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'मेड इन हेवन' से लेकर नेताओं के बयान तक, बहुविवाह पर सबके तथ्य गलत क्यों हैं?

क्या सही में बहुविवाह सिर्फ मुस्लिम सवाल है? डेटा क्या दिखाता है?

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रूह-अफजा. शरारा. अदब और...बहुविवाह? लोकप्रिय वेब सीरीज, मेड इन हेवन (Made In Heaven) के दूसरे सीजन में, एक एपिसोड है जो मुख्य रूप से बहुविवाह (जब एक पुरुष एक साथ दो या दो से अधिक महिलाओं के साथ शादी में रहता है) से संबंधित है.

इस पर कयास लगाने की जरूरत नहीं कि यह एपिसोड एक मुस्लिम कपल से जुड़ा है. सच यह है कि सीरीज के निर्माता सिर्फ एक बार मुस्लिम कपल को उनकी धार्मिकता के साथ स्क्रीन पर लाते हैं, इसके जरिए बहुविवाह प्रथा की बात हो जाती है. 

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दीया मिर्जा शहनाज नाम के किरदार में हैं और इसमें वो कहती हैं, "मैं सिर्फ मुस्लिम नहीं हूं, बल्कि इस देश की नागरिक भी हूं". एपिसोड में वो बहुविवाह पर कानूनी तौर पर बैन लगाने की बात करती हैं.

शो के निर्माता भले ही नेक इरादे वाले हों लेकिन ऐसे समय में जब मुसलमान हेट क्राइम और हेट स्पीच का शिकार हो रहे हैं, अपना घर, नौकरियां और जिंदगियां खो रहे हैं, तो क्या यही एकमात्र मुद्दा था जो चुनने लायक था? क्या यह पूरा एपिसोड रूढ़िवादिता को बढ़ावा देने और विवादास्पद समान नागरिक संहिता की खुले तौर पर पैरवी के रूप में सामने नहीं आता है? इससे सवाल उठता है: भारत में बहुविवाह की असलियत क्या है?

सबसे पहले कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं:

  • पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, भारत में बहुविवाह का प्रचलन काफी कम था.

  • यह 2019-21 में 1.4% था.

  • मुसलमानों में बहुविवाह 1.9% है.

  • वहीं हिंदुओं में 1.3%.

  • अन्य समुदायों में 1.6% है. 

  • राज्य-वार, हिंदुओं के बीच बहुविवाह तेलंगाना, ओडिशा और तमिलनाडु में ज्यादा प्रचलन में था.

  • जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और पंजाब में कम है.

  • मुसलमानों के बीच बहुपत्नी विवाह ओडिशा, असम और पश्चिम बंगाल में अधिक थे और जम्मू और कश्मीर में कम थे.  

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि बहुपत्नी विवाह किसी समाज और संस्कृति से बिल्कुल अलग नहीं है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और संस्कृति की स्थिति से गहराई से जुड़े हुए हैं. लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसे आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो राजनीतिक रूप से अपवादों का फायदा उठाने पर आधारित है.  

'मेघालय में आदिवासियों में बहुविवाह सबसे ज्यादा प्रचलित’  

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कथित तौर पर पिछले साल मई में कहा था कि एक समान नागरिक संहिता "मुस्लिम बेटियों" के लिए "सुरक्षा" के रूप में काम करेगी. उन्होंने बार-बार बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने की मांग की और UCC की वकालत की है.   

एनएफएचएस-5 डेटा के अनुसार, असम में हिंदू महिलाओं के बीच बहुविवाह की दर लगभग 1.8% थी, जबकि मुस्लिम महिलाओं में यह 3.6% थी. सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट की वकील नबीला जमील ने कहा कि भारतीय दंड संहिता में द्विविवाह यानि दो विवाह को पहले से ही अपराध माना गया है. लेकिन कोई नहीं जानता कि UCC में क्या होगा.

वो कहती हैं कि  "UCC को एक ऐसे कोड के रूप में पेश किया जा रहा है जो आदिवासी समुदायों को छूट देगा, जिनमें बहुविवाह सबसे आम है. इसमें कोई स्पष्टता नहीं है कि क्या रीति-रिवाजों को कोड से छूट दी जाएगी या नहीं, क्योंकि उन्हें हिंदू कोड और विशेष विवाह अधिनियम में छूट दी गई है. 

उन्होंने द क्विंट को बताया कि, "आज यह कहना मुश्किल है कि UCC बहुविवाह प्रथा को रोकने का समाधान कैसे है."

दूसरी ओर, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) के कार्यकारी सदस्य और प्रवक्ता और वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष सैयद कासिम रसूल इलियास ने कहा है कि उपलब्ध डेटा और शोध के बावजूद बहुविवाह की बात आने पर लोग मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार करना चाहते हैं.   

यदि आप कोई कानून लाने का सुझाव भी देते हैं, तो आपको इसे तर्क और आंकड़ों के साथ प्रमाणित करना चाहिए. भारत में पुरुष और महिला के अनुपात को देखें . यह 1000 पुरुषों पर 924 महिलाएं हैं. संविधान कहता है कि UCC पूरे देश में लागू होगा, फिर आप पूर्वोत्तर के आदिवासियों और ईसाइयों को छूट क्यों दे रहे हैं? तो फिर, क्या UCC एक राजनीतिक उपकरण के रूप में सामने नहीं आता?  
सैयद कासिम रसूल इलियास
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता एसक्यूआर इलियास कहते हैं, बहुपत्नी विवाह अन्य समूहों की तुलना में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) में सबसे अधिक प्रचलित पाया गया और समय के साथ सभी जाति समूहों में इसमें गिरावट आई है. इन आंकड़ों से परे, एनएफएचएस-5 में यह भी कहा गया है कि "आपको यह ध्यान में रखना होगा कि भारत में बहुविवाह का प्रचलन कम है और यह खत्म हो रहा है. बहुविवाह के जनसांख्यिकीय, स्वास्थ्य और लिंग संबंधी परिणामों की और जांच करने की आवश्यकता है ".

आम धारणा है कि इस्लाम परिवार नियोजन के खिलाफ है. यही कारण है कि भारतीय मुसलमान बहुविवाह करते हैं, जिसने दशकों से हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच दूरियां बढ़ाई हैं.  

यदि कुछ बहुपत्नी विवाह होते भी हैं, तो जनसंख्या वृद्धि पर उनका प्रभाव नकारात्मक होता है क्योंकि तब अविवाहित पुरुषों की संख्या भी उतनी ही होगी. इसके अलावा, दूसरी पत्नी से होने वाले बच्चों की संख्या हमेशा इकलौती पत्नी की तुलना में बहुत कम होती है. भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त डॉ. एस वाई कुरैशी ने अपनी पुस्तक 'द पॉपुलेशन मिथ'  में इस सवाल को उठाया है कि आखिर सिर्फ मुसलमानों को बहुपत्नी के रूप में क्यों दिखाया जाता है?'.

यहां, 'सरला मुद्गल बनाम भारत संघ, 1995' और फिर 'लिली थॉमस बनाम भारत संघ, 2000' मामले को भी ध्यान देना जरूरी है. इसमें पहली पत्नी से छुटकारा पाने और दूसरों के साथ रहने की एक चाल के रूप में हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण की प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था.  

एक शो जिसने कम से कम खुद को इनक्लूसिव दिखाया था, उसने सबसे रूढ़िवादी तरीके से मुस्लिम समुदाय का चित्रण किया. ये कहने का मतलब यह नहीं है कि मुसलमानों में बहुविवाह प्रथा मौजूद नहीं है. बेशक, ऐसा होता है, क्योंकि यह भारत के दूसरे समुदायों में भी यह होता है.  समस्या यह है कि केवल मुस्लिम समाज को ही बहुपत्नी के रूप में क्यों पेश किया जाता है? उन हिंदुओं और आदिवासियों के बारे में क्या जो बहुविवाह करते हैं?

एडवोकेट नबीला जमील इलियास ने भी कहा कि फिल्मों में ‘प्रतिनिधित्व’ जाने-अनजाने में एक नैरेटिव स्थापित कर देता है. "हमने द केरल स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों में नफरत की राजनीति देखी है, जो एक निश्चित नैरेटिव दिखाती है. अब हमारे पास आंकड़े हैं, किसी को ऐसा करने से पहले दो बार सोचना चाहिए. बहुविवाह को भी इस्लाम केवल सशर्त अनुमति देता है, लेकिन दूसरे समुदायों में द्विविवाह  करने का क्या कारण हैं? या बहुविवाह पर फिर कोई शिकायत क्यों नहीं है?"  पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी अपनी किताब में लिखते हैं कि,

“भारत में बहुविवाह, खासकर विवाह ही धार्मिक से अधिक सांस्कृतिक बात हैं. समय बीतने के साथ इस्लाम ने उन सांस्कृतिक प्रथाओं उदाहरण के लिए बहुविवाह के खिलाफ जो निषेधाज्ञाएं जारी की है उनको इस्लाम के नाम पर बचाव करने की अजीब कोशिशें की जा रही हैं.”  
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बहुविवाह पर इस्लामी रुख को लेकर बड़ी गलतफहमी  

इसके अलावा एडवोकेट जमील ने कहा कि इस एपिसोड में "बहुविवाह और इस पर इस्लामी नजरिए को लेकर शोध की कमी थी. किसी मर्द का किसी दूसरी महिला के साथ विवाहेतर संबंध रखना कितना इस्लामी है, ऐसे सवालों पर रिसर्च नहीं थी? 

अपनी पत्नी, अपने बच्चों की मां और सबसे अहम एक दूसरे इंसान को मुश्किल में डालने पर इस्लामिक नजरिए का जिक्र शो में नहीं था... सीरीज देखते समय ऐसा नहीं होने से बहुत गुस्सा भी आया. इस बहस के केंद्र में जो धारणा है वो यह है कि मुसलमान बहुत अधिक बच्चे पैदा करते हैं और यह सब बहुविवाह की वजह से होता है. बहुविवाह के कारण जनसंख्या बढ़ती है .. 

कुरैशी ने अपनी किताब में इस बारे में लिखा है कि, हकीकत यह है कि इस्लाम बहुविवाह को सिर्फ दो शर्तों पर इजाजत देता है. अनाथ से शादी और समान व्यवहार देना. यहां तक इस इजाजत का भी एक ऐतिहासिक संदर्भ है. डॉ एस वाई कुरैशी लिखते हैं कि अनाथ के लिए रास्ता निकालने के संदर्भ में ही सिर्फ इसका जिक्र है.  

पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी अपनी किताब पॉपुलेशन मिथ के अध्याय पांच में लिखते हैं कि दो-विवाह इस्लाम से पूर्व भी काफी प्रचलित था. जनजातियों के बीच जंग के दौरान काफी लोग दो-विवाह करते थे और इस्लाम ने इस पर सख्ती लगाई. लेकिन सिर्फ अनाथ को अधिकार, राहत और शरण देने के लिए इसकी इजाजत दी गई.

वो अपनी किताब में लिखते हैं कुरान में इस बारे में दो लाइनें (वर्स) लिखी हैं जहां बहुविवाह को शर्तों के साथ मंजूरी है. इसे लेकर कई चेतावनियां हैं. बाद में जो लाइनें लिखी गई हैं उसमें कहा गया है कि चाहकर भी एक शख्स अपनी दो बीवी के साथ इंसाफ नहीं कर सकता है. इसलिए चाहकर भी आप बराबरी का हक नहीं दे सकते हैं, इसलिए एक ही शादी करिए.  इस बात से ये साबित हो जाता है कि बहुविवाह या दो विवाह एक ऐतिहासिक संदर्भ में सिर्फ शर्तों के साथ मान्य था और आजकल जो बेजा इस्तेमाल हो रहा है, वो सही नहीं है.   

इस बारे में इलियास कहते हैं, "जब एक महिला बच्चे को जन्म देने में सक्षम नहीं होती है और वे एक परिवार बनाना चाहते हैं, तो कुछ पुरुष बच्चे के लिए दूसरी महिला से शादी कर लेते हैं क्योंकि वे विवाहेतर संबंध या तलाक नहीं चाहते हैं और अपनी पहली पत्नी को छोड़ना नहीं चाहते हैं.” 

लेकिन यह शर्तों के साथ आता है. इसके अपने परिणाम होते हैं: आप न्याय नहीं कर सकते, और शादी एक बड़ा आर्थिक बोझ भी है. कुछ लोग गुमराह भी होते हैं और राजनीतिक नेता जो कहते हैं उस पर विश्वास करते हैं."   

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बहुविवाह पर ‘भड़काऊ बयानबाजी’  पुरानी बात   

नरेंद्र मोदी, जब 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने मजाक में टिप्पणी की थी: "हम पांच, हमारे पच्चीस." इस तरह की बातों से पता चलता है कि हरेक मुसलमान की चार पत्नियां और 25 बच्चे हैं. इसके अलावा, जो आम हिंदू दक्षिणपंथी धारणा हैं .. वो भी गलत है. दरअसल कुरान ने कहीं भी परिवार नियोजन पर रोक नहीं लगाया है. हां इसके पक्ष और विपक्ष में केवल राय दी है.  

दरअसल, NFHS -5 के अनुसार, भारत में मौजूदा 15-49 वर्ष की विवाहित महिलाओं के बीच परिवार नियोजन की कुल मांग 2015-16 में 66% से बढ़कर 2019-21 में 76% हो गई है.  

किताब, 'द पॉपुलेशन मिथ' में यह भी कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का मानना ​​है कि जो लोग UCC के खिलाफ हैं, वे आरएसएस-फोबिया पैदा करके समुदाय को गुमराह करते हैं, उनका मानना है कि आरएसएस के लिए UCC का वास्तविक उद्देश्य बहुसंख्यकवाद है. 

किताब में लिखा है, "RSS एक UCC के लिए खड़ा है जो अनुष्ठानों, स्थानीय और सामुदायिक परंपराओं जैसे सूक्ष्म सवालों की बात नहीं करता. मुख्य रूप से विवाह, इसके विघटन, उत्तराधिकार और महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार जैसे मुद्दों की बात करता है.   

किताब में एमएस गोलवलकर (RSS प्रमुख, 1940-1973) के एक साक्षात्कार का एक अंश भी शामिल है जिसमें उन्होंने कहा था कि "चार पत्नियों से शादी करने का अधिकार मुस्लिम आबादी बढ़ने का कारण है ". 

उन्होंने कहा कि मुसलमानों को अपने पुराने कानूनों को दुरुस्त करना चाहिए. RSS ने हिंदुओं को बार-बार बड़े परिवार रखने और अधिक बच्चे पैदा करने की सलाह दी थी क्योंकि छोटे परिवार के नियम हिंदुओं के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि सभी समुदायों में प्रजनन दर में गिरावट आई है. सबसे तेज गिरावट मुसलमानों में हुई है जो पूरी आबादी का 14.2% हैं. एनएफएचएस-5 डेटा में कहा गया है कि मुस्लिम समुदाय में प्रजनन दर एनएफएचएस 1 (1992-93) में 4.4 से घटकर NFHS 5 (2019-21) में 2.3 % हो गई है. इसलिए, बहुविवाह के प्रवचन और प्रतिनिधित्व को देश की राजनीति और पहले से ही बदनाम अल्पसंख्यक समुदाय के लिए इसके परिणामों से अलग किया जा सकता है.  

एडवोकेट नबीला जमील कहती हैं, जेंडर जस्टिस या महिलाओं के लिए हालात में बदलाव सिर्फ किसी कानून से नहीं होगा..  हमें एक ऐसा समाज तैयार करना होगा कि कानून, समाज और धर्म के बीच संवाद हो सके. जो महिलाएं आस्थावान हैं उनका क्या? वे बहुविवाह को कैसे देखती हैं? इस प्रथा को धर्म और समाज के भीतर कैसे रेगुलेट किया जा सकता है? लैंगिक न्याय की दिशा में पहला कदम इन सवालों का जवाब ढूंढना है. इन सवालों के जवाब को खोजने के लिए क्या रुख अपनाया जाता है... बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है.  

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