कांग्रेस (Congress) को दो हाई प्रोफाइल लोगों का साथ मिला है. जिग्नेश मेवानी (Jignesh Mevani) जो गुजरात के वडगाम से निर्दलीय विधायक हैं, उन्होंने कांग्रेस को समर्थन दिया है और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन (JNUSU) के पूर्व छात्र नेता कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) ने पार्टी ज्वाइन की है.
इसमें कोई शक नहीं की जिग्नेश मेवानी और कन्हैया कुमार दोनों युवा हैं और दक्षिणपंथी राजनीति को लेकर अपने विरोध के लिए जाने जाते हैं. कन्हैया कुमार की कांग्रेस में एंट्री में महत्वपूर्ण रोल प्रशांत किशोर का बताया जा रहा है. दोनों के बीच जेडीयू के पूर्व सांसद पवन वर्मा के आवास पर मुलाकात हुई थी.
पार्टी में शामिल होने के बाद यह लगभग तय है कि ये दोनों नेता यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में आगामी विधानसभ चुनावों में प्रचार करेंगे.
हालांकि इनकी एंट्री का असर क्या होगा, इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है:
उनके प्रभाव के इलाकों में कांग्रेस को कितना फायदा होगा?
कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर इससे क्या फायदा होगा?
इन दोनों नेताओं को इससे क्या फायदा होगा?
पहला सवालः इनके प्रभाव के इलाकों में कांग्रेस को कितना फायदा?
जिग्नेश मेवानी
जिग्नेश मेवानी अभी उत्तरी गुजरात के बनासकांठा जिले की वडगाम सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्होंने यह सीट कांग्रेस के समर्थन से 2017 के विधानसभा चुनावों में जीती थी. यह कांग्रेस के लिए एक मजबूत सीट विधानसभा सीट थी, लेकिन पार्टी ने मेवाणी को इस सीट पर समर्थन दिया, इसके बदले उन्होंने पूरे राज्य में कांग्रेस का समर्थन किया. 2016 में ऊना में दलितों के साथ हुई हिंसा के बाद राज्य में हुए प्रदर्शनों का उन्होंने नेतृत्व किया. वे गुजरात में दलितों के जमीन के हक के लिए भी लड़ते रहे हैं.
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को गुजरात में 53 फीसदी दलितों के वोट मिले थे, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के डेटा के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में गुजरात में 67 फीसदी दलितों ने कांग्रेस को वोट दिया. ऐसा उस वक्त हुआ जब ओबीसी, उच्च जातियों और आदिवासियों का मोह इस दौरान पार्टी से भंग हुआ.
मेवानी की वडगाम सीट 182 में से उन 9 विधानसभा सीटों में शामिल है, जहां लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को लीड मिली थी, यह कहना मुश्किल है कि पार्टी को दलितों का इतना समर्थन मेवानी की वजह से मिल रहा है या फिर पार्टी इस क्षेत्र पहले से मजबूत रही है, इस कारण. हालांकि ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी को मेवाणी की वजह से एक हद तक फायदा हुआ.
राष्ट्रीय स्तर पर मेवाणी के लोकप्रियता सीमित है. वह गुजरात से बाहर ज्यादा जाने नहीं जाते हैं. दलित कार्यकर्ताओं के बीच भी वो आंबेडकरवादी से ज्यादा लेफ्टिस्ट के तौर पर स्वीकार किए जाते हैं.
कन्हैया कुमार
कन्हैया कुमार, बिहार के बेगुसराय के सीपीआई के एक वफादार परिवार से आते हैं और इसी सीट से सीपीआई के टिकट पर 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं. उन्हें बीजेपी के गिरिराज सिंह ने बड़े अंतर से हराया था. हालांकि वोटों के मामले में आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन के प्रत्याशी से वे इस चुनाव में आगे रहे थे. उसके बाद से नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उन्होंने बिहार में कई रैलियां कीं, हालांकि पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान वो ज्यादा नहीं दिखे.
मेवाणी, जिनकी राजनीति गुजरात में दलितों की बीजेपी के प्रति घृणा के साथ तालमेल में चली है, कन्हैया जिस भूमिहार समुदाय से आते हैं, वो बीजेपी की भारी समर्थक है और आमतौर पर आरजेडी विरोधी.
कुमार की अपनी सीट बेगुसराय यूपीए के तहत आरजेडी के कोटे में आती है. इसलिए अगर भविष्य में कांग्रेस बिहार में अगर अकेले चुनाव लड़ती है और अपने उच्च जातियों वाले वोटबैंक को वापस करने की कोशिश करती तो शायद कन्हैया वहां कुछ मददगार साबित हो सकते हैं. लेकिन तब तक बेगुसराय में सफलता या असफलता उनकी लोकप्रियता से ज्यादा बीजेपी के विरोध में किस तरह का गठबंधन तैयार होता है, इस पर निर्भर करेगी.
कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर कितना फायदा होगा?
यहां एक व्यवहारिक आकलन करना चाहिए. इन दोनों नेताओं के महत्व को न ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर आंकने की है, ना ही इसे एकदम खारिज करने की.
एक क्षेत्र है, जहां ये दोनों नेता कांग्रेस को फायदा पहुंचा सकते हैं, वो है विपक्ष पार्टियों में कांग्रेस को मजबूत करने में.
मेवानी और कुमार दोनों हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ मजबूती से बोलते हैं. इसलिए ऐसे वक्त में जब टीएमसी, एआईएमआईएम, और समाजवादी पार्टी जैसे दल जब कांग्रेस की दक्षिणपंथी ताकतों के साथ मुकाबले की क्षमता को लेकर सवाल उठा रहे हैं , ऐसे में ये दोनों नेता काम आ सकते हैं. खासकर बीजेपी विरोधी युवा वोटरों के बीच यह संदेश वे पहुंचा सकते हैं कि कांग्रेस ही देश में मुख्य बीजेपी विरोधी ताकत है.
इसका एक और ऐंगल है. कांग्रेस में वे रूढ़िवादी विचारधारा वाले पुराने नेताओं के मुकाबले राहुल गांधी के नेतृत्व वाले सेंटर -लेफ्ट धड़े को मजबूती दे सकते हैं. हालांकि एक खास तरह के वोटर के बीच मैवमई और कन्हैया ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं होंगे. सत्ता में आने के लिए बीजेपी को 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट देने वाले वोटरों की कांग्रेस को जरूरत होगी. इस वोटर वर्ग को रिझाने के लिए लिए मेवाणी और कन्हैया उपयोगी चेहरे साबित नहीं होंगे.
जिग्नेश और कन्हैया कांग्रेस के पक्ष में इन वोटों को कर सकते हैं जो पहले से ऐंटी बीजेपी हैं, लेकिन ऐसा होना लगभग असंभव है कि वे बीजेपी को पहले वोट दे चुके लोगों को कांग्रेस की आकर्षित कर पाएंगे. उनकी राजनीतिक के लिहाज से देखें, तो जमीनी स्तर पर समाजिक आंदोलन होने के बाद ही ऐसा बड़ा वैचारिक बदलाव हो सकता है.
उदाहरण के तौर पर एक युवा वोटर हो सकता है कि अर्थव्यवस्था को लेकर असफलताओं के लेकर बीजेपी से नाराज हो, लेकिन वह बीजेपी को राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर समर्थन करता हो. ऐसे लोग कन्हैया या मेवाणी के कारण अपना वोट नहीं बदलेंगे.
इन दोनों के साथ खतरा ये है कि वे कांग्रेस को बीजेपी विरोधी हो चुके वोटरों को अपने पाले में लाने में मदद कर सकते हैं या फिर पहले से बीजेपी विरोधी वोटरों को अपने खेमे में बनाए रख पाएं. लेकिन ये दोनों फ्लोटिंग वोटर्स को लेकर ज्यादा मदद नहीं कर पाएंगे.
मेवाणी और कुमार को क्या फायदा होगा?
मेवानी को वडगाम विधानसभा सीटे से 2022 में फिर से निर्वाचित होने का मौका मिलेगा, हो सकता है पहले कांग्रेस वहां अपना प्रत्याशी उतारने का सोच रही हो. अब मेवाणी ने अपना नामांकन वडगाम सीट से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर पक्का कर लिया है. दलितों के अधिकारों और उनके खिलाफ होने वाले अत्याचारों से जुड़ी मेवाणी की राजनीति के लिए कांग्रेस का बड़ा प्लैटफॉर्म फायदेमंद साबित हो सकता है.
कन्हैया कुमार पर भी वहीं बातें लागू होती हैं. वह कांग्रेस जॉइन करने वाले जेएनयू के पहले लेफ्ट नेता नहीं हैं और ना ही आखिरी होंगे.
1975-77 तक जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष रहे डीपी त्रिपाठी कांग्रेस में शामिल हुए थे और बाद में एनसीपी में गए. त्रिपाठी का संबध स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) से था.
शकील अहमद खान, जो 1992-93 के बीच जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे थे, उन्होंने भी बाद में कांग्रेस जॉइन किया था और बिहार से विधायक बने थे.
बत्ती लाल बैरवां, 1996 -98 के बीच एसएफआई से जुड़े थे और बाद में कांग्रेस में शामिल हुए. बैरंवां बाद में कांग्रेस के एसएसी/एसटी/ओबीसी यूथ सेल के अध्यक्ष बनाए गए थे.
सैयद नासिर हुसैन जो 1999-2000 के दौरान एसएफआई के अध्यक्ष थे, फिलहाल कांग्रेस से राज्यसभा सांसद हैं.
2007-08 के दौरान जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके संदीप सिंह और 2017-18 के अध्यक्ष रह चुके मोहित पांडे भी फिलहाल कांग्रेस से जुड़े हैं और प्रियंका गांधी के साथ यूपी के लिए काम कर रहे हैं.
बीते समय में और वर्तमान में कई लेफ्ट विचारधारा से जुड़े स्टूडेंट यूनियन लीडर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीति के लिए कांग्रेस को एक बेहतर विकल्प मानते हैं. ऐसा शायद इसलिए भी है क्योंकि सीपीआई और सीपीआई (एम) जैसी पार्टियों में आगे बढ़ने की संभावना काफी कम रह गई है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)