गुजरात चुनावों की स्क्रिप्ट से इस बार मुसलमान गायब हैं. मुस्लिमों के मुद्दे भी गायब हैं और मुस्लिम उम्मीदवारों के नाम भी. एक पार्टी की लिस्ट में मुट्ठी भर मुस्लिम उम्मीदवार दिख रहे हैं तो दूसरी पार्टी की लिस्ट से उनका नामोनिशां ही मिट गया है. हद तो यह है कि खुद को मुसलमानों का हमदर्द बताने वाली पार्टी के नेताओं ने इस डर से उनके इलाके में जाना छो़ड़ दिया है कि कहीं विरोधी पार्टी हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण न कर ले.
गुजरात की आबादी में 9.67 फीसदी मुसलमान हैं लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव जैसी अनदेखी उनकी शायद ही कभी हुई हो. बीजेपी ने इस बार एक भी मुसलमान उम्मीदवार नहीं उतारा है और कांग्रेस ने सिर्फ 6 को अपनी लिस्ट में जगह दी है. कांग्रेस नेताओं के भाषणों में मुसलमानों के मुद्दों पर कोई बात नहीं हो रही है.
कांग्रेस पाटीदारों की बात कर रही है. ठाकुरों का साथ देती नजर आ रही और दलित -आदिवासियों तक पहुंच बना रही है लेकिन मुसलमानों की खैर-खबर लेने की उसे फुरसत नहीं.
जातियों को खुश करने में लगी पार्टियां
दरअसल गुजरात का चुनाव अब सांप्रदायिक लाइन पर नहीं बल्कि जाति समीकरण की बुनियाद पर लड़ा जा रहा है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों राज्य की मुखर जातियों को खुश करने में लगे हैं. कांग्रेस तो इस बार गुजरात दंगे का मुद्दा भी नहीं उठा रही है. नरेंद्र मोदी के खिलाफ अब तक उसका सबसे धारदार हथियार रहा यह मुद्दा ठंडा पड़ा है. वजह वही. कहीं मोदी इस मुद्दे पर उल्टे उस पर हमलावर न हो जाएं.
घटते गए मुस्लिम एमएलए
1980 में गुजरात विधानसभा में 12 मुस्लिम एमएलए थे लेकिन पिछले विधानसभा में उनकी तादाद घट कर 2 रह गई. 1962 में महाराष्ट्र से अलग होने के बाद गुजरात विधानसभा चुनाव में 7 मुस्लिम उम्मीदवार चुन कर आए थे. 1985 में यह संख्या 8 थी. नब्बे के दशक में जब देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हुआ तो गुजरात में मुस्लिम विधायक तेजी से घटे. यहीं से ढलान शुरू हुई लेकिन 2000 के बाद गुजरात विधानसभा यह संख्या और कम हो गई. 2002 में 3, 2007 में 5 और 2012 में सिर्फ दो विधायक चुने गए.
वोट तो लेते हैं लेकिन तवज्जो नहीं देते
गुजरात में 21 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 20 फीसदी है. यहां मुस्लिम उम्मीदवार उतारे जा सकते थे. लेकिन पार्टियां और उम्मीदवार उनके वोट तो चाह रहे हैं, लेकिन मुसलमान उम्मीदवार नहीं खड़े कर रहे. पार्टियां उनके मुद्दे उठाने से बच रही हैं. सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक 2007 में 69 फीसदी मुस्लिमों ने कांग्रेस को वोट दिया था. 20 फीसदी मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट दिया था .
2012 में 64 फीसदी मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया और 16 फीसदी मसलमानों ने बीजेपी को. सीएसडीएस के ताजा सर्वे के मुताबिक इस बार के चुनाव में 27 फीसदी मुस्लिम बीजेपी को वोट दे सकते हैं. 49 फीसदी ने कांग्रेस के प्रति समर्थन जताया है. शहरी आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 15 फीसदी और ग्रामीण इलाके में 5 फीसदी है. इसके बावजूद मुस्लिम उम्मीदवारों को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है.
कब तक होगी अनदेखी
लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों को यह समझना होगा कि गुजरात में मुस्लिम उम्मीदवारों को तवज्जो न देने की उनकी स्ट्रेटजी तभी तब कामयाब है, जब तक हिंदुत्व का एजेंडा भारी है. इस एजेंडे की चमक खत्म होते ही मुस्लिम फैक्टर फिर अहम हो जाएगा. बीजेपी के कट्टर और कांग्रेस के नरम हिंदुत्व की स्ट्रेटजी का खुमार उतरते ही गुजरात की चुनावी राजनीति में मुस्लिम फैक्टर वापसी करने लगेगा. बीजेपी न सही कांग्रेस को तो उनकी खैर-खबर लेनी ही पड़ेगी. वरना पूरे देश में वह अल्पसंख्यक आबादी की रहनुमाई का दावा कैसे करेगी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)