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बिहार लोकसभा चुनाव: नीतीश कुमार के हाथ में 'कमल', ये इशारा है या मजबूरी?

Nitish Kumar Bihar Politics: नीतीश कुमार इस साल जनवरी में महागठबंधन छोड़कर दोबारा एनडीए में शामिल हो गए थे.

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बिहार (Bihar) के सियासी गलियारों में एक तस्वीर की खूब चर्चा हो रही है. ये तस्वीर है- मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) की. रविवार, 12 मई को प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) प्रचार के लिए पटना पहुंचे थे. पीएम मोदी का रोड शो चल रहा था. इस दौरान पीएम के साथ रथ पर सवार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी (BJP) का चुनाव चिह्न 'कमल' दिखाते नजर आए.

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Nitish Kumar Bihar Politics: नीतीश कुमार इस साल जनवरी में महागठबंधन छोड़कर दोबारा एनडीए में शामिल हो गए थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.

(फोटो: स्क्रीनशॉट)

पीएम मोदी के साथ नीतीश कुमार की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो गई. इस तस्वीर के अलग-अलग मतलब निकाले जाने लगे. रोड शो के दौरान उनकी बॉडी लैंग्वेज को लेकर भी कई तरह की चर्चा रही. सवाल उठ रहे हैं कि ये कोई इशारा था या फिर मजबूरी है.

तस्वीर में प्रधानमंत्री मोदी के दाएं तरफ रविशंकर प्रसाद हैं, तो बाएं तरफ नीतीश कुमार. नीतीश कभी कमल के निशान को एक हाथ से दूसरे हाथ में लेते हैं तो कभी अपना हाथ नीचे की तरफ कर लेते हैं. इस दौरान वो काफी असहज भी नजर आते हैं.

राष्ट्रीय जनता दल (RJD) भी कहां चुप रहने वाली थी. राज्यसभा सांसद मनोज झा ने ट्वीट करते हुए नीतीश कुमार पर तंज कसा.

Nitish Kumar Bihar Politics: नीतीश कुमार इस साल जनवरी में महागठबंधन छोड़कर दोबारा एनडीए में शामिल हो गए थे.

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी कहते हैं, "इन दिनों वो (नीतीश) बहुत स्वस्थ भी नहीं है. पीएम के साथ रोड शो में वो एकदम विवश, लाचार, थके हुए दिख रहे थे. उनके भाषणों में भी वो ऊर्जा नहीं दिखती है और कुछ का कुछ बोल देते हैं. अपने आप पर उनका नियंत्रण भी नहीं दिखता है."

वहीं एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज पटना के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, "मैंने इससे पहले कभी किसी गठबंधन के नेता को दूसरे पार्टी का सिंबल हाथ में लिए नहीं देखा था. लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि नीतीश बीजेपी में शामिल होने जा रहे हैं."

क्या नीतीश की प्रासंगिकता खत्म होती जा रही है?

इस साल जनवरी के अंत में नीतीश कुमार ने एक बार फिर सियासी पलटी मारी और आरजेडी का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. 28 जनवरी को नीतीश कुमार नौवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की कुर्सी पर काबिज हुए. हालांकि, इसके बाद उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता और भविष्य पर सवाल उठने लगे.

ये सवाल उठना लाजमी था. नीतीश ने लोकसभा चुनावों में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए 2023 में जिस INDIA गठबंधन की नींव रखी थी, लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उससे अलग हो गए. लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया?

नीतीश कुमार ने इसकी दो वजह बताई थी:

  1. "सभी दलों को एक साथ लाने का काम हमने किया था लेकिन वहां सबकुछ बहुत धीरे चल रहा था, जिससे मन दुखी था."

  2. आरजेडी पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा था, "हमारी पार्टी को तोड़ने की कोशिश की जा रही थी. बिहार में जो काम हो रहा था उसमें अकेले श्रेय लेने की होड़ मची थी."

अगर नीतीश को पार्टी के टूटने का ही डर था तो बता दें कि 2022 में उन्होंने बीजेपी पर जेडीयू को 'तोड़ने' और 'खत्म' करने का आरोप लगाया था और प्रदेश की एनडीए सरकार से अलग हो गए थे.

जानकारों का मानना है कि केंद्र की सत्ता पर नजर टिकाए नीतीश कुमार के इस बार पाला बदलने के पीछे दो वजह रहीं.

  1. नीतीश कुमार को उम्मीद थी कि उन्हें इंडिया गठबंधन में प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

  2. बिहार में कथित तौर पर लालू यादव तख्तापलट की फिराक में थे. जेडीयू के भी एक वरिष्ठ नेता पर इसमें शामिल होने के आरोप लगे.

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी कहते हैं, "नीतीश कुमार के लगातार पाला बदलते रहने की वजह से उन्हें अब बिहार की राजनीति में उतना महत्व नहीं मिल रहा है. पिछले कुछ सालों से उनकी राजनीति का एक ही मकसद रहा है- मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहना. इसी में उनका सियासी कद घटा है. साथ ही जनता के मन में भी अब उनकी वैसी इमेज नहीं रही है."

नीतीश कुमार की गिरती साख JDU के चुनावी नतीजों में साफ झलक रही है. 2010 में 115 सीटें जीतने वाली पार्टी 2020 में मात्र 43 सीटों पर सिमट गई, जो दर्शाता है कि जेडीयू की ताकत घटी है. सीएम की कुर्सी पर लगातार बने रहने के बावजूद, नीतीश की पार्टी के घटते प्रभाव ने उन्हें सत्ता में टिके रहने के लिए गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर बना दिया है.

जानकार कहते हैं कि इसलिए उन्हें लगातार कहना पड़ रहा है कि अब वो एनडीए छोड़कर कहीं और नहीं जाएंगे. नीतीश खुद भी आरजेडी से हाथ मिलाने को अपनी गलती मानते हैं.

जब मोदी के पांव छूते नजर आए नीतीश

चुनावी सीजन में नीतीश कुमार की एक और तस्वीर चर्चा में रही. 7 अप्रैल को नवादा जिले में चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार प्रधानमंत्री मोदी के पैर छूते नजर आए थे. जिसके बाद नीतीश की आलोचना हुई थी. साथ ही उनके इस व्यवहार पर सवाल भी उठे थे.

Nitish Kumar Bihar Politics: नीतीश कुमार इस साल जनवरी में महागठबंधन छोड़कर दोबारा एनडीए में शामिल हो गए थे.

7 अप्रैल को नवाद में आयोजित रैली की तस्वीर

(फोटो: स्क्रीनशॉट)

तब तेजस्वी यादव ने कहा था, "नवादा में जो देखा, उसे देखकर हम बहुत शर्मिंदा हुए. क्या मजबूरी रही है कि आज मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पैर छूना पड़ रहा है. वे हर समय बोलते थे. अटल और आडवाणी का जमाना अलग था. आज पैर छूते देखकर बहुत पीड़ा हुई है."

इसी रैली में अपने भाषण के दौरान नीतीश कुमार से कई गलतियां भी हुई थी. उन्होंने लोगों से वोट देकर 4 हजार सीटें जीताने की भी बात कही थी. "हमको उम्मीद है कि प्रधानमंत्री के पक्ष में 4 लाख… 4000 सांसद, उससे भी ज्यादा सांसद रहेंगे यहां, प्रधानमंत्री के पक्ष में."

नवादा की रैली के बाद नीतीश, पीएम मोदी की कुछ सभाओं में मौजूद नहीं रहे थे. जिसके बाद चुनाव प्रचार में उन्हें साइड लाइन करने को लेकर चर्चाएं शुरू हो गई थी. हालांकि बाद में नीतीश और पीएम मोदी मुंगेर लोकसभा सीट पर प्रचार के दौरान एक साथ दिखे.

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वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडेय कहते हैं, "नीतीश कुमार पर उनकी उम्र और सेहत का असर साफ तौर पर दिख रहा है. वो कहीं भी कुछ भी बोल दे रहे हैं. राजनेता के तौर पर वो बीजेपी की नजर में भी बोझ हो गए हैं. इसी वजह से चुनाव प्रचार में पार्टी उनसे किनारा कर रही है."

नीतीश कुमार के बयानों से क्या समझ में आता है?

बिहार में नीतीश की पहचान 'सुशासन कुमार' के रूप में बनी थी. लेकिन पिछले कुछ सालों में उनकी ये छवि पर सवाल उठते रहे हैं. अपने हालिया बयानों की वजह से भी उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा है. चाहें वो विधानसभा में दिया बयान हो या फिर लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाषण.

आज भी 'जंगलराज' की बात: नीतीश कुमार अपने भाषणों में लालू और राबड़ी देवी के शासनकाल का जिक्र करते हुए आरजेडी पर निशाना साध रहे हैं. वो लगातार 'जंगलराज' की बात कर रहे हैं.

जानकारों का कहना है कि उनके भाषणों में बिहार के विकास को लेकर न ही कोई नया नजरिया है और न ही वो कोई नया मॉडल पेश कर पाए रहे हैं. ऐसे में वो जनता को बिहार के 'जंगलराज' का डर दिखाकर अपना वोट बचाना चाहते हैं.

बता दें कि 1990 से लेकर 2005 तक बिहार में आरजेडी की सरकार रही है. इसके बाद 2005 में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. पिछले 19 सालों से वो सत्ता में काबिज हैं, इस दौरान दो मौके (2015 और 2022) ऐसे भी आए जब उन्होंने आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बनाई.

परिवारवाद: नीतीश लालू यादव पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहे हैं. इसके साथ ही वो ज्यादा बच्चे पैदा करने को लेकर भी तंज कसते दिख रहे हैं. जिसपर पहले भी विवाद हो चुका है. हालांकि, अब आरजेडी उनके बयानों को ज्यादा तव्ज्जो नहीं दे रही है.

तेजस्वी ने उनके बयान पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "सीएम नीतीश बुजुर्ग हैं, वे कुछ भी बोल सकते हैं."

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विकास के खोखले दावे: अपने भाषणों में नीतीश पिछले कार्यकाल के कामों को दोहराते नजर आते हैं. तेजस्वी यादव ने शिक्षकों की भर्ती का क्रेडिट लिया तो नीतीश इसे अपना बताने में जुटे हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित अन्य क्षेत्रों में वो विकास के दावे भी करते हैं. लेकिन हकीकत बेहद जुदा है.

NITI आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, बहुआयामी गरीबी के मामले में बिहार पहले पायदान पर है. 2019-21 में 33.76% आबादी इसके जद में थी. इसी रिपोर्ट में कहा गया है, 2019-21 और 2022-23 के बीच करीब 7% आबादी बहुआयामी गरीबी से बाहर निकली है. लेकिन अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक 2022-23 में 26.59% आबादी बहुआयामी गरीबी के अंदर है, जो की अभी भी देश में सबसे ज्यादा है.

दूसरी तरफ NITI आयोग की स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सूचकांक में भी बिहार बड़े राज्यों में निचले पायदान पर है.

"नीतीश कुमार के बयान में वो नयापन कहां से दिखेगा? वो कुछ नया कर ही नहीं रहे हैं. नीतीश जी का यूएसपी अब खत्म हो चुका है. उनका यूएसपी था- गुड गवर्नेंस और बिहार का गुड गवर्नेंस खत्म है. उनका यूएसपी था डेवलपमेंट, अब डेवलपमेंट की स्थिति देख ही रहे हैं."
डीएम दिवाकर, पूर्व निदेशक, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, पटना

ऐसे कम होता गया जेडीयू का कद

'राजनीतिक अवसरवादिता' को ही जानकार मुख्य वजह मानते हैं जिसकी वजह से नीतीश कुमार के साथ-साथ उनकी पार्टी की साख गिरी है और बीजेपी आगे बढ़ी है.

लोकसभा चुनाव के लिए टिकट बंटवारे में भी पार्टी को 1 सीट का नुकसान उठाना पड़ा. बिहार NDA के घटक दलों के बीच हुई सीट शेयरिंग में बीजेपी का अपर हैंड रहा. प्रदेश की 40 में से 17 पर बीजेपी और 16 सीटों पर JDU चुनाव लड़ रही है. वहीं चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को पांच सीटें मिली हैं और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) को एक-एक सीटें मिली हैं.

ये पहली बार है जब भारतीय जनता पार्टी सीटों के मामले में नीतीश कुमार की JDU से आगे निकली है. इससे पहले लोकसभा हो या विधानसभा, बीजेपी और जेडीयू के बीच या तो 50-50 का फॉर्मूला रहा या फिर जेडीयू अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती आई है.
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NDA का सीट शेयरिंग फॉर्मूला प्रदेश में बीजेपी के बढ़ते कद का संकेत है. प्रवीण बागी इसका कारण समझाते हुए कहते हैं, "नीतीश कुमार का जनाधार घटा है. विधानसभा चुनाव में जो सीटें कम हुई हैं, इस वजह से उनकी बार्गेनिंग पावर खत्म हो गई. इसके अलावा सुशासन वाली जो उनकी छवि थी, उसमें भी गिरावट आई है. पाला बदलने की वजह से भी उनको उतना महत्व नहीं मिल रहा है."

वहीं डीएम दिवाकर कहते हैं, "बीजेपी इनको (नीतीश) भाव इसी वजह से दे रही थी क्योंकि इनकी वजह से बिहार में सेक्युलर वोट का विभाजन होता था. लेकिन अल्पसंख्यक इस बात को बहुत अच्छे तरीके से समझ गए हैं कि अब नीतीश कुमार को वोट नहीं देना है."

वो आगे कहते हैं, "मुस्लिम वोटर्स पहले विनिंग नॉन बीजेपी कैंडिडेट्स के साथ खड़ा होते थे, लेकिन अब वो विनिंग नॉन बीजेपी, नॉन जेडीयू कैंडिडेट के साथ खड़े हो रहे हैं."

अपना नेतृत्व खड़ा करने की कोशिश में बीजेपी

दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि बीजेपी नीतीश के कद को कम करके बिहार में अपना नेतृत्व खड़ा करने की कोशिश में है. अब तक नीतीश बड़े भाई की भूमिका में थे, लेकिन बीजेपी धीरे-धीरे बड़े भाई की भूमिका में आ गई है.

डीएम दिवाकर कहते हैं,

"इनकी (नीतीश) हैसियत को बीजेपी धीरे-धीरे कम करती गई है और कोशिश कर रही है कि उसका अपना नेतृत्व उभरे. नीतीश के रहते ऐसा हो नहीं सकता था, इसलिए बीजेपी उनका कद ही छोटा करने में जुटी है और इस कोशिश में वो सफल रही है."

प्रवीण बागी कहते हैं कि राजनीति में जिसकी ताकत नहीं होती, उसका वजन खुद-ब-खुद गिर जाता है. इसी वजह से बीजेपी ने उन्हें 'छोटे भाई' का अहसास करवाया है.

2020 विधानसभा चुनाव में जेडीयू 43 सीट पर पहुंच गई. 10 सालों में पार्टी का वोट शेयर 22.58% से गिरकर 15.39% पर पहुंच गया.

बहरहाल, जानकारों का कहना है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे कि बिहार में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का भविष्य कैसा होगा? बता दें कि 2025 में बिहार में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, ऐसे में आम चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन पर बहुत कुछ निर्भर करता है.

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