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लखीमपुर खीरी:UP सरकार से राकेश टिकैत की डील- खून के बदले मुआवजा या अच्छी रणनीति?

बीजेपी को चुनाव में हराना राकेश टिकैत की प्राथमिकता नहीं है. यह भले किसान आंदोलन का एक संभावित परिणाम हो

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लखीमपुर खीरी (Lakhimpur Kheri) हिंसा के बाद उत्तर प्रदेश सरकार और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच का गतिरोध भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) के 'हस्तक्षेप' के बाद समाप्त हो गया. लेकिन अब इसी को लेकर किसान आपस में बंट गए हैं.

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दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते के बाद यूपी सरकार ने लखीमपुर खीरी में मारे गए किसानों के परिवारों को 45-45 लाख रुपये का मुआवजा और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने पर सहमति जताई. साथ ही 'दोषियों' के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही गयी. यह राकेश टिकैत और यूपी सरकार के अधिकारियों के बीच प्राइवेट बातचीत का नतीजा था.

प्रदर्शनकारी किसानों के एक गुट को लगता है कि राकेश टिकैत ने बहुत जल्दी और बहुत कम में हार मान ली. जबकि दूसरे गुट का दावा है कि यह टिकैत द्वारा उठाया गया एक व्यावहारिक कदम था.

यह लेख दोनों पक्षों को देखेगा और टिकैत को कैसे देखा जाए, इस पर एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करेगा.

राकेश टिकैत के आलोचक क्या कहते हैं ?

किसान आंदोलन के कुछ समर्थकों ने टिकैत पर 'खून से सना पैसा' लेने का आरोप लगाया है - जैसे खालसा एड के संस्थापक रवि सिंह .

रवि सिंह ने ट्वीट कर कहा कि "जब हम न्याय मांगेंगे तो सभी भारतीय राजनीतिक पार्टियां सिखों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार करेंगी ! मिस्टर राकेश टिकैत ने पूर्ण न्याय की मांग किए बिना 4 मरे सिखों के लिए यूपी सरकार से खून से सना पैसा स्वीकार क्यों किया?

इस आलोचना को तब और बल मिला जब मृतक किसानों में से एक की बहन लवप्रीत सिंह ने कहा कि उनका परिवार "न्याय चाहता है, मदद नहीं".

राकेश टिकैत और यूपी सरकार के बीच 'डील' के एक दिन बाद प्रदर्शनकारी किसानों को थार जीप से कुचलने का एक वीडियो सामने आया. किसानों की ओर से कुछ ने यह भी कहा कि केंद्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्र की जीप से किसानों को कैसे कुचला गया, इस पर साफ वीडियो के मद्देनजर राकेश टिकैत को केंद्रीय मंत्री के इस्तीफे और उनके बेटे आशीष 'मोनू' मिश्र की गिरफ्तारी की मांग पर जोर देना चाहिए था.

राकेश टिकैत को विपक्षी दलों की आलोचना का भी सामना करना पड़ रहा है. उनका सवाल है कि यूपी सरकार ने टिकैत को पीड़ित परिवारों से मिलने की अनुमति क्यों दी जबकि प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव, सतीश चंद्र मिश्रा, भूपेश बघेल, दीपेंद्र हुड्डा आदि विपक्षी नेताओं को जाने से रोका गया.
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राकेश टिकैत के समर्थक क्या कहते हैं ?

राकेश टिकैत के समर्थक मोटे तौर पर तीन तर्क दे रहे हैं:

  1. उनके हस्तक्षेप से पीड़ित परिवारों को अच्छा-खासा मुआवजा मिला. समर्थकों का कहना है कि अगर टिकैत का हस्तक्षेप न होता तो यह इतना आसान नहीं होता.

  2. टिकैत ने विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस कार्रवाई को रोकने में मदद की, विशेष रूप से जब यह आरोप लगाया गया कि किसानों के कारण लखीमपुर में बीजेपी कार्यकर्ताओं की मौत हुई.

  3. यूपी सरकार के साथ टिकैत का 'डील' किसान आंदोलन को अपना भटकने से बचाने के लिए आवश्यक था. क्योंकि इस बात की आशंका थी कि किसानों की लामबंदी लखीमपुर खीरी पर केंद्रित हो जाएगी.

टिकैत के 'डील' को कैसे समझे ?

टिकैत के एक्शन को विपक्षी राजनीति के चश्मे से देखना एक मूलभूत गलती होगी. टिकैत कांग्रेस या समाजवादी पार्टी की तरह बीजेपी के चुनावी विरोधी नहीं हैं.

टिकैत बीजेपी के स्पष्ट वैचारिक विरोधी नहीं हैं, जैसा पंजाब स्थित अधिकांश कृषि संघ या किसानों के आंदोलन का समर्थन करने वाले पंथिक संगठनों की विशेषता है.

बीजेपी को चुनाव में हराना राकेश टिकैत की प्राथमिकता नहीं है. यह भले किसान आंदोलन का एक संभावित परिणाम हो सकता है, जिसका टिकैत केंद्रीय हिस्सा हैं. लेकिन यह उनका प्राथमिक उद्देश्य नहीं है.

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यहां तक कि अगर मोदी सरकार तीन कृषि कानूनों को निरस्त कर देती है तो टिकैत को बीजेपी का समर्थन करने में कोई दिक्कत नहीं होगी. उनकी प्राथमिक चिंता चुनावी नतीजे नहीं बल्कि पश्चिमी यूपी में अपने जनाधार के हितों की रक्षा करना है.

इन्हीं हितों को आगे बढ़ाने के लिए राकेश टिकैत ने मुजफ्फरनगर हिंसा के दौरान बीजेपी का साथ दिया था और कथित तौर पर सांप्रदायिक भाषण दिए और आज उन्हीं हितों के लिए टिकैत सांप्रदायिक सद्भाव का उपदेश दे रहा है और रैलियों में 'अल्लाहु अकबर' और 'जो बोले सो निहाल' के नारे लगा रहे हैं.

राकेश टिकैत बीजेपी विरोधी राजनीति के मसीहा नहीं हैं और उन्होंने होने का दावा भी नहीं किया है. लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि वह 'बिके' हुए हैं ?

किसान आंदोलन की दृष्टि से इसका जवाब है नहीं. इसकी संभावना नहीं है कि टिकैत तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की अपनी मांग से पीछे हटेंगे क्योंकि ऐसा करने से उनकी राजनीति कमजोर होगी.

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उत्तर प्रदेश सरकार के साथ टिकैत के 'डील' को 26 जनवरी के दिन लाल किला में हुई हिंसा के बाद उनके हस्तक्षेप के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. उस समय, टिकैत के आंसुओं ने किसान आंदोलन को फिर से जिन्दा कर दिया था और विरोध स्थलों पर सरकार की संभावित कार्रवाई को रोका था.

चाहे बात जनवरी की हो या आज की, टिकैत का एक उद्देश्य 'हिंदू बनाम सिख' के ध्रुवीकरण को रोकना रहा है. लखीमपुर खीरी हिंसा में मारे गए सभी किसान सिख हैं और इससे सिख किसानों में बहुत दुख है.

टिकैत के करीबी सूत्रों ने खुलासा किया कि उन्हें लखीमपुर की और पंजाब से सिख संगठनों की भीड़ और उनपर यूपी सरकार तथा केंद्र द्वारा कार्रवाई की आशंका थी.

दुखद वास्तविकता यह है कि टिकैत जैसे हिंदू जाट किसानों की लामबंदी की तुलना में सिख किसानों द्वारा लामबंदी को सरकार और उसके सहयोगी मीडिया द्वारा हमेशा अधिक संदेह की नजर से देखा जाएगा.

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याद रहे कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पंजाब में सभी किसान यूनियन के गतिविधियों पर भी आठ साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया था. इसके विपरीत उसी समय राकेश टिकैत के पिता और प्रसिद्ध किसान यूनियन नेता महेंद्र सिंह टिकैत उत्तर भारत में अपने कुछ सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन कर रहे थें. इसमें दिल्ली के बोट क्लब में प्रसिद्ध विरोध प्रदर्शन भी शामिल था.

टिकैत का उद्देश्य बीजेपी के खिलाफ चौतरफा युद्ध छेड़ने के बजाय कृषि कानूनों पर ध्यान केंद्रित रखना है. हालांकि इस बीच वह बीजेपी की क्षमता को कम करके आंकने की गलती कर सकते हैं तो दूसरी ओर वह लखीमपुर खीरी में हुई मौतों पर सिख किसानों के दुख को भी कम आंक सकते हैं.

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