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नागालैंड: आखिर कोई विपक्ष में क्यों नहीं रहना चाहता,सत्ता की भूख या सत्ता का डर?

शरद पवार देश में BJP के विरोध में खड़े हैं लेकिन उनकी पार्टी NCP, नागालैंड में BJP गठबंधन का हिस्सा कैसे बन गई?

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बंधन फिल्म में सलमान खान का एक डायलॉग बहुत फेमस हुआ था. 'जो जीजाजी बोलेंगे, वो मैं करूंगा'. मतलब कोई विपक्ष नहीं, कोई विरोध नहीं. सही-गलत कुछ नहीं, बस जो हुक्म होगा वो करेंगे. ऐसा ही कुछ नागालैंड (Nagaland) की राजनीति में भी देखने को मिल रहा है. नागालैंड में चुनाव के नतीजों के बाद और सरकार बनने से पहले ही विधानसभा 'विपक्षहीन' हो गया. अब कुछ लोग कहेंगे कि ये तो सलमान खान की एक और फिल्म 'हम साथ-साथ हैं' की तरह परफेक्ट परिवार जैसा माहौल है.

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लेकिन ऐसा क्यों हुआ? जो विधायक सत्ता के खिलाफ खड़े थे वो अचानक साथ क्यों आ गए? जो शरद पवार देशभर में बीजेपी के विरोध में खड़े दिखते हैं उनकी पार्टी NCP नागालैंड में बीजेपी गठबंधन का हिस्सा क्यों बन गई? क्या ये एक लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर है?

महाराष्ट्र में विरोध, लेकिन नगालैंड में BJP की 'दोस्त' बनी NCP

नागालैंड विधानसभा चुनाव 2023 में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) और बीजेपी ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था और 60 सदस्यीय विधानसभा में एनडीपीपी 25 और बीजेपी ने 12 सीटों पर जीत हासिल की. वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी एनपीएफ 2 सीटों पर सिमट गई है. 4 निर्दलीय, NCP के 7, NPP के 5, RPI (अठावले) और लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के 2-2, जेडीयू के एक उम्मीदवार ने जीत हासिल की. इसके अलावा जो कांग्रेस साल 2013 तक नागालैंड की राजनीति में दमखम रखती थी वो एक बार फिर शून्य पर सिमट गई. लेकिन इन सबके बीच अलग ही सियासी खेल देखने को मिला.

जहां देशभर और खास तौर पर महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी बीजेपी का विरोध कर रही थी उसने नागालैंड में बीजेपी गठबंधन को समर्थन दे दिया. इसके अलाव जेडीयू के एकमात्र विधायक ने भी समर्थन देने का एलान किया. हालांकि अब पार्टी ने अपनी नागालैंड की राज्य इकाई भंग कर दी है. जेडीयू केंद्रीय कमेटी ने अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए यह फैसला लिया है.

जेडीयू ने एक चिट्ठी जारी की है और कहा कि राज्य इकाई ने बिना राष्ट्रीय नेतृत्व से बात कर फैसला लिया था.

विपक्षहीन विधानसभा की 'परंपरा' कब से शुरू हुई?

नागालैंड को 1 दिसंबर, 1963 को औपचारिक रूप से एक अलग राज्य के रूप में मान्यता दी गई थी और 1964 में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार ने सत्ता संभाली. तब से लेकर अबतक 13 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. लेकिन ये पहला मौका है जब विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद और सरकार बनने से पहले ही विपक्ष-रहित सदन बन गया. हालांकि इससे पहले 2015 और 2021 में नेफ्यू सरकार के चालू कार्यकाल के दौरान विपक्ष-रहित सरकारें बनीं थी. लेकिन वो चुनाव के तुरंत बाद नहीं बल्कि सरकार के बीच कार्यकाल में हुआ था.

नागालैंड के सीनियर पत्रकार कल्लोल डे कहते हैं,

पहले भी नागालैंड में शांति के नाम पर विपक्षी विधायक सरकार के समर्थन में आए हैं. लेकिन ये नागालैंड के हित में कितना कारगर हुआ ये कहना मुश्किल है. नागालैंड में सत्ता के साथ रहना बेहतर माना जाता है. नागालैंड में किसी बाहरी पार्टी जैसे की शरद पवार की NCP या नीतीश कुमार के JDU नाम पर वोट नहीं पड़ता है. ये लोग यहां पर बहुत ज्यादा महत्व नहीं रखते हैं. यहां वोटिंग पैटर्न अलग है. हर जिले में अलग ट्राइब के लोग हैं, उनके अपने मुद्दे हैं, लोकल लीडर की अपनी पहचान है. लोग अपने बीच का नेता चुनते हैं. इसलिए पार्टी के ना चाहते हुए भी विधायक अपने लोकल और नागालैंड के मुद्दे को देखते हुए सत्ता के साथ जाने को तरजीह देते हैं.

2015 और 2021 में नागालैंड कैसे बना विपक्ष-रहित

दरअसल, साल 2018 विधानसभा चुनाव में नगा पीपुल्स फ्रंट (NPF) 60 में से 26 सीटों पर जीत हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन सरकार नहीं बना सकी. वहीं नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (NDPP) ने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा और 18 पर जीत हासिल हुई. इसके अलावा बीजेपी ने भी 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी. जिसके बाद पीपुल्स डेमोक्रेटिक एलायंस (NDPP+BJP+अन्य) ने सरकार बनाई. लेकिन 2021 में नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) सत्तारूढ़ पीपुल्स डेमोक्रेटिक एलायंस में शामिल हो गई, जिसमें एनडीपीपी और बीजेपी शामिल थी.

इसी दौरान एनपीएफ में टूट हो गई. अप्रैल 2022 यानी विधानसभा चुनाव से करीब 10 महीने पहले नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के 25 में से 21 विधायक नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) में शामिल हो गए. एनपीएफ के 21 विधायकों के शामिल होने से 60 सदस्यीय विधानसभा में एनडीपीपी के सदस्यों की संख्या 42 हो गई थी.

ये सब कुछ एक बार फिर नागालैंड में जारी संघर्ष को खत्म करने के नाम पर हुआ था.

अगर थोड़ा और पीछे चलें तो देखेंगे कि साल 2015 में जब NPF मुख्यमंत्री के रूप में टीआर जेलियांग के साथ सत्ता में थी, तब उस वक्त आठ कांग्रेस विधायक सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल हो गए थे.

पत्रकार कल्लोल बताते हैं कि नागालैंड में जारी संघर्ष को खत्म करने के लिए अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एनएससीएन की मौजूदगी में नगा शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. हालांकि, साल 1997 में केंद्र सरकार और सबसे बड़े विद्रोही समूहों में शामिल नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (एनएससी-आईएम) के बीच संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. इसे आगे बढ़ाने का काम 2015 में सरकार ने किया और एनएससीएन से बातचीत को फिर से शरू किया था. 

इसी दौरान सीएम नेफ्यू रियो के नेतृत्व में नगा शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए सभी दल एक साथ आ गए थे. तब भी विपक्षहीन यानी बिना विपक्ष की सरकार थी.

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क्यों विपक्ष 'खत्म' हो गया?

इस सवाल के कई जवाब हैं. पहला कि पांचवी बार मुख्यमंत्री बने नेफ्यू रियो नगालैंड की सियासत के जादूगर माने जाते हैं. पिछले दो दशक से नागालैंड की पूरी राजनीति इनके इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. रियो ने 1989 के बाद से राज्य का हर चुनाव जीता है. वह पहले कांग्रेस में थे, फिर नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) में शामिल हो गए और फिलहाल एनडीपीपी के साथ हैं.

72 साल के रियो, पिछले दो दशकों में नगा राजनीति में सभी प्रमुख उतार-चढ़ावों का केंद्र रहे हैं. ऐसे में ज्यादातर लोग रियो के खिलाफ होकर भी ज्यादा दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहते हैं.

नाम न छापने के शर्त पर एक और पत्रकार बताते हैं कि बीजेपी को जितनी सीट मिलना चाहिए था उतनी नहीं मिली है, खासकर ईस्टर्न नागालैंड में. बीजेपी केंद्र में है और खुद की अहमियत बनाए रखने के लिए क्षत्रीय पार्टियों पर कंट्रोल रखना होता है.

पत्रकार आगे कहते हैं,

इसके अलावा नागालैंड में जो लोग विधायक बने हैं उन्होंने चुनाव में काफी पैसे खर्च किए हैं, ऐसे में जो पैसे लगे हैं वो विपक्ष में रहकर वापस मिल नहीं सकते हैं. अब अगर आप सत्ता पक्ष को समर्थन देते हो और आपको अगर कैबिनेट पोस्ट नहीं भी मिलता है तो आपको कॉन्ट्रैक्ट और ठेका मिल सकता है तो चुनाव में खर्च किया पैसा कमा लेंगे.

नागालैंड के सीनियर पत्रकार कल्लोल डे कहते हैं, "यहां आपको दो चीज समझनी होगी. पहला- केंद्र में जिसकी सरकार होती है, उसे फेवर करते हैं यहां के लोग. अब चाहे केंद्र में सरकार किसी भी पार्टी की हो. अब कल कांग्रेस केंद्र की सत्ता में आ जाए तो यहां बड़े पैमाने पर इस्तीफा होगा बीजेपी और दूसरी पार्टियों से.

दूसरा- यहां चुनाव पार्टी नहीं बल्कि उम्मीदावर पर होता है. उम्मीदवार का ट्राइबल से कनेक्शन देखा जाता है."

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