कर्नाटक में सौदेबाजी का स्तर तय कर दिया गया है. कुमारस्वामी ने कहा है कि विधायकों को 100 करोड़ रुपये और मंत्री पद का ऑफर दिया जा रहा है. बहुत से लोग 100 करोड़ रुपये की बात पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं. उनकी नजर में 100 करोड़ रुपये बहुत बड़ी रकम है.
उधर, बीजेपी के केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 100 करोड़ रुपये की पेशकश को कुमारस्वामी की 'कल्पना' करार दिया है. दूसरे केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि बीजेपी खरीद-फरोख्त में यकीन नहीं रखती है. यह कहने की बात है. नेताओं की कथनी और करनी में अंतर होता है.
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राज्यपाल ने बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया है. बीजेपी के पास 8 विधायक कम हैं. दो निर्दलीय मिल भी जाएं, तब भी 6 विधायकों का अंतर एक बड़ा अंतर है. ऐसे में विधायक तोड़ने ही पड़ेंगे. उनकी वफादारी खरीदनी ही पड़ेगी.
इस चुनाव में जिस हिसाब से पैसे खर्च किए गए हैं, उस हिसाब से सरकार बनाने के लिए अतिरिक्त 2-2.5 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा सकते हैं. नतीजों से पहले यह चर्चा भी चल रही थी कि त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में पैसे का बड़ा खेल होने वाला है. इसे समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर नजर डालिए.
अब तक का सबसे महंगा चुनाव
कर्नाटक चुनाव में इस बार पानी की तरह पैसा बहाया गया है. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (CMS) के सर्व के मुताबिक, इस बार सभी दलों ने मिलाकर 9,500 से 10,500 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. यह 2013 की तुलना में दोगुना से अधिक है. इसमें प्रधानमंत्री की टीम की तरफ से प्रचार में किया गया खर्च शामिल नहीं है.
CMS के अनुमान के मुताबिक, 2019 के चुनाव में 50,000-60,000 करोड़ रुपये के बीच खर्च हो सकता है. 2014 में यह खर्च 30,000 करोड़ रुपये था. CMS की यह गणना काफी हद तक सच्चाई के करीब है.
चुनाव से ठीक पहले कर्नाटक के एक जानकार से बात हो रही थी. उन्होंने बताया कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राज्यों में होने वाले चुनावी खर्च में जमीन-आसमान का अंतर है. जहां उत्तर प्रदेश में एक उम्मीदवार 1.5-3 करोड़ रुपये में विधानसभा चुनाव लड़ लेता है, वहीं कर्नाटक में 15-20 करोड़ रुपये खर्च होते हैं. उन्होंने बताया कि जब से बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने सियासत में प्रवेश किया है, कर्नाटक में सियासी खर्च बेतहाशा बढ़ा है. लोकसभा चुनाव में जो ठीक से लड़ना चाहता है, उसे 30-40 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं. इस लिहाज से यहां देश में सबसे महंगा चुनाव होता है.
कर्नाटक के 97% नए विधायक करोड़पति हैं
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (ADR) की रिपोर्ट के मुताबिक, कर्नाटक के 221 नए विधायकों में 215 (करीब 97 प्रतिशत) करोड़पति हैं. विधायकों की औसत संपत्ति 35 करोड़ रुपये के करीब है. 2013 की तुलना में यह 8 करोड़ रुपये ज्यादा है.
अमीर विधायकों की लिस्ट में कांग्रेस पहले नंबर पर है. इसके 99% विधायक करोड़पति हैं और उनकी औसत संपत्ति 60 करोड़ रुपये के करीब है. बीजेपी के 98% विधायक अमीर हैं और उनकी औसत संपत्ति 17 करोड़ रुपये है, जबकि जेडीएस के 95% विधायक करोड़पति हैं और उनकी औसत संपत्ति 24 करोड़ रुपये है.
ADR की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, चुनाव में इस बार 883 करोड़पति उम्मीदवार मैदान में थे. इनमें से 208 बीजेपी से, 207 कांग्रेस और 154 जेडीएस से थे. पांच सबसे अमीर उम्मीदवार कांग्रेस से थे, जिनमें से दो की चल-अचल संपत्ति 1000 करोड़ रुपये से अधिक रही. इस चुनाव में पिछली विधानसभा के 184 विधायकों ने फिर से चुनाव लड़ा था. इन नेताओं की औसत संपत्ति 2013 में 26.92 करोड़ रुपये थी. यह संपत्ति 2018 में बढ़कर 44.24 करोड़ रुपये हो गई. पांच साल में उसकी संपत्ति में 17.32 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है.
100 Cr की बोली ज्यादा नहीं, मगर कौन करेगा भुगतान?
जिस राज्य में पैसे का खेल इतना अधिक हो, वहां विधायक खरीदने के लिए 100 करोड़ रुपये की बोली लग रही है, तो यह ज्यादा नहीं है. लेकिन जरा यह सोचिए कि आखिरकार इस पैसे का भुगतान कौन करेगा? इसका जवाब सीधा है. यह पैसा कर्नाटक की जनता से वसूला जाएगा या फिर उन प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी से जिस पर साझा हक जनता का है. मतलब कर्नाटक के साझे हक का सौदा करके ये सियासतदान अपना घर भरेंगे.
ये अकारण नहीं है कि देश में भ्रष्टाचार की लिस्ट में कर्नाटक पहले नंबर पर है. CMS के एक सर्वे में कर्नाटक के 77% लोगों ने बताया कि उन्हें सार्वजनिक सेवाओं के लिए घूस देनी पड़ी है. भ्रष्ट राज्यों की लिस्ट सूची में आंध्र प्रदेश (74%), तमिलनाडु (68%) और महाराष्ट्र (57%) क्रमश: दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर पर हैं.
भूख और गरीबी इतनी अधिक है, क्योंकि नेता भ्रष्ट हैं. इस तरह गौर से देखिएगा तो पाइएगा कि देश में स्थिति इतनी खराब इसलिए है, क्योंकि यहां भ्रष्टाचार इतना अधिक है. इसलिए इस दौर में नैतिकता की बात करना अजीब सा लगता है. आज हमारे नेताओं की सोच ऐसी बन गई है कि सत्ता में रहेंगे, तभी जिंदा रहेंगे. एजेंडा लागू कर सकेंगे. जब सत्ता ही राजनीति का एकमात्र ध्येय बन जाए, तो संकट कितना गहरा है, अंदाजा लगाया जा सकता है.
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