14 जून को मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कोरोना की दूसरी लहर के बाद अपनी कैबिनेट की बैठक ली. लेकिन खास बात ये है कि कैबिनेट बैठक भोपाल स्थित मंत्रालय में नहीं, बल्कि सिहोर के उसी रिजॉर्ट में हुई जहां करीब एक साल पहले शिवराज के नेतृत्व में बीजेपी विधायक इकट्ठे हुए थे. तब कांग्रेस नेता कमलनाथ की सरकार संकट में आ गई थी और बीजेपी को जरूरत थी कि वो अपने विधायकों को एकजुट रखे. बीजेपी सफल हुई, कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिरी और शिवराज (Shivraj singh chauhan) के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी. लेकिन अब भोपाल के राजनीतिक गलियारों में शिवराज के नेतृत्व को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई है.
दिल्ली से लेकर भोपाल तक मध्य प्रदेश की राजनीति के दिग्गजों का उठना-बैठना, मिलना-मिलाना जारी है. गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा दिल्ली आकर प्रभात झा, कैलाश विजयवर्गीय से मिल रहे हैं, कैलाश विजयवर्गीय जाकर केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल से मिल रहे हैं, प्रहलाद पटेल से दिल्ली आकर प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, सुहास भगत मिल रहे हैं. उठक-बैठक करने वाले इन सारे नेताओं को शिवराज विरोधी गुट माना जाता रहा है.
अंदरूनी कलह की चर्चा क्यों शुरू हुई?
मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने बीते हफ्ते शिवराज सरकार की कैबिनेट मीटिंग के बीच में ही नर्मदा घाटी विकास परियोजनाओं में बजट से ज्यादा छूट दिए जाने के प्रस्ताव का विरोध किया. विरोध इस कदर बढ़ा कि कुछ विधायक नरोत्तम के पाले में, तो वहीं कुछ विधायक शिवराज सिंह की तरफ से बोलने लगे. शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में कैबिनेट मीटिंग के दौरान इस तरह का विवाद पहली बार खड़ा हुआ. और इसी के बाद गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा दिल्ली गए और कई नेताओं से मुलाकात की.
दमोह उपचुनाव में हार, दबाव का कारण
दमोह उपचुनाव बड़े मार्जिन से हारने के बाद शिवराज सिंह चौहान पर दबाव है. प्रदेश संगठन, मंत्री-तंत्री, दल-बल लगाने के बाद भी चुनाव बीजेपी नहीं बचा सकी. जीते हुए कांग्रेस उम्मीदवार को पार्टी में शामिल कराया गया और बीजेपी में आने के बाद भी उम्मीदवार राहुल सिंह हार गए. इस चुनाव में शिवराज सिंह चौहान की साख दांव पर थी.
कांग्रेस की सरकार गिरने और बीजेपी की सरकार बनने में नरोत्तम की अहम भूमिका
वहीं मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में जो सियासी बदलाव हुआ उसके पीछे गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने अहम भूमिका निभाई थी. राजनीतिनामा पुस्तक के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी बताते हैं कि 'मध्य प्रदेश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के अंदर इस तरह की बागवत पहले से होती रही हैं. सबसे बड़ी घटना उमा भारती के वक्त हुई थी, जिस तरह से उमा भारती वाले किस्से को केंद्रीय नेतृत्व ने दबा दिया. उसके बाद से मध्य प्रदेश बीजेपी में इस तरह की सुगबुगाहट देखने को नहीं मिली है. इस घटना के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि पार्टी में शिवराज के विरोधी और मुख्यमंत्री बनने का सपना पाल रहे लोग आगे आए हैं.'
सीएम की कुर्सी पर कई लोगों की नजर
दीपक तिवारी बताते हैं कि 'मुख्यमंत्री बनने की कतार में नरोत्तम मिश्रा, कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल हैं. इस बार ऐसा लग रहा है कि शिवराज सिंह को लेकर भारी विरोध है, पार्टी में भी और जनता में भी. इसलिए ऐसा माहौल बन रहा है कि सीएम को बदला जाए.'
मेरा ऐसा मानना है कि मध्य प्रदेश में येन-केन-प्रकारेण मुख्यमंत्री बने रहेंगे. वो पहले भी इस तरह की परिस्थितियों से बाहर निकले हैं और इस बार भी निकल जाएंगे. ऐसा इसलिए है क्यों कि शिवराज सिंह चौहान स्टैंड लेने की राजनीति नहीं करते हैं. वो किसी भी बात पर बहुत ज्यादा अड़ते नहीं हैं.'दीपक तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार
'साफ है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा'
वरिष्ठ टीवी पत्रकार और 'वो 17 दिन' और 'ऑफ द स्क्रीन' जैसी चर्चित किताबों के लेखक ब्रजेश राजपूत बताते हैं कि 'मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है, ये असंतोष कई मौकों पर दिख जाता है. ऐसा कैबिनेट मीटिंग में कभी नहीं हुआ है कि मंत्री आमने-सामने खड़े हो जाएं और गुट बन जाएं. कैबिनेट मीटिंग होने के बाद नरोत्तम मिश्रा उठकर बीजेपी दफ्तर आए, बीजेपी संगठन के नेताओं से मुलाकात की और नाराजगी जताई.'
'लंबा होता जा रहा शिवराज का कार्यकाल'
ब्रजेश राजपूत का कहना है कि 'ऐसा माना जा रहा है कि शिवराज सिंह का कार्यकाल लंबा होता जा रहा है और अगर उनके कार्यकाल को अभी चुनौती नहीं दी गई तो दो साल बाद फिर विधानसभा चुनाव में उन्हीं को प्रोजेक्ट किया जा सकता है. हर नेता दूसरे नेता से मुलाकात की फोटो शेयर कर रहा है. नरोत्तम मिश्रा ने दिल्ली पहुंचकर भी अपनी नराजगी जताने की कोशिश की. लेकिन शिवराज सिंह चौहान बार-बार इस तरह की चुनौतियों से उबरकर बाहर निकले हैं.'
साफ है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान की तरह मध्य प्रदेश में भी अंदरखाने कुछ-कुछ पक रहा है. आने वाले वक्त में पता चलेगा कि क्या एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान इन बगावती तेवरों को दबाने में कामयाब होते हैं या नहीं?
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