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Nepal: कमल निशान, हिंदुत्व विचार.. क्या 'नेपाल जनता पार्टी' चुनावी लहर बनाएगी?

NJP नेता ने कहा, “हम दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा में विश्वास करते हैं. हमारा देश मूल रूप से एक हिंदू राष्ट्र है"

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भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और नेपाल जनता पार्टी (एनजेपी) में क्या समानता है? खैर, पहली समानता तो यही है कि दोनों का चुनाव चिन्ह कमल है. और, फिर, यह भी तथ्य है कि एनजेपी भारतीय जनसंघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय के विचारों में विश्वास करती है. भारतीय जनसंघ से ही बीजेपी निकली है.

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एनजेपी ने काठमांडू में पिछले महीने ही एक नया केंद्रीय कार्यालय खोला है. एनजेपी इस हिमालयी राष्ट्र में पैर जमाने की कोशिश कर रही है, जहां राजनीति के केंद्र में ज्यादातर वामपंथी और मध्यमार्गी दलों का वर्चस्व रहा है. पार्टी देश की हिंदू आबादी को एकजुट करने का प्रयास कर रही है, जो वर्तमान में 2021 की जनगणना के अनुसार 81.19 प्रतिशत है.

NJP: शुरुआत और आगे का रास्ता

पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष खेम नाथ आचार्य के अनुसार, एनजेपी का गठन 2005 में हुआ था. आचार्य ने द क्विंट को बताया कि पार्टी का गठन 18 साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की सीमा पार भी अपना विस्तार करने की योजना के तहत किया गया था.

"हालांकि, हम सालों तक निष्क्रिय रहे हैं क्योंकि नेपाल एक क्रांति- लोकतंत्र आंदोलन (जो राजा ज्ञानेंद्र के प्रत्यक्ष शासन के खिलाफ राजनीतिक आंदोलनों की एक श्रृंखला है) से गुजर रहा था."
खेम नाथ आचार्य, एनजेपी उपाध्यक्ष

आचार्य ने द क्विंट को आगे बताया, “हम दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा में विश्वास करते हैं. हमारा देश मूल रूप से एक हिंदू राष्ट्र है और हमारी संस्कृति वैदिक संस्कृति है जिसकी उन्होंने प्रशंसा की है.''

आचार्य आरएसएस के आयोजनों का हिस्सा बनने के लिए अक्सर दिल्ली और भारत के अन्य हिस्सों की यात्रा करते हैं. दरअसल, पिछले हफ्ते ही वे कुछ केंद्रीय मंत्रियों सहित बीजेपी नेताओं से मिलने के लिए दिल्ली में थे.

आचार्य ने कहा कि पिछले छह महीनों में, पार्टी ने अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं, जिसके कारण हाल के चुनावों में उसे 17 पंचायत सीटें जीतने में मदद मिली है.

एनजेपी पार्टी की नजर अब 2027 के चुनाव पर है. आचार्य ने कहा, "हम जानते हैं कि नेपाल में एक अंतर्निहित भावना है जो हिंदू आस्था की परवाह करती है, और मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम जीतेंगे." पार्टी ने अब अगले कुछ सालों के लिए अपनी रणनीति की रूपरेखा तैयार कर ली है.

आचार्य ने कहा, "हाल ही में आयोजित हमारी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में एक टीम का गठन किया गया है - और हमारे पास अगले पांच और 10 वर्षों के लिए एक रणनीतिक योजना है." आचार्य के अनुसार पार्टी युवाओं, खासकर 40 साल से कम उम्र के लोगों को अपने साथ जोड़ना चाहती है. उन्होंने दावा किया कि पार्टी में वर्तमान में लगभग 40,000 सदस्य हैं.

आचार्य ने कहा कि पार्टी की ओर से लामबंदी अभियान जरूरी है क्योंकि प्रधानमंत्री पुष्प कुमार दहल के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार तुष्टिकरण की अपनी नीति से देश का माहौल खराब कर रही है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि दहल पहाड़ी और तराई क्षेत्रों (जहां अधिकांश मधेशी आबादी रहती है) के लोगों के बीच अंतर बढ़ा रहे हैं.

बता दें कि मधेशी गैर-नेपाली भाषी हैं और उनमें मारवाड़ी, बिहारियों, मुस्लिम आदि जैसे जातीय समूह शामिल हैं. आचार्य ने कहा, यही कारण है कि दहल की पार्टी का जनाधार धीरे-धीरे खत्म हो रहा है.

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एनजेपी ने भारत के साथ सीमा के करीब के क्षेत्रों में अपने प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है. जनसांख्यिकी पर एक नजर डालने से पता चल सकता है कि पार्टी ऐसी रणनीति क्यों अपना रही है?

भारत की सीमा से लगे नेपाल के अधिकांश क्षेत्र तराई क्षेत्र में हैं जहां मधेसी रहते हैं. मैथिली (जो नेपाल में दूसरी सबसे लोकप्रिय भाषा है और बिहार में सीमा के एक बड़े हिस्से में बोली जाती है) और भोजपुरी जैसी भाषाएं तराई क्षेत्र में लोकप्रिय हैं.

नेपाल में हिंदू राष्ट्रवाद का उदय

एनजेपी पार्टी का लामबंदी अभियान ऐसे समय में आया है जब नेपाल की राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद के उद्भव के साथ एक मौन परिवर्तन देखा जा रहा है. साथ ही देश को हिंदू राष्ट्र बनाने या कम से कम 2006 से पहले की स्थिति में वापस लाने की मांग बढ़ रही है.

1962 और 2006 (जब राजशाही को उखाड़ फेंका गया) के बीच, नेपाल एक हिंदू साम्राज्य और दुनिया का एकमात्र हिंदू देश था. फिर, 2007 में नेपाल के अंतरिम संविधान ने इसे एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित कर दिया. 2008 में, राजशाही समाप्त कर दी गई और नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बन गया.

प्रख्यात नेपाली पत्रकार कनक मणि दीक्षित ने पिछले साल स्थानीय समाचार मीडिया आउटलेट्स को बताया था कि नेपाल को अपनी गणतंत्र-पूर्व स्थिति में वापस लाने की मांग कई लोगों द्वारा की जा रही है, विशेष रूप से शक्ति खो चुके अभिजात वर्ग के बीच, जो अपनी खोई हुई स्थिति को वापस पाने के तरीके के रूप में हिंदुत्व की ओर झुक रहे हैं.

कनक मणि दीक्षित ने उदाहरण के तौर पर पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह का जिक्र किया.

उन्होंने बताया कि हिंदू राष्ट्र की मांग उन लोगों का "रूढ़िवादी एजेंडा है जो महसूस करते हैं कि उन्होंने नए संविधान के तहत राजनीतिक शक्ति खो दी है". कनक मणि दीक्षित ने ऐसी मांग के पीछे की खामियां बताईं. उन्होंने कहा, "नेपाल एक हिंदू राष्ट्र कैसे हो सकता है, जब लगभग 20 प्रतिशत आबादी खुद को हिंदू नहीं मानती."

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काठमांडू स्थित थिंक टैंक, नेपाल इंस्टीट्यूट फॉर पॉलिसी रिसर्च में सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक अफेयर्स के प्रमुख, एनालिस्ट संतोष शर्मा पौडेल ने द क्विंट को बताया कि नेपाल को हिंदू राज्य बनाने की मांग राजशाही को बहाल करने के साथ जुड़ी हुई है.

पौडेल ने कहा कि पिछले 16 वर्षों में नेपाल के लोकतंत्र ने कई परवर्तन लाने के सपने दिखाए थे लेकिन अभी तक उन्हें अमल में लाने में विफल रहे हैं.

“समस्या यह है कि राजनीतिक दल अपने वादों को पूरा करने में सफल नहीं हुए हैं और स्थिति संभवतः उस समय से भी बदतर हैं जब नेपाल में राजशाही थी. इसलिए, लोगों में निराशा है और हिंदू राजतंत्र की मांग करने वाले लोग बढ़ रहे हैं.''
एनालिस्ट संतोष शर्मा पौडेल

पौडेल ने यह भी कहा कि देश में ईसाइयों की संख्या में वृद्धि ने कुछ हिंदुओं को भी चिंतित कर दिया है.

2021 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, नेपाल की हिंदू आबादी में 0.11 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि ईसाई धर्म मानने वाली आबादी में 0.36 प्रतिशत की वृद्धि हुई. हालांकि यह अभी भी जनसंख्या का केवल 1.76 प्रतिशत थी.

पौडेल ने कहा, "हिंदू धर्म के विस्तार में ईसाई मिशनरियों की गतिविधि से चिंतित हैं."

द काठमांडू पोस्ट के अनुसार अमेरिकी विदेश विभाग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिणपंथी धार्मिक समूह नेपाल में सभी पार्टियों के प्रभावशाली राजनेताओं को धन मुहैया करा रहे हैं, ताकि वे हिंदू राष्ट्र के पक्ष में बोलें.

अपनी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट 2022 में, अमेरिकी विदेश विभाग ने नागरिक समाज के सूत्रों के हवाले से कहा कि राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (या आरपीपी, हिंदू नेपाल की वकालत करने वाली एक दक्षिणपंथी पार्टी) से जुड़े कुछ राजनेता ईसाई विरोधी भावनाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं.

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रिपोर्ट में नेपाल में विशेष रूप से ईसाइयों, मुसलमानों, तिब्बती शरणार्थियों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ देखी जा रही विभिन्न भेदभावपूर्ण प्रथाओं की चर्चा भी की गई है.

बयान में लिखा गया है, "नागरिक समाज के नेताओं ने कहा कि भारत में हिंदू समूह नेपाल में राजनेताओं, विशेष रूप से आरपीपी पर हिंदू राज्य में वापसी का समर्थन करने के लिए दबाव डालते रहे हैं. गैर सरकारी संगठनों और ईसाई नेताओं के अनुसार, छोटी संख्या में हिंदुत्व (हिंदू राष्ट्रवादी) समर्थकों ने सोशल मीडिया पर ईसाइयों के लिए एक प्रतिकूल माहौल बनाने का प्रयास किया और "उच्च जाति" के हिंदुओं को स्थानीय राजनीतिक रैलियों में जाति-आधारित भेदभाव लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया."

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