ADVERTISEMENTREMOVE AD

Shiv Sena किसकी है? उद्धव ठाकरे-एकनाथ शिंदे के विवाद का फैसला कौन करेगा?

Maharashtra Political Crisis: बागी गुट के पास शिवसेना के 40 विधायकों के समर्थन होने का दावा है.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

Maharashtra Political Crisis: एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों की बगावत ने महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है. शिंदे को शिवसेना के विधायक दल के नेता के तौर पर हटा दिया गया है, लेकिन उनका कहना है कि बालासाहेब ठाकरे (Balasaheb Thackeray) की विरासत को कायम रखते हुए उनका गुट ही असली शिवसेना है.

बागी गुट के पास शिवसेना के 40 विधायकों के समर्थन होने का दावा है. महाराष्ट्र में शिवसेना के 55 विधायक हैं और बागी गुट जितने विधायक होने का दावा कर रहे हैं, वो विधायक दल के 2/3 से ज्यादा हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
दल-बदल विरोधी कानून के लागू होने पर ये गणित अहम साबित हो सकता है, क्योंकि बागी विधायक ये तर्क दे सकते हैं कि वो कानून के तहत विलय के अपवाद के अंदर फिट बैठते हैं.

शिंदे का गुट ही असली शिवसेना है, इस तर्क का इस्तेमाल कर बागी विधायक तर्क दे सकते हैं कि उद्धव ठाकरे के पास बागियों को अयोग्य ठहराने या फ्लोर टेस्ट के लिए व्हिप जारी करने या अविश्वास प्रस्ताव के लिए कोई शक्ति नहीं है.

लेकिन ये कैसे तय किया जाएगा कि कौन सा गुट ही सच्ची पार्टी है? क्या इसका फैसला सदन के अध्यक्ष करेंगे या कोर्ट? और ये फैसला लेते समय किन फैक्टर्स को ध्यान में रखना चाहिए?

0

चुनाव आयोग का मुद्दा

जब राजनीतिक दलों की आधिकारिक मान्यता की बात आती है, तो फैसला चुनाव आयोग का होता है.

चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के पैरा 15 के तहत, चुनाव आयोग के पास ये तय करने की शक्ति है कि पार्टी का कौन सा गुट सच्चा प्रतिनिधि है.

इस प्रावधान के तहत,

जब आयोग अपने पास मौजूद जानकारी पर संतुष्ट हो जाता है कि किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रतिद्वंद्वी समूह हैं, जिनमें से हर एक गुट अपना दावा उस पार्टी पर करता है, तो आयोग मामले के सभी उपलब्ध तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सुनवाई कर सकता है, और ये तय कर सकता है कि ऐसा एक या कोई भी प्रतिद्वंद्वी समूह मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल नहीं है और आयोग का फैसला ऐसे सभी प्रतिद्वंद्वी समूहों पर बाध्यकारी होगा.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त बताते हैं कि जब इस तरह का विवाद चुनाव आयोग के सामने आता है, तो उसे दूसरे पक्ष को नोटिस जारी करना होता है, दोनों पक्षों को ये दिखाने के लिए सबूत जमा करना होता है कि वो पार्टी के सच्चे प्रतिनिधि हैं, और इसके मुताबिक जरूरी सबूत भी पेश करना होता है.

हर गुट के दावों की जांच करते समय, चुनाव आयोग को उनमें से हर एक को मिले समर्थन को देखना होगा, और सिर्फ अपने विधायकों, एमएलसी या सांसदों से नहीं, बल्कि पदाधिकारियों और प्रतिनिधियों समेत पूरे संगठन से हासिल समर्थन को ध्यान में रखना होगा है.

अगर संगठन में समर्थकों की संख्या स्पष्ट करना संभव नहीं है, तो उसे हर गुट का समर्थन करने वाले विधायकों की संख्या को देखना होता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

महाराष्ट्र में क्या हो सकता है?

महाराष्ट्र में पैदा हुआ संकट यहीं दिलचस्प हो जाता है, क्योंकि एकनाथ शिंदे ज्यादातर विधायकों के साथ होने का दावा कर रहे हैं, लेकिन ये देखना बाकी है कि पार्टी में उन्हें कितना समर्थन प्राप्त है.

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कई राजनीतिक मामलों को लड़ने वाले एक वरिष्ठ वकील का कहना है कि सबकुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि महाराष्ट्र 'विधानमंडल' में कोई भी पार्टी ये दिखा दे कि उसके पास कितना समर्थन है, यानी फैसला महाराष्ट्र विधानसभा में पार्टी के विधायकों को करना है कि वो किनके साथ हैं.

अगर उद्धव ठाकरे बचे हुए विधायकों और पार्टी कैडर का समर्थन दिखाने में कामयाब रहते हैं, तो उनके पास चुनाव आयोग के सामने अपना पक्ष रखने का मौका होगा, लेकिन शिंदे के 40 विधायकों के साथ के दावा के सामने ऐसा करना उद्धव ठाकरे के लिए मुश्किल होगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अब आगे क्या होगा?

जहां चुनाव आयोग के पास ऐसे मामलों में फैसला करने की शक्ति है, अभी ये साफ नहीं है कि मामला क्या चुनाव आयोग तक जाएगा और अगर जाएगा तो कब तक जाएगा.

उद्धव ठाकरे के गुट के लिए, चुनाव आयोग के पास नहीं जाना और इसकी बजाय स्पीकर से संपर्क करके बागियों को अयोग्य घोषित करना कहीं अधिक समझदारी वाला कदम है, क्योंकि वर्तमान में महाराष्ट्र विधानसभा में अध्यक्ष का पद खाली है, बागियों की अयोग्यता के अनुरोध पर फैसला डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल करेंगे.

हालांकि, स्पीकर का पोस्ट पूरी तरह से तटस्थ माना जाता है, लेकिन उन्हें राजनीतिक दलों से चुना जाता है और उनके फैसले आमतौर पर पार्टी लाइनों के साथ ही होते हैं. जिरवाल एनसीपी के सदस्य हैं. महाविकास अघाड़ी सरकार में उद्धव ठाकरे के गठबंधन सहयोगी हैं, और इसलिए इस तरह की उम्मीद है कि उनके फैसले मौजूदा सरकार के पक्ष में हो सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला का कहना है कि मामला चुनाव आयोग के दरवाजे पर खत्म नहीं होगा, इसके बजाय स्पीकर/डिप्टी स्पीकर को इस सवाल से निपटना होगा. आखिर में ये सदन के पटल पर ही फिक्स होगा.

डिप्टी स्पीकर जो कुछ करते हैं, उसके बाद भी इस बात की बहुत संभावना है कि मामला बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चला जाए, क्योंकि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी हैं और वो बीजेपी से हैं. राज्यपाल एकनाथ शिंदे को समर्थन दे सकते हैं और अगर हालात ज्यादा बिगड़े तो फिर वो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

उद्धव ठाकरे गुट ने जिन बागियों को अयोग्य घोषित करने की मांग की है, वो राहत के लिए पहले ही बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके हैं. ऐसे में बहुत संभव ये है कि हाईकोर्ट मामला डिप्टी स्पीकर पर टाल दे या फिर डिप्टी स्पीकर के फैसले के बाद ही इस मुद्दे पर गौर करे, या फिर हाईकोर्ट एक निर्धारित अवधि के अंदर अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला लेने के लिए स्पीकर और डिप्टी स्पीकर को कह सकता है.

सुप्रीम कोर्ट को हाल के वर्षों में कर्नाटक और मध्य प्रदेश में ऐसे ही तमाशा होने के बाद विधायकों की अयोग्यता से जुड़े कुछ मामलों पर फैसला देना पड़ा है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

वहीं, कोर्ट ने जहां स्पीकर के विवेक और शक्ति के बारे में कुछ भी अपना फैसला नहीं दिया कि क्या इस तरह से अपनी मर्जी से विधायकों के काम करने को ‘स्वैच्छिक इस्तीफा’ जैसा माना जा सकता है (जो कि विधायकों को अयोग्य ठहराने का ग्राउंड हो सकता है), लेकिन कोर्ट ने कर्नाटक के मामले में ये फैसला दिया था कि सदन से इस्तीफा देने को पार्टी से इस्तीफा नहीं माना जा सकता है.

बेशक, समस्या ये है कि बागी असली पार्टी होने का दावा कर रहे हैं. इसलिए वो उद्धव ठाकरे गुट के किसी भी फैसले को चुनौती दे रहे हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस सवाल का फैसला करने में हाईकोर्ट, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के पास विकल्प सिर्फ महाराष्ट्र विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश देने तक सीमित है. इससे ही पता चल पाएगा कि पार्टी के विधायकों का समर्थन किसके पास है. हालांकि, जब इस तरह का फ्लोर टेस्ट होता है तो विधायकों को एक विशेष तरीके से वोट देने के लिए व्हिप दिए जाने का मुद्दा होगा - लेकिन सवाल ये भी होगा कि सिर्फ 'असली' पार्टी ही ऐसे व्हिप जारी कर सकती है.

यहां एक बार फिर से चुनाव आयोग की अहम भूमिका हो जाएगी, लेकिन ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या हाईकोर्ट/सुप्रीम कोर्ट इस मामले को चुनाव आयोग के पास ले जाने का फैसला करता है.

इस बीच, जब तक किसी प्रकार का मेल-मिलाप संभव न हो, अंतर्कलह और सब ओर से दावे किए जाते रहेंगे. ये बहुत हद तक वैसा ही होगा जैसा कि 1989 में एमजीआर की मृत्यु के बाद अन्नाद्रमुक को बंटवारे का सामना करना पड़ा था.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×