ADVERTISEMENTREMOVE AD

Mulayam Singh Yadav मॉडल में मुसलमानों को मिली आवाज, क्या अखिलेश ऐसा कर पाएंगे?

mulayam singh yadav और समाजवादी पार्टी का कद बढ़ने के साथ-साथ यूपी की राजनीति में मुस्लिम प्रतिनिधित्व भी बढ़ा.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

समाजवादी नेता और समाजवादी पार्टी (एसपी) के संस्थापक मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) का 82 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. आपातकाल विरोधी आंदोलन में उनकी भूमिका और उत्तर प्रदेश में ओबीसी को आवाज देने के अलावा धर्मनिरपेक्ष राजनीति के एक महत्वपूर्ण मॉडल के लिए भी मुलायम सिंह यादव का स्पष्ट दृष्टिकोण था. यह एक ऐसी राजनीति थी जो धर्मनिरपेक्षता की जुमलेबाजी से आगे निकल गई और इसके साथ ही इसमें ओबीसी और मुसलमानों के बीच एक जमीनी गठबंधन शामिल था. हो सकता है कि अब यह यादवों और मुसलमानों तक सिमट कर रह गया हो, लेकिन इसपर हम बाद में आएंगे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राम जन्मभूमि आंदोलन का विरोध

राम जन्मभूमि आंदोलन जब अपने चरम पर था, उस दौरान बतौर मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का पहला कार्यकाल था फिर भी पुलिस को कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देने में उन्होंने संकोच नहीं किया था. इस बात का श्रेय मुलायम सिंह को जाता है कि अपनी निगरानी में उन्होंने बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं होने दिया.

बहुत ही निर्णायक समय में मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को सुरक्षा की भावना प्रदान की थी. यह एक समय था जब राम जन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कारण हिंदुत्व की लामबंदी अपने चरम पर थी. इसके साथ ही यह ऐसा समय भी था जब इस समुदाय द्वारा ऐसा महसूस किया जा रहा था कि कांग्रेस द्वारा उनके साथ विश्वासघात किया गया है.

राजीव गांधी की सरकार ने पहले तो बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाए और बाद में गांधी ने अयोध्या से अपने एक चुनाव अभियान की शुरूआत भी की. चीजें और ज्यादा खराब तब हो गई जब 1992 में बाबरी मस्जिद के वास्तविक विध्वंस के दौरान पीएम पीवी नरसिम्हा राव ने निष्क्रियता का रास्ता चुना था.

मुस्लिमों का बढ़ता प्रतिनिधित्व

हालांकि, मुलायम सिंह यादव की 'धर्मनिरपेक्ष' राजनीति अल्पसंख्यकों के संरक्षण और सांप्रदायिकता के खिलाफ एक मजबूत रुख से आगे निकल गई. वास्तविक रूप से वे (मुलायम सिंह) अपनी राजनीति में मुसलमानों को स्टेकहोल्डर्स की तरह मानते थे.

जैसे-जैसे समाजवादी पार्टी का उदय हुआ वैसे-वैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा में इस पार्टी ने मुस्लिम प्रतिनिधित्व में उल्लेखनीय वृद्धि की. उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में मुसलमानों की संख्या करीब 19 फीसदी है, लेकिन उस दौर में जब एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस का वर्चस्व था तब उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व कभी भी 10 फीसदी से अधिक नहीं हुआ.

0

1960 और 1970 के दशक के दौरान यह आंकड़ा 5 से 7 फीसदी के बीच था. लेकिन 1977 में जब जनता पार्टी की जीत हुई, जिसमें मुलायम सिंह यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, तब यह आंकड़ा बढ़कर 11.5 फीसदी पर आ गया.

1991 में राम जन्मभूमि लहर और बीजेपी की जीत के बीच मुस्लिम विधायकों का प्रतिशत गिरकर 4 फीसदी के सर्वकालिक निचले स्तर पर आ गया. लेकिन 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन के बाद से, मुस्लिम प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे बढ़ता गया और 2012 की समाजवादी पार्टी की जीत में के साथ यह 17.1 फीसदी के अपने चरम पर पहुंच गया.

हालांकि, 2017 में बीजेपी लहर में यह (मुस्लिम प्रतिनिधित्व) फिर से गिरकर 6 फीसदी पर आ गया, लेकिन 2022 में बढ़कर 9 फीसदी हो गया.

मुसलमानों को अधिक टिकट देने की समाजवादी पार्टी की रणनीति की वजह से इसकी (एसपी की) मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी बहुजन समाजवादी पार्टी (बीएसपी) पहले की तुलना में मुसलमानों को और भी अधिक टिकट देने के लिए मजबूर हुई. हालांकि मुस्लिम प्रतिनिधित्व का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी से ही रहा है.

मोहम्मद आजम खान समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और वे मुलायम सिंह यादव के करीबी विश्वासपात्रों में से एक थे.

mulayam singh yadav और समाजवादी पार्टी का कद बढ़ने के साथ-साथ यूपी की राजनीति में मुस्लिम प्रतिनिधित्व भी बढ़ा.

आजम खान

फाइल फोटो : आईएएनएस

समाजवादी पार्टी ने आजम खान के रूप में एक नए तरह का मुस्लिम नेता प्रदान किया, जो कांग्रेस के मुस्लिम नेतृत्व से बहुत अलग था. जहां एक ओर कांग्रेस के मुस्लिम नेतृत्व को काफी एलीट और मुस्लिम समुदाय से कटा हुआ माना जाता था, वहीं दूसरी ओर आजम खान एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पहचान को लेकर कभी खेद व्यक्त नहीं किया और इसके साथ ही वे ऐसे शख्स थे जो हिंदुत्व पक्ष को उसी की भाषा में जवाब दे सकते थे.

न केवल आजम खान (जिनकी लोकप्रियता मुख्य रूप से रामपुर और आसपास के क्षेत्रों में थी) बल्कि कई अन्य मुस्लिम नेता भी उभर कर सामने आए, जैसे आजमगढ़ जिले में आलमबादी, बहराइच में वकार शाह.

बढ़ा हुआ प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे कुछ हद तक जमीनी स्तर पर पहुंच गया और स्थानीय मुस्लिम प्रतिष्ठित लोगों ने इतना ज्यादा प्रभाव प्राप्त किया जितना उन्हें अतीत में पहले कभी नहीं मिला.

भले ही बीजेपी ने इसे तुष्टीकरण कहा हो लेकिन अल्पसंख्यकों को अधिक मजबूत आवाज देने के मामले में मुलायम सिंह यादव ने एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत किया जो कुछ हद तक प्रभावी था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

धर्मनिरपेक्षता के लिए एक निर्वाचन क्षेत्र बनाना

मुलायम सिंह यादव ने न केवल मुसलमानों को ज्यादा आवाज उठाने का मौका दिया बल्कि उन्होंने बहुसंख्यक समुदाय के एक वोटर वर्ग के भीतर धर्मनिरपेक्षता बढ़ाने में भी योगदान दिया.

जिस तरह बिहार में लालू यादव ने किया उसी तरह मुलायम सिंह यादव ने ओबीसी तक यह बात पहुंचाई कि मुसलमानों के साथ राजनीतिक गठजोड़ बनाना और उच्च जाति के राजनीतिक आधिपत्य को तोड़ना उनके हित में है.

मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव दोनों ने अपने समुदाय को यह स्पष्ट किया कि उनकी नीयति मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के निरंतर अस्तित्व के साथ जुड़ी हुआ है.

जबकि गैर-यादव ओबीसी के बीच एसपी और आरजेडी के समर्थन में समय के साथ गिरावट आई है लेकिन आज भी यूपी और बिहार में गैर-अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच यादव सबसे मजबूत बीजेपी विरोधी वोटिंग गुटों में से एक है.

2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी और बिहार में यादव और बचे हुए यूपी में जाटव हिंदी पट्टी में एकमात्र जाति समूह थे जिनका स्पष्ट बहुमत बीजेपी के खिलाफ था. इसका क्रेडिट क्रमश: एसपी, आरजेडी और बीएसपी को जाता है.

मुलायम सिंह यादव का धर्मनिरपेक्ष मॉडल कब से लड़खड़ाने लगा?

2013 के मुजफ्फरनगर दंगों को कई मायनों में मुलायम सिंह यादव के सामाजिक गठबंधन के फूट के तौर पर चिन्हित किया जाता है.

इस तथ्य के बावजूद कि दंगों में मारे जाने वालों में अधिकांश मुसलमान भी थे, बीजेपी यह धारणा स्थापित करने में सफल रही कि दंगों के लिए एसपी द्वारा मुसलमानों का कथित तुष्टिकरण जिम्मेदार था.

पश्चिम यूपी के जाट समुदाय के अलावा उत्तर प्रदेश में बीजेपी गैर-जाटव दलित वोट के साथ ही गैर-यादव ओबीसी वोट को लगभग पूरी तरह से जुटाने में कामयाब रही. बीजेपी के उदय से जहां आरएलडी सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई, वहीं बीएसपी, एसपी और कांग्रेस को भी काफी नुकसान हुआ.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हालांकि समाजवादी पार्टी यादवों और मुसलमानों के समर्थन को बनाए रखने में कामयाब रही और 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से यूपी में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनी हुई है, लेकिन यह इससे आगे बढ़ने में कामयाब नहीं हो पायी है.

मुलायम सिंह यादव के गुजर जाने से इन दोनों समुदायों से एसपी को मिलने वाला समर्थन संदेह के दायरे में आ सकता है.

हालांकि, हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव की धर्मनिरपेक्ष राजनीति का ब्रांड बहुत पहले ही दम तोड़ चुका हो, जिसमें मुसलमानों का बढ़ता प्रतिनिधित्व और हिंदुत्व के खिलाफ एक खुला स्टैंड शामिल था.

यादव ने 2000 के दशक में कल्याण सिंह के साथ अनकही डील करके और साक्षी महाराज को कुछ समय के लिए लाकर हिंदुत्व के प्रति अपने विरोध को कमजोर कर दिया था. कल्याण सिंह और साक्षी महाराज, दोनों को बाबरी मस्जिद के विलेन के तौर पर देखा जाता था.

इसके बाद अखिलेश यादव की लीडरशिप में समाजवादी पार्टी की धर्मनिरपेक्ष राजनीति में और ज्यादा गिरावट आई है क्योंकि लीडर के साथ मुसलमानों से जुड़े किसी भी मुद्दे से दूरी बनाए रखते हैं.

उनके नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने बैक डोर माध्यम से जैसे कि मुस्लिम मध्‍यस्‍थताओं का उपयोग करके या पुलिस की बर्बरता के पीड़ितों को सार्वजनिक रूप से समर्थन किए बिना मुआवजा देकर मुसलमानों के साथ संबंधों को साधने की कोशिश की है.

आजम खान और शिवपाल यादव जैसे नेता मुलायम की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को बेहतर ढंग से समझते थे लेकिन अखिलेश यादव ने आजम खान जैसे महत्वपूर्ण मुस्लिम नेताओं को भी दरकिनार कर दिया है और शिवपाल यादव से उनके मतभेद हो गए हैं.

मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद अब अखिलेश यादव के लिए दोनों समुदायों का समर्थन बनाए रखना मुश्किल हो सकता है.

2022 के विधानसभा चुनाव में यह देखा गया कि मुस्लिम समाजवादी पार्टी के पीछे एकजुट थे, लेकिन अगर बीजेपी को हराने में पार्टी नाकाम रहती है, तो यह जरूरी नहीं कि वह आगे भी इस पर (एसपी के पीछे) कायम रहें.

कांग्रेस और एआईएमआईएम अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा के खिलाफ अधिक स्पष्ट रुख अपना रहे हैं, ऐसे में यदि अखिलेश यादव अपनी नीति में सुधार या बदलाव नहीं करते हैं तो कुछ पॉइंट पर मुसलमान विकल्प तलाश सकते हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें