ग्राउंड रिपोर्टः क्या है कैराना का माहौल?
कैराना...देश की राजधानी दिल्ली से सिर्फ 130 किलोमीटर दूर और फिलहाल यूपी की सियासत की परखनली में उमड़-घुमड़ करती जगह. यूं देखा जाए तो कैराना, शामली जिले का छोटा सा नगर पालिका क्षेत्र है लेकिन लोकसभा सीटों के हिसाब से ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सबसे ज्यादा सुर्खियों में रही सीट है. आने वाले उपचुनावों के मद्देनजर क्या है सूरते हाल, ये समझने क्विंट पहुंचा कैराना.
जैसे-जैसे दिल्ली से कैराना की तरफ बढ़ेंगे, ताजा बन रहे गुड़ की मीठी सुगंध और ट्रॉली में क्षमता से तीन गुना ज्यादा गन्ने लादकर ले जाते ट्रैक्टर आपको एहसास करा देंगे कि आप जिस इलाके में जा रहे हैं वो गन्ने की पैदावार के लिए जाना जाता है. शहर में घुसने के लिए आपको गन्नों से लदे ट्रैक्टर ट्रॉली और भैंसा गाड़ी की लंबी लाइनों के जाम से जूझना पड़ता है, सड़कों पर खूब गहमा-गहमी दिखती है लेकिन चुनावी मौसम में जब आप कैराना में दाखिल होते हैं तो एक चीज कुछ चौंकाती है.
बीजेपी की बढ़ी मुश्किल, लोकदल के कंवर हसन RLD में शामिल
समाजवादी पार्टी की अगुवाई में बने गठबंधन की उम्मीदवार तबस्सुम हसन की राह अब आसान होती दिख रही है. लोक दल के टिकट पर तबस्सुम को चुनौती दे रहे उनके देवर कंवर हसन ने अपना नामांकन वापस ले लिया है.
इससे पहले तबस्सुम के बेटे नाहिद ने अपने चाचा कंवर हसन को मनाने की कोशिश की थी. लेकिन वह नहीं माने थे और उन्होंने लोक दल के टिकट पर अपना नामांकन दाखिल कर दिया था. कंवर हसन जोर-शोर से क्षेत्र में प्रचार भी कर रहे थे. लेकिन अब हर में छिड़ी रार थम चुकी है. ऐसे में अब साफ है कि उपचुनाव में गठबंधन उम्मीदवार तबस्सुम हसन की राह और भी आसान हो गई है.
बता दें कंवर हसन ने साल 2014 में बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ा था. उस दौरान उन्हें करीब डेढ़ लाख वोट मिले थे. वहीं इसी चुनाव में तबस्सुम के बेटे और एसपी उम्मीदवार नाहिद हसन को साढ़े तीन लाख वोट मिले थे.
ना झंडे-ना बैनर, ना चुनावी शोरगुल
वोटिंग डे का काउंटडाउन शुरू हो चुका है. लेकिन शामली से कैराना तक चुनावी शोर सुनाई नहीं देता. हां, शामली शहर के बीचों-बीच बने बीजेपी के चुनावी कार्यालय और बाजार की इक्का-दुक्का दुकानों पर लगे बीजेपी के झंडे कैराना सीट पर उपचुनाव का संकेत देते हैं.
चुनाव जैसा माहौल नहीं लग रहा. बैनर-झंडे भी उतने नहीं दिख रहे, जितना चुनावों में दिखते हैं. हो सकता है कि उपचुनाव की वजह से ऐसा हो. बीजेपी की दोनों जगह (केंद्र और राज्य) में सरकार है. इसलिए झंडे भी इन्हीं के नजर आ रहे हैं.आमिर रियाज, व्यापारी
लोगों का कहना है कि इस बार हो रहे उपचुनावों में चुनाव जैसा माहौल नहीं लग रहा.
कैराना की सियासत के दो केंद्र, कलस्यान चौपाल और हसन चबूतरा
शामली से करीब 15 किलोमीटर दूर बसा है कैराना. यहां मेन चौराहे पर ही एक ओर बड़ा सा गेट है, जिसके बोर्ड पर लिखा है कलस्यान चौपाल. यही चौपाल इन दिनों बीजेपी का चुनावी कार्यालय बनी हुई है. यहां पहुंचने पर पता चला कि कैराना की सियासत के दो केंद्र हैं हिंदू गुर्जरों की कलस्यान चौपाल और मुस्लिम गुर्जरों का हसन चबूतरा.
कैराना की सियासत कलस्यान चौपाल और हसन चबूतरा इन्हीं दो जगहों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. सियासत एक बार फिर इतिहास को दोहरा रही है. कैराना की राजनीति के धुर विरोधी बीजेपी के हुकुम सिंह और एसपी के मुनव्वर हसन जब आमने-सामने होते थे, तो कलस्यान चौपाल और हसन चबूतरे पर ही दोनों वर्गों के लोग जुटते थे और यहीं रणनीति तय होती थी.
इस बार इन्हीं दो परिवारों की महिलाएं चुनावी मैदान में आमने-सामने हैं. लेकिन रणनीति चौपाल और चबूतरे से ही तय हो रही है. बीजेपी ने दिवंगत सांसद हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतारा हैं, वहीं एसपी-बीएसपी-आरएलडी-कांग्रेस गठबंधन की ओर से तबस्सुम हसन पर दांव लगाया गया है.
दोनों ही महिलाओं को राजनीति विरासत में मिली है.
ध्रुवीकरण का आखिरी दांव
कैराना में अजीब किस्म का माहौल है. कुछ है जो खामोश है. सब सामने नहीं आ जाता. आपको काफी कुछ समझना पड़ता है. हाव-भाव से, इशारों से और बातचीत के सिरों से. इसकी वजह भी है. बीते चुनावों में यहां वोटों के लिए खूब ध्रुवीकरण हुआ, जिसने दोनों समुदायों के बीच खटास पैदा कर दी. कैमरे पर बात करने पर यहां लोग पीछे हट जाते हैं.
ये शायद दो समुदायों के बीच बढ़ी खटास का ही खौफ है कि हिंदू हो या मुस्लिम वो दबी जुबान में ही सियासी माहौल बताते हैं.
मुनव्वर साहब (तबस्सुम के पति) का सम्मान है कैराना में. उन्होंने हिंदू-मुस्लिम सबके लिए काम किया. बीजेपी ने कैराना में कोई काम नहीं किया. इसीलिए सबने मिलकर मैडम को उम्मीदवार बनाया. कंवर हसन (तबस्सुम के देवर) परिवार के आदमी हैं, लेकिन वो निर्दलीय खड़े हो गए. उम्मीद है वो वोटिंग के दिन तक मान जाएंगे. अगर जाटों का दलितों का आधा वोट भी मिल गया तो गठबंधन की जीत पक्की है. इस बार तो तबस्सुम मैडम के जीतने के चांस हैं.शम्सुद्दीन
दूसरी ओर, लोगों का ये भी मानना है कि कैराना में विकास कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं. यहां सिर्फ ‘हिंदू-मुसलमान’ चलता है. हसन चबूतरे के बिल्कुल पास ही परचून की दुकान चलाने वाले संदीप बाल्मीकि कहते हैं,
कैराना में कोई मुद्दा नहीं चलता. कितने भी दल मिल जाएं. कुछ भी हो जाए. अभी लोग खूब कहें कि इनका (तबस्सुम हसन) का माहौल चल रहा है. लेकिन वोटिंग के आखिरी दिन चलेगा ‘हिंदू-मुसलमान’ ही. और अगर हिंदू-मुसलमान चला तो मृगांका की जीत पक्की है.
लोगों का मानना है कि कैराना में आखिरी दांव ध्रुवीकरण का ही चलता है, जिसे दोनों समुदायों से ताल्लुक रखने वाले नेता अपने-अपने हिसाब से चलते हैं.
बता दें कि साल 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे की वजह से वोटों का ध्रुवीकरण हुआ था. इसके बाद साल 2014 के आम चुनावों में बीजेपी नेता हुकुम सिंह को बड़ी जीत हासिल हुई थी. इस जीत के बाद ही हुकुम सिंह ने कैराना से हिंदुओं के पलायन के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था.
निर्णायक होते हैं जाट और मुस्लिम वोट
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त कैराना लोकसभा क्षेत्र में कुल 15,31,767 वोटर थे. अब यह संख्या करीब 17 लाख तक पहुंच चुकी है. इसमें करीब 5 लाख मुसलमान वोटर हैं. इस सीट पर अब तक कुल 14 बार चुनाव हुए हैं. इनमें 6 बार मुसलमान उम्मीदवार ने जीत दर्ज कराई है. इनके अलावा यहां पर 4 लाख पिछड़े (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य) और 2.5 लाख दलित वोटर हैं.
लेकिन इन सबके बीच लगभग 1.5 लाख जाट वोटरों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. जाट वोट इस सीट पर निर्णायक भूमिका में माने जाते हैं. राजनीति के जानकार बताते हैं कि हुकुम सिंह के तीन बार विधायक और एक बार सांसद बनने के पीछे जाट वोटरों का भी बड़ा हाथ रहा है.
बहरहाल, हार और जीत का फैसला तो 31 मई को काउंटिंग के दिन ही होगा. उसी दिन तय होगा कि कैराना में कमल फिर खिलेगा, या फिर फूलपुर और गोरखपुर के बाद महागठबंधन एक बार फिर अपनी ताकत दिखाएगा.
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