किसान आंदोलन और SP-RLD के गठबंधन के बाद लग रहा था कि यूपी में पश्चिम का किला बीजेपी आसानी से हार जाएगी. लेकिन इस जाटलैंड की सियासी पगडंडियां बड़ी घुमावदार हैं. ये जंग इतनी छोटी नहीं है, क्योंकि 2017 से पहले जो सियासी समीकरण बने उसके बाद लखनऊ का रास्ता यहीं से होकर जाता है. और ये बात बीजेपी को भी समझ आ रही है, लिहाजा पार्टी ने पूरी ताकत यहां झोंक दी है और थ्री लेवल प्लान पर काम कर रही है.
पश्चिमी यूपी को लेकर 3 बड़े सवाल हैं-
1. जयंत चौधरी का कद खेवनहार वाला है?
2. पश्चिमी यूपी में जातीय समीकरण क्या है?
3. जाटलैंड में फंसी बीजेपी का प्लान क्या है?
अजीत सिंह-जयंत चौधरी 2012 के बाद नहीं जीते चुनाव
जयंत चौधरी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पोते और पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजीत सिंह के बेटे हैं. ये मथुरा से 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़े. 52% वोटों के साथ सांसद बने. 2012 में मथुरा की मांट सीट से विधानसभा का चुनाव लड़े और जीत गए. लेकिन इसके बाद लगातार हार का सामना करना पड़ा. साल 2014 में मथुरा से ही लोकसभा का चुनाव लड़े और 27% के साथ हेमा मालिनी से हार गए. 2019 में सीट बदलकर पारंपरिक सीट बागपत चले गए. वहां बीजेपी के सत्यपाल सिंह से हार गए.
पिता अजीत सिंह के लिए भी 2014 और 2019 ठीक नहीं रहा. 2014 में बागपत से चुनाव लड़े और 19% वोटों के साथ तीसरे नंबर पर थे. 2019 में अजीत सिंह मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़े और 48% वोटों के साथ संजीव बालियान से हार गए.
2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी ने 277 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन सिर्फ 1 को जीत मिली. 266 की तो जमानत जप्त हो गई. पार्टी के वोट प्रतिशत की बात करें तो ये ग्राफ लगातार गिर रहा है.
आरएलडी के लक्षण 'चवन्नी' वाले ही रहे हैं
जयंत चौधरी भले ही कहें कि वह कोई चवन्नी नहीं जो पलट जाएंगे, लेकिन आरएलडी का रिकॉर्ड किसी एक पार्टी का बनकर रहने का नहीं रहा. चौधरी अजीत सिंह अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह, दोनों की कैबिनेट में मंत्री रहे. 1999 में आरएलडी का गठन हुआ. उसी साल लोकसभा के चुनाव हुए और पार्टी बागपत और कैराना से चुनाव जीती. 2004 में पिछली दो सीटों के अलावा तीसरी बिजनौर भी जीत गई.
2009 में आरएलडी ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया और 5 सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन बाद के लोकसभा चुनाव में RLD यूपी में एक सीट भी नहीं जीत सकी. ऐसे में सवाल उठता है कि जब पार्टी बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है तो फिर बीजेपी जयंत चौधरी के पीछे क्यों पड़ी है? इसी सवाल के साथ शुरू होती है जाटलैंड में बीजेपी के फंसने की कहानी.
RLD के लिए किसान आंदोलन बना संजीवनी
26 जनवरी 2021 को लाल किले पर हुए उपद्रव के बाद किसान आंदोलन लगभग खत्म हो रहा था. तब राकेश टिकैत रो पड़े थे. तब उनके आंसुओं ने आंदोलन को जिंदा किया. अगले ही दिन जयंत चौधरी गाजीपुर बॉर्डर पहुंच गए. राकेश टिकैत से मुलाकात की. उसके बाद किसानों की कई महापंचायतों में शामिल हुए. यानी किसान आंदोलन ने आरएलडी के लिए एक संजीवनी का काम किया. मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाट और मुस्लिम वोट बंट गए थे. तीन चुनावों में सीधा फायदा बीजेपी को हुआ. लेकिन किसान आंदोलन ने मुजफ्फरनगर दंगे को भुला दिया. जयंत चौधरी ने भी लगातार जाट-मुस्लिम एकता के कई कार्यक्रम किए.
पश्चिम में जाट+मुस्लिम कॉम्बिनेशन सबसे सफल
उत्तर प्रदेश के पश्चिम में बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बिजनौर, गाजियाबाद, हापुड़, बुलंदशहर, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, मुरादाबाद में जाटों की अधिकता है. उसके अलावा रामपुर, अमरोहा, सहारनपुर और गौतमबुद्ध नगर में भी थोड़े बहुत जाट हैं. यहां पूरी राजनीति जाट, जाटव, मुस्लिम, गुर्जर और वैश्य जाति के इर्द-गिर्द घूमती है. यूपी में जाट 2% हैं, वहीं पश्चिम यूपी में 17-18% हैं. जाट और मुस्लिम मिल जाए तो पश्चिमी यूपी की कई सीटों पर क्लीन स्वीप कर सकते हैं. जैसे- मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, बिजनौर, बागपत, सहारनपुर और गाजियाबाद के सात जिलों में दोनों की आबादी मिलाकर 40 प्रतिशत से ज्यादा है. कई जगहों पर तो 50% तक हैं.
जाटलैंड में फंसी बीजेपी कैसे निकल सकती है?
पश्चिमी यूपी में कई जगहों पर बीजेपी के नेताओं का विरोध हुआ. कहीं पर काले झंडे दिखाए गए तो कहीं पर लोगों ने घेरकर नारेबाजी की. जैसे-
24 जनवरी को चूर गांव में सिवाल खास से बीजेपी उम्मीदवार पर हमला हुआ. 20 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई.
मुजफ्फरनगर के खतौली से बीजेपी के मौजूदा विधायक और उम्मीदवार विक्रम सैनी को भैंसी गांव में किसानों ने घेर लिया. विरोध में नारे लगाए. विक्रम सैनी वही हैं जिन्होंने सिंघू बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रहे किसानों की आलोचना की थी.
बागपत में छपरौली से बीजेपी उम्मीदवार सहेंद्र रमाला को दाहा गांव में काले झंडे दिखाए गए. उसी दिन एक कार्यक्रम निरपुडा गांव में भी था, लेकिन वहां गांव के लोगों ने उन्हें घुसने ही नहीं दिया.
जाटलैंड में बीजेपी 3 प्लान पर काम कर रही है
2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाटों का वोटिंग पैटर्न बदल गया. वे बीजेपी के हिंदुत्व वाली पिच पर चले गए. साल 2019 में 91% जाट वोट बीजेपी को गया. लेकिन किसान आंदोलन के बाद पूरा समीकरण बदलता दिखा. आंदोलन के दौरान कई जगहों पर किसान और जाटों की महापंचायत हुई. भारी भीड़ जुटी थी. हर जगह बीजेपी के खिलाफ वोट करने की बाद की गई. मंच पर कई बार जयंत चौधरी दिखे. अब वे अखिलेश यादव के साथ हैं. ऐसे में जाट और मुस्लिम का कॉम्बिनेशन बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है. वहीं बीजेपी 3 तरीके से अपनी खोई जमीन पाने की कोशिश में है.
जयंत चौधरी की वापसी का परसेप्शन बनाना. बीजेपी खुला ऑफर दे रही है कि वापस आ जाइए. लेकिन जयंत चौधरी चवन्नी का उदाहरण देकर मना कर चुके हैं. तब धर्मेंद्र प्रधान ने कहा, आरएलडी चीफ बच्चे हैं. इतिहास का कम ज्ञान है. उनके पिता ने कितनी बार पाला बदला. दरअसल, जयंत चौधरी पाला बदले या न बदले, लेकिन बीजेपी ऐसे बयानों से एक कन्फ्यूजन की स्थिति पैदा करना चाहती है कि जयंत चौधरी अभी नहीं तो बाद में. लेकिन पाला बदलकर बीजेपी में ही आएंगे. इससे वोटर कन्फ्यूज होकर सपा के खिलाफ वोट कर सकता है. जयंत चौधरी पर उनका भरोसा कम होगा.
बीजेपी के बयानों में मियां जान, जिन्ना के बाद पाकिस्तान और मुगल की एंट्री हो चुकी है. सीएम योगी ने कहा कि वे जिन्ना के उपासक हैं और हम सरदार पटेल के. उन्हें पाकिस्तान से प्यार है. ट्वीट में योगी ने तो राम भक्तों पर गोलियां चलने वाली घटना का जिक्र किया. अमित शाह भाषणों में मुजफ्फरनगर दंगे का जिक्र करते हैं. उन्होंने कहा, आज भी दंगों की पीड़ा को भूल नहीं पाया हूं. हमारा आपका नाता 650 साल पुराना है. आप भी मुगलों से लड़े हम भी लड़ रहे हैं. यानी बीजेपी अपने ध्रुवीकरण वाले फार्मूले पर जाना चाहती है. जिस मुजफ्फरनगर को लोग भूल चुके थे, उसे फिर से याद दिला रही है, क्योंकि पिछले 3 चुनावों में ध्रुवीकरण का असर देख चुकी है.
तीसरी बात ये नजर आ रही है कि बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. शाह गए, विस्तार से गए. यानी ग्राउंड लेवल तक जाकर काम कर रहे हैं. योगी ने वहां लगभग कैंप ही कर लिया है.
आंकड़ों में जयंत पश्चिमी यूपी के 'चौधरी' तो नजर नहीं आते, लेकिन किसान आंदोलन के बाद परसेप्शन की लड़ाई में किंग मेकर हैं. फायदा एसपी को मिलता दिख रहा है. बीजेपी की इमेज पर आंदोलन का जो डेंट लगा है, उससे कई सीटों पर नुकसान हो सकता है. हां, जयंत चौधरी को लेकर कन्फ्यूजन बनाने या फिर मुजफ्फरनगर की याद दिलाने में पार्टी सफल होती है तो ट्रैक रिकॉर्ड को देखकर कह सकते हैं कि बीजेपी फायदे में रहेगी.
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