पिछले दो हफ्ते, या कहें सप्ताह के अंत, भारत में नेताओं, पत्रकारों और राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए काफी महत्वपूर्ण रहे हैं. दो राज्यों के मौजूदा मुख्यमंत्री-पंजाब (Punjab) में कैप्टन अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) और गुजरात में विजय रुपाणी (Vijay Rupani) को इस्तीफा देना पड़ा, जिससे नए चेहरों को सत्ता संभालने का रास्ता मिल गया.
जहां एक ओर कांग्रेस ने चरणजीत चन्नी के रूप में पंजाब को अपना पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया तो वहीं गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने पारंपरिक पाटीदार वोट बैंक को वापस जीतने के लिए भूपेंद्र पटेल को सीएम बनाया.
भले ही दोनों पक्षों ने शैली और मंशा में लगभग एक जैसे अभ्यास को अंजाम दिया, लेकिन एक प्रासंगिक सवाल यह है - यह किसने बेहतर किया?
चुनाव, सत्ता विरोधी लहर और जातिगत समीकरण
पंजाब और गुजरात दोनों में 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं. बीजेपी के लिए गुजरात प्रतिष्ठा का विषय है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का गृह राज्य और सभी पार्टी प्रयोगों के लिए प्रयोगशाला.
दूसरी ओर, पंजाब उन कुछ राज्यों में से एक है जहां कांग्रेस को अभी भी एक बड़ा बहुमत प्राप्त है, इसके अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ हैं.
ऐसी परिस्थितियों में, बड़े पैमाने पर सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रहे दोनों दलों ने केवल मौजूदा मुख्यमंत्रियों को बदलने और नए चेहरों के साथ चुनावी वर्ष में प्रवेश करने के लिए इसी फैसले को सही समझा.
दिलचस्प बात ये है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों के ही द्वारा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों का चुनाव जाति समीकरणों को संतुलित करने की कोशिश पर ध्यान केंद्रित करता है.
जहां बीजेपी का लक्ष्य पटेलों के साथ फिर से खड़ा होना था तो वहीं कांग्रेस ने एक ऐसे राज्य में दलित मुख्यमंत्री को चुना है जहां अनुसूचित जाति की आबादी 31.9 प्रतिशत है.
इसके अलावा अंतिम निर्णय लेने का फैसला दोनों पार्टी के आलाकमान द्वारा लिया गया था. सब समान रहा सिर्फ नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के फैक्टर को छोड़कर.
गुजरात में 'विजय रुपाणी' को हटाने का फैसला पूरी तरह से पार्टी आलाकमान का था, और जैसा कि कई लोग यह तर्क देंगे की यह प्रक्रिया पंजाब की तुलना में बहुत आसान लग रही थी.
कैप्टन और रुपाणी में समानताएं
द क्विंट ने ओपी जिंदल स्कूल ऑफ नेशनल अफेयर्स के राजनीतिक विश्लेषक और फैकल्टी सदस्य त्रिदिवेश सिंह मैनी से बात की जो पंजाब को करीब से देखते हैं.
मैनी ने कहा कि इन दोनों स्थितियों की तुलना करते समय पद छोड़ने वाले दो नेताओं के राजनीतिक करियर को ध्यान में रखना चाहिए.
"कैप्टन अमरिंदर सिंह का एक लंबा और घटनापूर्ण राजनीतिक जीवन रहा है. विजय रुपाणी के विपरीत उन्हें पार्टी आलाकमान द्वारा 'प्रॉक्सी' मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित नहीं किया गया था. हालांकि, समय के साथ, कैप्टन तेजी से अलोकप्रिय हो गए और जमीन पर लोगों के साथ डिस्कनेक्ट हो गए."त्रिदिवेश सिंह मैनी, राजनीतिक विश्लेषक
मैनी ने आगे कहा कि अमरिंदर सिंह को हटाया जाना काफी समय से लंबित था. मैनी ने कहा, "पिछले कुछ महीनों में वह पहुंच से बाहर हो गए थे.
इस वजह से उन्हें अधिकांश विधायकों का समर्थन नहीं मिला" और मीडिया सिद्धू को उनके पतन के पीछे मुख्य व्यक्ति के रूप में पेश करता है.
जाहिर है, पार्टी आलाकमान को पार्टी के भीतर बढ़ती गुटबाजी और मतदाताओं के बीच सत्ता विरोधी लहर को दूर करने के लिए कदम उठाना पड़ा.
लेकिन भले ही कैप्टन की लोकप्रियता पिछले कुछ वर्षों में घटी हो, फिर भी वह पंजाब की राजनीति के सबसे बड़े नेताओं में से एक हैं. इसने बीजेपी आलाकमान की तुलना में कांग्रेस आलाकमान के लिए काम को और मुश्किल बना दिया. विजय रुपाणी को बदलना आसान था क्योंकि कैप्टन के विपरीत उनकी छवि कभी भी 'जन नेता' की नहीं थी.
इसके अलावा गुजरात में सूचना तंत्र पर बीजेपी का पूरा नियंत्रण लग रहा था. क्योंकि 'रुपाणी' के इस्तीफे की खबर तब तक सामने नहीं आई जब तक कि उन्होंने वास्तव में इस्तीफा नहीं दे दिया. इसके ठीक विपरीत कैप्टन के इस्तीफे के इर्द-गिर्द फुसफुसाहट का नेटवर्क उनके बाहर निकलने के महीनों पहले ही सक्रिय हो गया था.
अगस्त 2021 में द क्विंट ने अमरिंदर सिंह के होने वाले इस्तीफे के बारे में बताया था. पंजाब में पार्टी प्रमुख के रूप में 'सिद्धू' की नियुक्ति, कैप्टन के अपने सिंहासन पर बने रहने की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा रही थी.
इसके अलावा कांग्रेस के मामले में जबकि गांधी परिवार इस मामले पर अंतिम अधिकार थे फिर भी उन्हें गुजरात में मोदी-शाह की जोड़ी के समान अधिकार प्राप्त नहीं था.
यह इस बात से स्पष्ट होता है कि किस तरह कैप्टन के इस्तीफे की तारीख तक भी भारी भ्रम था कि उनका उत्तराधिकारी कौन होगा. जबकि सुखजिंदर रंधावा का नाम शीर्ष पद के लिए लगभग अंतिम रूप दिया गया था.
सूत्रों का दावा है कि सिद्धू द्वारा रंधावा का समर्थन नहीं करने के बाद चन्नी को चुना गया था. और चरणजीत चन्नी की नियुक्ति के बाद भी इस पद के लिए सबसे आगे चल रहे सुनील जाखड़ के इस कदम से नाराज होने की खबरें हैं.
आगे क्या?
दोनों राज्यों में सत्ता का परिवर्तन कैसा रहा इसका सबसे बड़ा अंतर अगले साल होने वाले चुनावों से स्पष्ट होगा.
यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस या बीजेपी ने इस तरह की गतिविधि को अंजाम दिया है. बीजेपी ने हाल ही में उत्तराखंड और कर्नाटक में अपने मौजूदा मुख्यमंत्रियों की बदली की है, और इससे पहले 2016 में गुजरात में, 2017 के चुनावों से पहले विजय रुपाणी ने आनंदीबेन पटेल की जगह ली थी.
कांग्रेस ने 2003 में महाराष्ट्र में भी ऐसा ही किया था जब उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की जगह सुशील कुमार शिंदे को नियुक्त कर चुनाव जीता था और शीर्ष पद देशमुख को वापस दे दिया था.
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