लगभग ढाई दशक तक कांग्रेस (Congress) पार्टी का हाथ और साथ थामे रहने वाले कपिल सिब्बल (Kapil Sibal) ने 16 मई 2022 को कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और समाजवादी पार्टी (SP) के समर्थन से उत्तर प्रदेश से राज्यसभा (Rajya Sabha) में प्रवेश करने के लिए तैयार हैं. सिब्बल और कांग्रेस के बीच ऐसा क्या हुआ जो ठीक नहीं रहा? एसपी (समाजवादी पार्टी) के समर्थन से वो राज्यसभा में एंट्री करना चाहते हैं. विपक्ष के लिए इस बात के क्या मायने हैं? इन्हीं दो सवालाें के जवाब देने का प्रयास इस स्टोरी में किया जा रहा है.
लेकिन उससे पहले एक नजर डालते हैं कपिल सिब्बल के राजनीतिक सफर पर : दिलचस्प बात यह है कि जब वे (सिब्बल) कांग्रेस में थे तब भी कई गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने सिब्बल को उठाने में अहम भूमिका निभाई थी.
कपिल सिब्बल का राजनीतिक सफर और क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका
कपिल सिब्बल का उदय बतौर राजनेता उनके कानूनी करियर से जुड़ा हुआ है. जाने-माने प्रतिष्ठित कानूनविद और पंजाब के पूर्व एडवोकेट जनरल हीरा लाल सिब्बल के सबसे छोटे बेटे हैं कपिल सिब्बल. उनके (कपिल) तीन भाइयों का चयन सिविल सर्विस में हो गया था, ऐसे में कपिल सिब्बल अपने पिता की कानूनी विरासत के प्रमुख उत्तराधिकारी थे.
1972 में कपिल सिब्बल बार एसोसिएशन में शामिल हुए, 1983 में वे एक वरिष्ठ अधिवक्ता बने और 1989-90 के बीच एडिशनल सॉलिसिटर जनरल रहे. सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह मुकाम (एडिशनल सॉलिसिटर जनरल) उन्होंने एक गैर-कांग्रेसी सरकार के दौरान हासिल किया था.
1996 के लोकसभा चुनाव से पहले कपिल सिब्बल ने कांग्रेस का हाथ थामा और दक्षिण दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन बीजेपी की सुषमा स्वराज से वे हार गए.
हालांकि ऐसे दौर में जब प्राइवेट न्यूज चैनल बढ़ने लगे थे तब वे (सिब्बल) एक महत्वपूर्ण भूमिका में थे. उस समय कपिल सिब्बल पार्टी के एक प्रमुख प्रवक्ता और मीडिया चेहरा बन गए थे.
1998 में लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल की मदद से कपिल सिब्बल ने बिहार से राज्यसभा में एंट्री की थी. लालू कई मामलों में उलझे हुए थे, ऐसे में समय के साथ सिब्बल-लालू के संबंध गहरे होते गए.
2004 में चांदनी चौक लोकसभा क्षेत्र से सिब्बल ने चुनाव लड़ा. अगर जनता दल (सेक्युलर) के नेता शोएब इकबाल ने अपना नाम वापस नहीं लिया होता और समर्थन नहीं किया होता तो सिब्बल की जीत संभव न होती. मटिया महल के विधायक शोएब इकबाल को 1998 और 1999 दोनों चुनाव में 25 फीसदी से ज्यादा (ज्यादातर पुरानी दिल्ली के मुसलमानों से) वोट मिले थे और दोनों ही बार कांग्रेस हार गई थी.
हालांकि सिब्बल ने 2004 में इकबाल को नाम वापस लेने के लिए 'मना' लिया था और इसकी वजह से उन्होंने बीजेपी प्रत्याशी स्मृति ईरानी पर भारी वोटों से जीत दर्ज की थी. 2009 के चुनाव में सिब्बल ने एक बार फिर जीत दर्ज की लेकिन 2014 के चुनाव में वे तीसरे स्थान पर रहे.
यूपीए 1 (UPA-1) के दौरान सिब्बल को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री बनाया गया था और यूपीए 2 (UPA-2) में पहले उन्हें एचआरडी (मानव संसाधन विकास) और बाद में दूरसंचार मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई थी. जब वे टेलीकॉम मिनिस्टर थे तब विवाद भी उनका हिस्सा थे. विशेष तौर पर 2 जी घोटाले को लेकर उन्होंने जो "जीरो लॉस" वाली टिप्पणी की थी और ऑनलाइन कंटेंट को रेग्युलेट करने की जो बात कही थी उसको लेकर विवाद व हंगामा हुआ था.
2016 में चूंकि उत्तरप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के पास पर्याप्त संख्या नहीं थी इसलिए सिब्बल ने समाजवादी पार्टी के सपोर्ट से राज्यसभा में एंट्री की थी.
लेकिन इस बार बिना कांग्रेस की मदद से पूरी तरह से एसपी के समर्थन से अब सिब्बल बतौर निर्दलीय उम्मीदवार उच्च सदन में एंट्री करने लिए तैयार हैं.
महत्वपूर्ण मौकों पर पार्टी को प्रदान की गई कानूनी मदद के कारण जिस तरह पहले आरजेडी के साथ कपिल सिब्बल के संबंध गहरे हुए थे उसी तरह एसपी के साथ संबंध प्रगाढ़ हुए हैं. 2017 में अखिलेश यादव और उनके संरक्षक मुलायम सिंह यादव के बीच चुनाव चिन्ह को लेकर विवाद हुआ था तब अखिलेश यादव को और हाल ही में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहम्मद आजम खान को जमानत दिलाने में सिब्बल ने मदद उनकी है.
एसपी और आरजेडी के अलावा सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में TMC यानी तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का भी प्रतिनिधित्व किया है. सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों को ही नहीं बतौर वकील सिब्बल ने प्रमुख मामलों में मुस्लिम संगठनों का भी प्रतिनिधित्व किया है.
उदाहरण के लिए ट्रिपल तलाक और बाबरी मस्जिद, दोनों मामलों में सिब्बल ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का प्रतिनिधित्व किया. कहा जाता है कि कांग्रेस के उन समूहों, जिनको इस बात का डर था कि इसका इस्तेमाल पार्टी को "हिंदू विरोधी" (anti-Hindu) के रूप में चित्रित करने के लिए किया जाएगा, उनके दबाव में सिब्बल ने खुद को इससे अलग कर लिया था.
जहांगीरपुरी विध्वंस के खिलाफ अपनी याचिका में सिब्बल ने हाल ही में जमीयत उलेमा-ए-हिंद का प्रतिनिधित्व किया था.
सिब्बल-कांग्रेस के रिश्तों में दरार
नवंबर 2020 में कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल का निधन हो गया था, यह एक टर्निंग पॉइंट था जहां से सिब्बल और कांग्रेस के बीच समीकरण बदलने लगे थे. सिब्बल को पटेल का करीबी माना जाता था और पटेल के राज्यसभा के चुनाव को चुनौती देने वाली बीजेपी की याचिका में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
पार्टी और सिब्बल के बीच पटेल एक महत्वपूर्ण सेतु की तरह थे लेकिन पटेल के निधन के बाद वह ब्रिज टूट गया. इसके बाद सिब्बल ने पार्टी की स्थिति के बारे में और ज्यादा खुलकर बोलना शुरु कर दिया. एक तथ्य यह भी है कि उन्हें राहुल गांधी का साथ भी ठीक ढंग से नहीं मिला जिससे मामला और भी ज्यादा खराब हो गया.
सिब्बल ने अगस्त 2021 में एक डिनर का आयोजन किया था, जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों के कई नेताओं समेत कांग्रेस के कुछ नेताओं ने भी शिरकत की थी, जो जी-23 (G-23) का हिस्सा थे.
डिनर में मौजूद कई लोगों ने गांधी परिवार की खुले तौर पर आलोचना की थी.
पार्टी नेतृत्व के बारे में सिब्बल द्वारा की गई आलोचनात्मक टिप्पणी के बाद सितंबर 2021 में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में सिब्बल के निवास के बाहर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया था.
क्विंट ने मार्च 2022 में ही बताया था कि कांग्रेस आलाकमान सिब्बल को छोड़कर लगभग सभी जी-23 नेताओं को एडजस्ट करने के लिए तैयार था.
सिब्बल और एक स्टेट यूनिट के बीच कुछ वित्तीय विवादों के भी आरोप थे.
मई में चिंतन शिविर का आयोजन किया गया था. जिसमें मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, शशि थरूर, पृथ्वीराज चव्हाण जैसे जी-23 सदस्यों और अन्य प्रमुख कमेटियों को शामिल किया गया था और सिब्बल को इससे बाहर छोड़ दिया गया था.
इस सप्ताह की शुरुआत में कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा बनाई गई टास्क फोर्स में इनमें से कई नेताओं को शामिल किया गया है.
सिब्बल, कांग्रेस और बचे हुए विपक्ष के लिए आगे क्या?
औपचारिक रूप से सिब्बल एसपी में शामिल नहीं हुए हैं. वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार राज्यसभा में एंट्री करेंगे. उनके (सिब्बल के) एसपी में औपचारिक रूप से शामिल होने से कुछ मायनों में कांग्रेस के लिए हालात पहले की तुलना में कहीं अधिक जटिल हो सकती हैं.
ऐसी संभावना है कि विपक्षी गठबंधन के लिए पिचिंग जारी रखने के लिए वह (सिब्बल) इसे एक मंच के रूप में उपयोग कर सकते हैं. वह एक ऐसे विपक्षी गठबंधन की बात करेंगे जिसका आधार कांग्रेस न हो.
सिब्बल ने अगस्त में जिस डिनर का आयोजन किया था वह उन सभी क्षेत्रीय पार्टियों के बीच अपने दबदबे को प्रदर्शित करने के लिए पहला कदम था, जो कांग्रेस के साथ गठबंधन करते थे जैसे कि डीएमके, बीजेपी की धुर विरोधी लेकिन यूपीए से संबद्ध न रहने वाली पार्टी एसपी, टीएमसी और आरजेडी. इसके साथ ही न इधर न उधर की पार्टियां जैसे कि वाईएसआरसीपी, टीआरएस, AAP, बीजेडी, एसएडी और टीडीपी. ये पार्टियां 2024 के लिहाज से कांग्रेस के लिए काफी अहम होंगी, लेकिन ये इसपर निर्भर करेगा कि कांग्रेस विधानसभा चुनावों में कैसा प्रदर्शन करती है.
यदि पार्टी कुछ राज्यों में जीतती है और यह दिखाती है कि वह बीजेपी को हरा सकती है तो इससे सिब्बल को मनाने और उन्हें शामिल करने की संभावना दूर होती चली जाएगी. वहीं कांग्रेस लड़खड़ाती रही या संघर्ष करती रही तो विपक्ष के लिए सिब्बल मॉडल अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है. ऐसे में कांग्रेस के कुछ और नेता उनके नक्शेकदम पर चल सकते हैं.
वहीं जी-23 सदस्यों की बात करें तो सिब्बल के जाने से यह संख्या 20 हो गई है. क्योंकि सिब्बल के पार्टी छोड़ने से पहले योगानंद शास्त्री एनसीपी में शामिल हो गए थे और जितिन प्रसाद ने बीजेपी का दामन थाम लिया था.
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