वादों को काफी हद तक आम आदमी पार्टी AAP से लिया गया था, इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के गुजरात कैंपेन में मौलिकता या चहल-पहल (नेताओं की भीड़-भाड़) का पूरी तरह अभाव था. इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने राज्य में अपने गढ़ (आदिवासी क्षेत्र) को भी गंवा दिया.

कांग्रेस का चुनाव प्रचार अव्यवस्थित और असंगठित लग रहा था, जिसके पीछे एक प्रमुख कारण दिवंगत कांग्रेस नेता अहमद पटेल की अनुपस्थिति हो सकती है. 2020 में उनके निधन के बाद से यह पहला चुनाव था. इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन दर्शाता है कि प्रदेश कांग्रेस में किस तरह एक खालीपन है, जहां कोई नेता उन जिम्मेदारियों को उठाने की कोशिश भी नहीं कर रहा है, जिन्हें पटेल ने दशकों तक संभाला. अहमद पटेल अपने दक्ष टिकट वितरण, संगठनात्मक कौशल और चुनाव के दौरान आवश्यक बैक-रूम रणनीति के लिए जाने जाते थे.

भले ही बीजेपी 27 वर्षों से गुजरात में सत्ता में है और उसके पास अन्य सभी दलों की तुलना में कहीं अधिक संसाधन हैं, फिर भी कांग्रेस ने अपने पास मौजूद संसाधनों का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया. उदाहरण के लिए, वडगाम सीट जीतने वाले दलित नेता जिग्नेश का राज्यव्यापी कांग्रेस प्रचार के लिए खासकर आरक्षित सीटों पर जितना हो सकता था उतना उपयोग नहीं किया गया. इसका एक कारण उनका जेल में होना भी हो सकता है. इससे पहले इसी साल मई में राहुल गांधी ने आदिवासी इलाकों में मेवाणी को आगे और केंद्र में रखते हुए एक रैली की थी, जिसे 'आदिवासी सत्याग्रह' कहा गया था. उस समय रैली को अच्छी लोकप्रियता मिली, लेकिन चुनाव या चुनावी तरीखों के आस-पास फिर से इस तरह की कोई रैली नहीं दोहरायी गई.

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कांग्रेस के भविष्य के लिए इसका क्या मतलब है

चुनाव परिणाम दो प्रमुख नैरेटिव तैयार करने में मदद करेंगे.

1. हिमाचल प्रदेश पहला ऐसा चुनाव बन गया है, जिसमें कांग्रेस ने 2018 (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) के बाद से बीजेपी को हराया है, इससे यह नैरेटिव तैयार करने में मदद मिलेगी कि कांग्रेस पार्टी वाकई में विधानसभा चुनावों में जीत सकती है. यह जीत भारत जोड़ो यात्रा को सफल बनाने के लिए पर्दे के पीछे रहकर काम करने वाले राष्ट्रीय स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं को आवश्यक प्रोत्साहन दे सकती है. दूसरी ओर, यह राहुल गांधी पर अच्छी तरह से प्रतिबिंबित नहीं होता है कि कांग्रेस ने एक ऐसे राज्य में जीत हासिल की जहां उन्होंने प्रचार नहीं किया.

2. हिमाचल प्रदेश के उलट, जहां काफी हद तक 2 दलों के बीच मुकाबला था, गुजरात में व्यापक तौर पर यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि कांग्रेस के वोटों में आम आदमी पार्टी सेंध लगाने का प्रयास करेगी. ऐसे में कांग्रेस पार्टी के लिए यह जरूरी हो गया था कि वह अपने मौजूदा वोट शेयर और सीटों को बचाए. भले ही कांग्रेस ने गुजरात में खुद को दूसरे पायदान पर बरकरार रखा है, लेकिन घटते आंकड़े भविष्य के लिए बहुत आशाजनक नहीं लगते हैं.

इसके अलावा यह भी स्पष्ट हो गया है कि आम आदमी पार्टी की मंशा कांग्रेस को देश में मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में विस्थापित करने और खुद को बीजेपी विरोधी वोटर बेस के एक मजबूत विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करने की है. भले ही AAP अभी तक अपने इस प्रयास में सफल नहीं हुई है, लेकिन अगर AAP अगले कुछ चुनावों में ऐसा करने में कामयाब रहती है, तो निश्चित तौर पर इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ेगा.

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