दलितों की बीएसपी में दलित हाशिए पर बहुजन समाज पार्टी दलितों की पार्टी है. ये जवाब बताने के लिए कोई राजनीतिक-सामाजिक जानकार होने की जरूरत नहीं है. लेकिन, क्या ये जवाब 2017 के विधानसभा चुनावों के समय भी सही माना जाएगा. छवि के तौर पर अभी भी यही सही जवाब है. क्योंकि, देश की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती बीएसपी की अध्यक्ष हैं. इसलिए बहुजन समाज पार्टी बहुजन यानी दलितों की ही पार्टी मानी जाएगी. लेकिन, अब जब मायावती उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए 403 में से 400 प्रत्याशी घोषित कर चुकी हैं, तो बीएसपी के दलितों की पार्टी होने पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है. सबसे पहले बात कर लेते हैं बांटे गए टिकटों में दलितों की संख्या की.
टिकटों की संख्या के लिहाज से बीएसपी में दलितों का स्थान चौथा आता है.
- मायावती ने सबसे ज्यादा टिकट सवर्णों को दिया है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में 403 में 113 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवार हाथी की सवारी कर रहे हैं.
- दूसरे स्थान पर पिछड़ी जाति के प्रत्याशी हैं. पिछड़ी जाति से आने वाले कुछ 106 प्रत्याशियों को बीएसपी ने टिकट दिया है.
- इसके बाद बीएसपी में मुसलमानों का स्थान आता है. 97 मुसलमानों को मायावती ने टिकट दिया है.
- और चौथे स्थान पर दलितों को जगह मिली है. विधानसभा चुनावों के लिए कुल 87 दलितों को बीएसपी ने हाथी की सवारी करने का मौका दिया है.
सोचिए कि जिन सवर्णों और पिछड़ों के शोषण के खिलाफ पहले बाबा साहब ने और बाद में कांशीराम ने लड़ाई लड़ी. आज उन्हीं आदर्शों पर राजनीति करने का दावा करने वाली मायावती की बीएसपी में दलितों का प्रतिनिधित्व सवर्णों और पिछड़ों से भी कम हो गया.
2007 में 89 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने सामाजिक समीकरण चमत्कारिक तरीके से साध लिया था. उत्तर प्रदेश में मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी. लेकिन, 2012 में 74 ब्राह्मणों और 2014 के लोकसभा चुनाव में 21 ब्राह्मणों को टिकट देने के बाद भी मायावती को अपेक्षित परिणाम नहीं मिले. इसीलिए मायावती ने इस बार 66 ब्राह्मणों को ही विधानसभा का टिकट दिया है. लेकिन, दूसरी सवर्ण जातियों के साथ ये संख्या दलितों से काफी ज्यादा हो जाती है.
दरअसल उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में किसी एक जाति या धर्म के आधार पर राजनीति करना बेहद मुश्किल है. और ऐसी पार्टियां भले ही एक बड़ा मत प्रतिशत हासिल करने में कामयाब होती रही हों. लेकिन, बिना दूसरी जातियों को जोड़े उन्हें सत्ता का सुख अपने दम नहीं मिल सका.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला था, जब सवर्णों को गाली देकर ही बीएसपी का आधार मजबूत करने वाली मायावती ने दलित-मुसलमान के तय खांचे से आगे निकलकर सवर्णों (खासकर ब्राह्मणों) को लुभाने की सफल कोशिश की.
- 2007 के विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित तौर पर बीएसपी को ब्राह्मणों को मत मिला और 30.43% मतों के साथ मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार सत्ता में आ गई. उस चुनाव में समाजवादी पार्टी 25% से ज्यादा मत पाने के बावजूद 97 सीटों पर ही सिमट गई.
- लेकिन, 2012 के चुनाव में मायावती का ये मंत्र काम नहीं कर पाया. बहुजन समाज पार्टी को 26% से कम मत मिले और इसकी वजह से सीटें घटकर 80 रह गईं. समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई. लेकिन, फिर भी बीएसपी को ये लगता है कि सिर्फ दलित-मुसलमान से यूपी की सत्ता हासिल नहीं की जा सकती.
- इसीलिए फिर से 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए बहनजी के उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा सवर्ण हो गए. और दलितों को संख्या 87 रह गई.
87 की संख्या देखकर फिर भी ये माना जा सकता है कि राजनीतिक मजबूरियों के चलते सवर्ण और पिछड़ों को टिकट बांटना मजबूरी हो गई है. फिर भी मायावती ने अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं का ख्याल रखा है.
लेकिन, इसके बाद का ये आंकड़ा दलितों को परेशान कर सकता है. और वो आंकड़ा ये है कि दलितों को जिन 87 सीटों पर टिकट दिया गया है, उसमें से 85 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के लिए ही आरक्षित हैं.
ये वही आरक्षण है, जो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने महात्मा गांधी से लड़कर हासिल किया था. जो बाद में संविधान का हिस्सा बन गया. यानी अगर बाबा साहब का राजनीतिक आरक्षण न होता, तो बीएसपी में सिर्फ 2 उम्मीदवार दलित होते. भला हो बाबा साहब के लड़कर लिए गए आरक्षण का कि, 87 दलित हाथी पर सवार होकर विधानसभा पहुंचने की कोशिश तो कर पा रहे हैं. वरना राजनीतिक मजबूरी में जाने कितने दलित हाथी की सवारी कर पाते. जो दलित मायावती के इशारे पर किसी को भी बिना सवाल किए मत देता रहा है, उन्हीं दलितों में से मायावती को आरक्षित सीटों के अलावा योग्य जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिल सका. वो भी तब जब 2007 में पूर्ण बहुमत की 5 साल की सरकार और उससे पहले भी टुकड़ों में 3 बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. अब फिर से मैं वही सवाल पूछ रहा हूं. क्या बीएसपी दलितों की पार्टी है. अब इसका जवाब देना आसान नहीं रह गया है.
(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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