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नीतीश कुमार: इलेक्ट्रिकल से सोशल इंजीनियरिंग तक का सफर

एक नजर नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर

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तीसरी बार बिहार में नीतीश के सिर ताज सजा है. एक नजर डालते हैं नीतीश के राजनीतिक सफर पर जो 1977 में शुरू हुआ था.

स्नैपशॉट

एक नजर फर्श से अर्श तक:

  • नाम: नीतीश कुमार
  • उम्र: 64
  • जन्मदिन: 1 मार्च , 1951
  • जन्मस्थान: बख्तियारपुर, पटना से 35 किलोमीटर दूर
  • पढ़ाई- लिखाई: बीटेक (इलेक्ट्रिकल) बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से (अब एनआईटी कहलाता है)
  • पिता: स्वर्गीय लखन बाबू उर्फ वैद्य जी, एक स्वतंत्रता सेनानी
  • पत्नी: स्वर्गीय मंजु सिन्हा, स्कूल टीचर
  • बेटा: निशांत, बीआईटी मेसरा से इंजीनियरिंग ग्रैजुएट
  • पसंदीदा खाना: बटर मसाला डोसा

नीतीश कुमार का लहरों के विपरीत तैरने का इतिहास रहा है. 1977 में जब लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान समेत जनता पार्टी के सारे दिग्गज लोकसभा चुनाव जीत गए थे, नीतीश को हरनौत से विधानसभा चुनावों में भी हार का सामना करना पड़ा था, जोकि उनके गृहनगर नालंदा की कुर्मी बहुल विधानसभा सीट थी.

वहीं इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए 1985 के विधानसभा चुनावों में, जब जनता दल के अधिकांश नेता (पूर्व प्रधानमंत्री के पक्ष में चली) सहानुभूति की लहर में अपना चुनाव हार गए थे, तब नीतीश ने हरनौत से विधानसभा चुनावों में पहली बार जीत दर्ज की थी और विधायक बने थे. यह वही हरनौत विधानसभा सीट थी, जहां से उन्हें लगातार दो बार (1977 और 1980 में) हार का सामना करना पड़ा था. 1951 में जन्मे नीतीश ने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

राजनीति में पहला कदम

राजनीति से नीतीश 1970 के दशक के मध्य में जुड़े. तब वह बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज (अब एनआईटी, पटना) से बी. टेक. (इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग) कर रहे थे. अपने गुरु और समाजवादी जय प्रकाश नारायण के कहने पर उन्होंने छात्र आंदोलन में भाग लिया, और आपातकाल के दौरान जेल भी गए.

आपातकाल के हटने के बाद अपने अन्य युवा सहयोगियों की तरह उन्होंने भी राजनीति के दलदल में उतरने का फैसला किया. दो असफल कोशिशों के बाद अंतत: 1985 में वह विधानसभा में अपना पहला कदम रखने में कामयाब हुए.

एक नजर नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर
दो असफल प्रयासों के बाद राजनीति में अपनी जगह बनाने वाले नीतीश कुमार को असफलता कभी डिगा नहीं पाई (फोटो: पीटीआई)

मृदुभाषी, तेजतर्रार और कुशल वक्ता नीतीश ने जल्द ही अपने संयमित और प्रभावशाली भाषणों के जरिए लोगों के दिल में अपने लिए जगह बना ली. 1987 में उन्हें युवा लोकदल का अध्यक्ष चुना गया और 1989 में वह जनता दल के महासचिव बन गए.

उसके बाद नीतीश कुमार से नवंबर 1989 में हुए लोकसभा चुनावों में बाढ़ से अपनी दावेदारी पेश करने को कहा गया. पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे नीतीश ने उन चुनावों में कांग्रेस के बड़े नेता राम लखन सिंह यादव को हरा दिया. यादव को शेर-ए-बिहार के नाम से भी जाना जाता था.

एक नजर नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर
मंडल युग के बाद लालू- नीतीश की दोस्ती 1994 तक चली, उसके बाद उन्होंने अपने रास्ते जुदा कर लिए (फोटो: पीटीआई)

बड़े भाई से अलगाव

वीपी सिंह ने उनकी क्षमता को पहचाना और अपनी अल्पावधि वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में नीतीश को केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री के पद पर नियुक्त किया. (हालांकि राम विलास पासवान और शरद यादव को कैबिनेट में जगह दी गई और लालू को मार्च 1990 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों को देखते हुए सीएम की पोस्ट के लिए रिजर्व रखा गया था.)

उन दिनों जब लालू को ताजपोशी के पहले जनता दल के अपने साथी (राम सुंदर दास, जिनके पीछे अजीत सिंह और रघुनाथ झा थे, और इन दोनों के पीछे चंद्रशेखर थे) से ही चुनौती मिलनी शुरू हुई, तब नीतीश ने उनका पुरजोर समर्थन किया था.

मंडल युग के बाद नीतीश और लालू की दोस्ती 1994 तक चली. कुछ विश्लेषकों के मुताबिक नीतीश की महात्वाकांक्षाओं ने उसके बाद पैर पसारना शुरू किया. अपने करीबी दोस्त, जिसे नीतीश अपना बड़ा भाई मानते थे से अपना रास्ता अलग करने के बाद नीतीश ने जोशीले समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिज के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया और जॉर्ज को पार्टी का प्रमुख बनाया.

एक नजर नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर
जॉर्ज फर्नांडिज के साथ मिलकर नीतीश ने बीजेपी के साथ दूरी पाटने के ठोस प्रयास किए (फोटो: रॉयटर्स)

बीजेपी का साथ

अगले ही साल नीतीश ने बिहार, जो तब एक अविभाजित राज्य था, की जनता के सामने समता पार्टी के रूप में जनता दल, बीजेपी और कांग्रेस के इतर एक और विकल्प पेश किया. लेकिन मुख्यत: उनकी अपनी बिरादरी कुर्मियों से भरी समता पार्टी को उन चुनावों में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. अविभाजित बिहार की 324 विधानसभा सीटों में से उनकी पार्टी सिर्फ 7 सीटें ही जीत पाई. हालांकि 167 सीटें जीतने के साथ ही लालू बिहार में पिछड़ी जातियों के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरकर सामने आए और लगातार दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री भी बने.

लेकिन असफलता न तो 70 के दशक में और न ही 90 के दशक में नीतीश को डिगा पाई. यह बात समझ में आते ही कि सिर्फ कुर्मियों, जो संख्या में दूसरी पिछड़ी जाति यादव से काफी कम थे, के दम पर वह दोस्त से दुश्मन बने लालू को बिहार की गद्दी से हटा पाने में कामयाब नहीं होंगे, नीतीश ने दोबारा अपनी रणनीति पर काम किया.

1995 के अंत में उन्होंने जॉर्ज फर्नांडिज के साथ मिलकर बीजेपी के साथ दूरी पाटनी शुरू की. 1996 के उस दौर में समता पार्टी ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया, जब शिव सेना और अकाली दल को छोड़कर कोई अन्य पार्टी इस भगवा दल के साथ आने को तैयार नहीं थी.

सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति

दो साल बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तब नीतीश ने कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ली. वाजपेयी सरकार के अंतर्गत उन्होंने रेल, भूमि परिवहन और कृषि मंत्री के रूप में 1998 से 2004 तक अलग-अलग पदों पर काम किया. इस बीच वह मार्च 2000 में सात दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री भी बने थे, लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित न कर पाने के कारण उन्हें यह पद छोड़ना पड़ा था।

एक नजर नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर पर
अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, महादलित और अल्पसंख्यकों के साथ बनाए गए इंद्रधनुषीय गठजोड़ ने नीतीश के पक्ष में काम किया (फोटो: पीटीआई)

लेकिन पहले की ही तरह, जब असफलता ने उनके इरादों को और मजबूती ही दी थी, तब भी नीतीश ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति पर दोबारा काम किया और अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, महादलित और अल्पसंख्यकों को मिलाकर एक इंद्रधनुषीय गठबंधन की रचना की. पांच साल बाद इसी गठजोड़ ने नवंबर 2005 में हुए विधानसभा चुनावों में उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री पद की गद्दी पर पहुंचा दिया और लालू-राबड़ी के 15 साल के राज का खात्मा हुआ.

आज, जबकि वह तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं (मार्च 2000 और फरवरी 2015 को जोड़ा जाए तो तकनीकी रूप से पांचवी बार), नीतीश की जिंदगी पूरा एक चक्कर लगा चुकी है. अब वह अपने उसी दोस्त की मदद से सत्ता में आए हैं, जो पिछले दो दशकों से उनका सबसे बड़ा दुश्मन था. लेकिन दोनों के ही दुश्मन मोदी से लड़ने के लिए, नीतीश ने सोचा होगा कि दुश्मन के दुश्मन को दोस्त बनाना सही फैसला होगा. उसके बाद जो हुआ वह तो इतिहास ही है

(लेखिका बिहार में पत्रकार हैं)

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