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हिमाचल: जब BJP-कांग्रेस की आईं बराबर सीटें-कैसे बनी सरकार?प्रदेश राजनीति की ABCD

Himachal Pradesh Political History and Election: 1971 में राज्य बनने से लेकर आज तक का सफर

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हिमाचल में चुनाव (Himachal Pradesh Election) की बयार तेज हो चुकी है. 12 नवंबर को वोटिंग है. नतीजे 8 दिसंबर को आएंगे. मुख्य मुकाबला हमेशा की तरह बीजेपी और कांग्रेस में है. बता दें बीते 37 सालों में कोई भी पार्टी हिमाचल में दोबारा जीत दर्ज करने में नाकामयाब रही है. मतलब 1985 के बाद एक बार कांग्रेस, तो एक बार बीजेपी सत्ता में रही है.

लेकिन 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा पाने वाले हिमाचल में राजनीति पार्टियों के साथ-साथ मुख्य चेहरों पर ही केंद्रित रही है. आजादी के बाद शुरू के तीस साल यशवंत सिंह परमार, इस क्षेत्र के सिरमौर थे, तो बाद के चालीस सालों में पहले जनता दल, फिर बीजेपी से शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल के साथ-साथ कांग्रेस से वीरभद्र सिंह की इस इलाके में तूती बोलती रही.

बीजेपी ने इस बार जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाकर साफ कर दिया था कि वो धूमल युग से आगे बढ़ चुकी है, जबकि वीरभद्र सिंह के निधन के बाद कांग्रेस भी अगले दौर में पहुंच चुकी है.

हिमाचल: पहले राज्य बना, फिर केंद्र शासित प्रदेश, फिर वापस पूर्ण राज्य

Himachal Pradesh Political History and Election: 1971 में राज्य बनने से लेकर आज तक का सफर

हिमाचल प्रदेश का आज जैसा स्वरूप है, यह एक लंबी प्रक्रिया का नतीजा है. भारत की स्वतंत्रता के बाद 1948 में चीफ कमिश्नर्स प्रोविंस ऑफ हिमाचल प्रदेश का गठन हुआ. इसमें आज के हिमाचल में स्थित 28 पहाड़ी राज्य शामिल थे. लेकिन यह काफी छोटा था. इसमें बिलासपुर, शिमला, कांगड़ा, लाहौल-स्पीति जैसे बड़े इलाके शामिल नहीं थे. 26 जनवरी, 1950 को इसी क्षेत्र को राज्य का दर्जा दे दिया गया. 1954 में इसमें तत्कालीन बिलासपुर राज्य को मिला दिया गया. फिर 1956 में हिमाचल प्रदेश को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया.

अब आता है साल 1966. पंजाब का पुनर्गठन किया जाता है, जिसके जरिए हरियाणा अस्तित्व में आया. इसी दौरान पंजाब में आने वाले बड़े पहाड़ी इलाकों का हिमाचल में विलय भी किया जाता है. दरअसल आजादी के बाद पंजाब में तत्कालीन पेप्सू राज्य को शामिल किया गया था, जिसकी राजधानी पटियाला थी. यह पहा़ड़ी इलाके इसी पेप्सू राज्य का हिस्सा थे. मतलब 1966 में हुए इस पुनर्गठन के बाद, पटियाला तो पंजाब का हिस्सा रहा, पर पेप्सू के दूसरे इलाके हिमाचल में चले गए. इन्हीं में से एक इलाका था शिमला. जो बाद में राज्य की राजधानी बना.

हिमाचल: जब BJP-कांग्रेस की आईं बराबर सीटें-कैसे बनी सरकार?प्रदेश राजनीति की ABCD

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इस दौरान पंजाब से हिमाचल में शिमला, कांगड़ा, लाहौल-स्पीति, लोहाड़ा, अम्ब और होशियारपुर जिले की ऊना तहसील मिलाई गई. तो जो आज का हिमाचल है, इसकी भौगोलिक सीमाएं 1966 में तय की गई थीं, तब यह केंद्रशासित प्रदेश ही था. लेकिन 1967 में इसके लिए अलग विधानसभा का प्रावधान भी कर दिया गया था, जैसा आज दिल्ली और पांडिचेरी राज्य के लिए है. फिर 25 जनवरी, 1971 को हिमाचल प्रदेश को दोबारा पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया.

आजादी के बाद हिमाचल क्षेत्र की राजनीति के चार सबसे बड़े चेहरे

देश के सबसे प्रसिद्ध हिल स्टेशन में से एक शिमला में शहर का मुख्य आकर्षण है मॉल रोड. तो शहर का केंद्र होने के चलते यहां महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय और आंबेडकर जैसे सेनानियों, फिर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी की मूर्तियां लगी हुई हैं. लेकिन एक और मूर्ति है, यशवंत सिंह परमार की. इनके बारे में बाहर से आने वाले लोगों को जानने में कुछ परेशानी होती है. लेकिन मूर्ति के नीचे बड़े-बड़े शब्दों में लिखा है- "हिमाचल निर्माता यशवंत सिंह परमार" तो थोड़ा बहुत अंदाजा तो लग जाता है.

Himachal Pradesh Political History and Election: 1971 में राज्य बनने से लेकर आज तक का सफर
दरअसल यशवंत सिंह परमार वो शख्स हैं, जिनका हिमाचल क्षेत्र की राजनीति पर करीब तीन दशक तक एकछत्र राज रहा. 1950 से 1977 तक कांग्रेस नेता रहे परमार की इस इलाके में खासी पकड़ थी.

बाद के चालीस सालों में एक और राजनेता का उभार हुआ. यह थे रामपुर बुशहर रियासत के राजघराने से आने वाले वीरभद्र सिंह. परमार के कुछ समय बाद, वीरभद्र सिंह की कांग्रेस पर मजबूत पकड़ बन गई. 1983 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद जब भी कांग्रेस सत्ता में आती, तो वीरभद्र ही मुख्यमंत्री बनते.

जैसा इमरजेंसी के बाद 1977 में हुआ, हिमाचल में भी कांग्रेस चुनाव हारी और विपक्ष से एक नए नेता मुख्यमंत्री बने, जिनका नाम है शांता कुमार. फिर 90 के दशक में ही बीजेपी के साथ-साथ प्रेम कुमार धूमल का उदय हुआ. उन्हीं के वारिस हैं अनुराग ठाकुर.

तो यही हैं वे चार नाम, जो हिमाचल क्षेत्र की राजनीति को आजादी के बाद से प्रभावित करते आए हैं.

हिमाचल में चुनाव: पूर्ण राज्य बनने से पहले

जैसा पहले बताया, 1952 से 1956 तक हिमाचल प्रदेश पूर्ण राज्य रह चुका था. पहली बार हुए इस चुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने.

फिर 1956 में केंद्र शासित प्रदेश और 1967 में विधानसभा का प्रावधान होने के बाद चुनाव हुए. इनमें भी कांग्रेस की जीत के बाद यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने. उनके इसी कार्यकाल के आखिरी साल (1971) में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था.

पहला (1972), दूसरा (1977) चुनाव: इमरजेंसी के बाद बदलाव

Himachal Pradesh Political History and Election: 1971 में राज्य बनने से लेकर आज तक का सफर

आधुनिक हिमाचल के लिए लंबा संघर्ष करने वाले नेता यशवंत सिंह परमार

फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स

1972 में हिमाचल के पूर्ण राज्य बनने के बाद पहले चुनाव हुए. इनमें भी कांग्रेस को बंपर जीत दर्ज हुई. एक बार यशवंत सिंह परमार के सिर पर ताज पहनाया गया. कहा जाता है कि इस दौरान परमार के संजय गांधी से मतभेद हो गए. जिसके चलते उन्हें जनवरी, 1977 में इस्तीफा देना पड़ा. आखिर यही तो इमरजेंसी का दौर था, जब संजय गांधी सबसे ताकतवर हुआ करते थे.

इसके बाद महज 92 दिनों के लिए ठाकुर राम लाल मुख्यमंत्री बने. फिर केंद्र में चुनाव हुए और जनता पार्टी सरकार में आई. जिसने बाकी राज्यों की तरह हिमाचल में भी सरकार को बर्खास्त कर दिया.

अगले 63 दिनों के राष्ट्रपति शासन के बाद राज्य में 1977 के विधानसभा चुनाव हुए, इनमें कई राज्यों की तरह हिमाचल में भी जनता पार्टी की सरकार बनी और सुल्लाह से विधायक चुने गए शांता कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने. वे करीब तीन साल मुख्यमंत्री रहे. 1980 में इंदिरा गांधी की केंद्र में वापसी हुई और राज्य में फिर से कांग्रेस की सरकार बनी और ठाकुर राम लाल दोबारा मुख्यमंत्री बने. लेकिन आगे रामलाल का राजनीतिक सफर आसान होने वाला नहीं था. क्योंकि तब तक एक नए छत्रप के उभार की जमीन तैयार हो चुकी थी.

1982 का चुनाव: कांग्रेस की जीत और वीरभद्र सिंह का उभार

1980 में बीजेपी का गठन हो चुका था. मुख्यमंत्री पद गंवाने के बाद शांता कुमार नेता प्रतिपक्ष थे. इसी दौरान 1982 में राज्य के तीसरे चुनाव हुए. 68 सीटों के लिए हुए इस बेहद करीबी मुकाबले में कांग्रेस को 31 और बीजेपी को 29 सीटें हासिल हुईं. जबकि 6 निर्दलीय उम्मीदवार जीते और जनता पार्टी से 2 प्रत्याशी जीतने में कामयाब रहे.

कांग्रेस ने निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाई और ठाकुर रामलाल फिर से मुख्यमंत्री बने. लेकिन एक साल पूरा होने से पहले ही उनकी जगह कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया और इस तरह 8 अप्रैल 1983 को वीरभद्र पहली बार मुख्यमंत्री बने. किसने सोचा था कि वे कुल 6 बार राज्य के मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन यह विधानसभा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और 1985 के चुनाव आ गए.

Himachal Pradesh Political History and Election: 1971 में राज्य बनने से लेकर आज तक का सफर
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1985 के चुनाव के बाद लगातार दूसरा कार्यकाल नहीं ले पाई कोई भी पार्टी

चौथा चुनाव हिमाचल की राजनीति का अहम पड़ाव था. यही वह चुनाव था, जिसके बाद कोई पार्टी दोबारा चुनावों में जीत दर्ज नहीं कर पाई. यही वह चुनाव था, जिसमें पहली बार वीरभद्र सिंह ने कांग्रेस की अगुवाई की. बीजेपी शांता कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी. यह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वाला दौर था, तो नतीजों को लेकर पहले ही बीजेपी के पक्ष में बहुत उम्मीद नहीं थी.

नतीजे आए और इकतरफा आए. 68 सीटों में से कांग्रेस 58 जीती. जबकि बीजेपी 7 सीटों पर सिमटकर रह गई. हालांकि पार्टी का वोट परसेंटेज 35 फीसदी से भी ज्यादा था. इस चुनाव में दो निर्दलीय और एक लोक दल का उम्मीदवार भी जीता.

1990 का चुनाव: कमंडल की राजनीति का दौर और बीजेपी की वापसी

अब पूरे देश में भगवा राजनीति का नया दौर शुरू हो गया था. कांग्रेस को अब प्रादेशिक के साथ-साथ तेजी से बढ़ती बीजेपी से भी दो-दो हाथ करना पड़ रहा था. यही रथ यात्राओं वाला दौर था.

ऐसे माहौल में जब 1990 में चुनाव हुए, तो तस्वीर ही पलट गई. बीजेपी 46 सीटें जीतकर पहली बार राज्य में सरकार बनाने में कामयाब रही, जबकि एंटी इंकंबेंसी की हवा में कांग्रेस उड़ गई और सिर्फ 9 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई. खास बात तो यह रही कि पार्टी सीधे तीसरे नंबर पर पहुंच गई और जनता दल भी 11 सीटों के साथ कांग्रेस को पछाड़ने में कामयाब रहा. शांता कुमार अब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन उनका कार्यकाल बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं था. दिसंबर, 1992 में बाबरी विध्वसं के बाद हिमाचल में उनकी सरकार बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.

1993 का चुनाव- कांग्रेस की दमदार वापसी

Himachal Pradesh Political History and Election: 1971 में राज्य बनने से लेकर आज तक का सफर

तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ वीरभद्र सिंह

फोटो:विकीमीडिया कॉमन्स

हिमाचल में एंटी इंकंबेंसी किस कदर हावी होती है, इससे अंदाजा लगाइए कि सिर्फ तीन साल बाद हुए चुनावों में 9 सीट हासिल करने वाली कांग्रेस फिर से 52 सीटों पर आ गई और पिछली बार सरकार बनाने वाली बीजेपी दहाई का आंकड़ा तक नहीं छू पाई. जैसा पहले बताया अब वही सिलसिला जारी रहेगा- हर दूसरे चुनाव में वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बनते रहेंगे.

1998- ऐसी टसल किसी चुनाव में नहीं, बीजेपी का धूमल काल शुरू

1998 में वीरभद्र सिंह बहुत हद तक एंटी इंकंबेंसी के खतरे को कम करने में कामयाब रहे. इस चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस की बराबर, मतलब 31-31 सीटें आईं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व नेता सुखराम और अनिल शर्मा ने वीरभद्र का काम बिगाड़ दिया. सुखराम शर्मा की पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस 5 सीटें जीतने में कामयाब रही और बीजेपी के साथ सत्ता में शामिल हुई.

यह चुनाव इसलिए भी अहम रहा कि अब शांता कुमार की राज्य से विदाई हो गई, उन्हें बाद में केंद्र में वाजपेयी सरकार में मंत्री बनाया गया. जबकि बीजेपी की कमान आई मास्टरी से अपने करियर की शुरुआत करने वाले प्रेम कुमार धूमल के हाथ में. इस तरह धूमल पहली बार मुख्यमंत्री बने.

अगले तीन चुनाव- 2003, 2007 और 2012

2003 में कांग्रेस की वापसी हुई और वीरभद्र फिर मुख्यमंत्री बने. इस चुनाव में कांग्रेस को 43 और बीजेपी को 16 सीटें मिलीं.

2007 में हुए चुनाव में बीजेपी की फिर वापसी हुई और धूमल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. इस चुनाव में बीजेपी को 41 और कांग्रेस को 23 सीटें हासिल हुईं. 2012 में जब कांग्रेस ने वापसी की तब कांग्रेस 36 सीटें जीती थी और बीजेपी 26. 2012 में वीरभद्र सिंह आखिरी बार मुख्यमंत्री बने. 2021 में उनका निधन हो गया. इस तरह बीजेपी के बाद कांग्रेस भी अपने पारंपरिक दौर से आगे बढ़ चुकी है.

पिछला चुनाव: 2017

2017 में जब बीजेपी चुनाव जीती, तो उम्मीद थी कि प्रेम कुमार धूमल फिर से मुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं. इस चुनाव में बीजेपी ने 44 सीटें हासिल कीं. लेकिन सुजानपुर से धूमल खुद चुनाव हार गए. फिर बीजेपी हाईकमान ने भी उनपर दांव लगाना सही नहीं समझा और नए-नवेले जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया. इस चुनाव में कांग्रेस को 21 सीटें मिलीं.

तो यह तो साफ है कि 2022 के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस अपने पारंपरिक दौर से आगे बढ़ते हुए चुनाव लड़ रही हैं. क्या बीजेपी 37 साल का रिकॉर्ड तोड़ेगी या कांग्रेस वीरभद्र सिंह की गैरमौजूदगी में खुद को साबित करने में कामयाब रहेगी. बहरहाल इसका तो सिर्फ इंतजार ही किया जा सकता है!

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