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पंजाब:अकाली-BSP गठबंधन का ऐलान, राजनीतिक खेल में होगा बदलाव?

पंजाब चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) 20 सीटों पर और शिरोमणि अकाली दल (SAD) 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

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पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले दो 'पुराने दोस्त' गले मिल रहे हैं. करीब दो दशक बाद शिरोमणि अकाली दल (SAD) और मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) एक बार फिर साथ आ गई है. अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने ऐलान किया है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में 117 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) 20 सीटों पर और शिरोमणि अकाली दल (SAD) बाकी 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

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यह पंजाब की राजनीति में एक नया दिन है, शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी 2022 पंजाब विधानसभा चुनाव और भविष्य के चुनाव एक साथ लड़ेगी.
सुखबीर सिंह बादल

1996 में साथ लड़ा था चुनाव

साल 1996 में शिरोमणि अकाली दल और बीएसपी ने लोकसभा चुनाव साथ लड़ा था, लेकिन फिर दोनों के रास्ते अलग हो गए. अकाली ने बीएसपी से किनारा कर बीजेपी के साथ जाना पसंद किया.

बीजेपी के साथ अकाली का 23 साल का गठबंधन 2020 में एक झटके में समाप्त हो गया. पिछले साल मोदी सरकार के कृषि कानूनों के कारण अकालियों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से खुद को अलग कर लिया. अब अकाली दल अपने पुराने सहयोगी बीएसपी के साथ वापस आ गई है.

द क्विंट ने सितंबर 2020 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि बीजेपी से ब्रेकअप के बाद अकाली बीएसपी से गठबंधन कर सकते हैं. अब बीएसपी के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण क्षण है.

अकाली-बीएसपी की दोस्ती पुरानी

साल 1996 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी के संस्थापक कांशीराम की कोशिशों का ही परिणाम था कि आकाली और बीएसपी में गठबंधन हुआ था, इस चुनाव में बीएसपी सुप्रीमो कांशीराम पंजाब के होशियारपुर सीट से चुनाव जीते थे. अब दोनों पार्टियों का दोबारा गठबंधन ऐसे समय में हुआ है जब बीएसपी अपने सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. उत्तर प्रदेश में भी अगले साल की शुरुआत में पंजाब के साथ चुनाव होने हैं.

चलिए आपको तीन कारण बताते हैं जिससे 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले अकाली-बीएसपी के गठबंधन से पंजाब के राजनीतिक समीकरणों में बहुत कुछ बदल सकता है.

1. सामाजिक गठबंधन

अगर देखा जाए तो यह गठबंधन न केवल एक राजनीतिक गठबंधन का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि एक सामाजिक गठबंधन है, क्योंकि अकाली में जाट सिखों और बीएसपी पर दलितों, विशेष रूप से रविदास के मानने वाले/जाटवों का वर्चस्व है. याद रखें, किसी भी राज्य के मुकाबले पंजाब में दलितों का अनुपात सबसे अधिक 32 प्रतिशत है, जिसमें जाटव समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. वैचारिक रूप से भी, गठबंधन को सिख पंथ और अम्बेडकरवादी राजनीति के बीच गठबंधन के रूप में पेश किया जाएगा.

2017 के विधानसभा चुनावों में अकाली और बीएसपी दोनों का सफाया हो गया था. अकाली का वोट शेयर 2012 में 36.6 प्रतिशत से गिरकर 25.2 प्रतिशत था, जबकि बीएसपी का वोट शेयर 4.3 प्रतिशत से गिरकर सिर्फ 1.5 प्रतिशत रह गया. इन चुनाव में सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) को हुआ था.

हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में अकाली और बीएसपी की हालत थोड़ा बेहतर हुई. जिसमें अकाली दल को 27.8 फीसदी और बीएसपी को 3.5 फीसदी हासिल हुआ था. ये तब हुआ था जब अकाली दल बीजेपी के साथ गठबंधन में थी. अकाली दल को फिरोजपुर और बठिंडा सीट पर जीत हासिल हुई थी. जबकि बीएसपी ने तीन सीटें, जालंधर में 20 प्रतिशत, आनंदपुर साहिब में 13.5 प्रतिशत और होशियारपुर में 13 प्रतिशत सीटों पर प्रभावशाली प्रदर्शन किया था.

यही नहीं अकाली दल पंजाब डेमोक्रेटिक अलायंस का भी हिस्सा थी, जिसमें पंजाबी एकता पार्टी, लोक इंसाफ पार्टी और वामपंथी दल शामिल थे. खास तौर से इस गठबंधन का प्रभाव दोआबा क्षेत्र में हो सकता है, जिसमें दलितों की आबादी ज्यादा है.

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2. मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की कोशिश

बीएसपी के साथ गठबंधन से अकाली दल के पास आम आदमी पार्टी को पछाड़कर पंजाब में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरने का मौका है.

AAP ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और सबको चौंकाते हुए 13 में से चार सीटें जीत ली थी. वहीं 2017 के विधानसभा चुनावों में आप ने 20 पर जीत हासिल कर मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, जब्कि अकाली दल को सिर्फ 15 सीटों से ही काम चलाना पड़ा था.

हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल (SAD ने 23 और आप को सिर्फ सात सीटों पर बढ़त मिली थी. बीएसपी दो विधानसभा क्षेत्रों में आगे रही थी. ऐसा माना जाता है कि अकाली दल ने कुछ जाट सिख वोट हासिल किए थे, जो 2017 में आप की तरफ शिफ्ट हो गए थे.

कृषि कानूनों के लिए समर्थन देने की वजह से अगर अकाली दल ने अपना आधार नहीं खोया है, तो वह बीएसपी की मदद से मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरने की संभावना को भांप सकती है.

बीएसपी, अपनी ओर से, दोआबा के दलित मतदाताओं के बीच अपना समर्थन वापस जीतने की कोशिश करेगी, जो 2017 के चुनावों में कांग्रेस की तरफ बड़े पैमाने पर शिफ्ट हो गए थे.

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3. कांग्रेस को फिर से सोचना पड़ सकता है

SAD-BSP गठबंधन कांग्रेस को चुनाव के लिए अपनी कुछ रणनीति पर फिर से काम करने के लिए मजबूर कर सकता है. पार्टी ने 2017 में बीएसपी से दलित वोट, बीजेपी से सवर्ण हिंदू वोट और अकाली दल से जाट सिख वोट हासिल किए थे.

अब इनमें से हर वोट बैंक खतरे में पड़ सकता है. अकाली-बीएसपी गठबंधन निस्संदेह कांग्रेस से दलित समर्थन और आप और कांग्रेस दोनों से जाट सिख समर्थन हासिल करने की कोशिश करेगा. दूसरी ओर, बीजेपी अपने हिंदू सवर्ण वोट को वापस जीतने की कोशिश करेगी. हालांकि यह दलितों को भी लुभाने की कोशिश कर रही है, लेकिन अब तक इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला है.

इन वोट बैंक को बरकरार रखने के लिए कांग्रेस को ज्यादा मेहनत करनी होगी. जबकि अकाली, कांग्रेस और आप के बीच जाट सिख वोटों का बंटवारा लगभग तय है, अगर किसानों के विरोध में शामिल लोगों का एक वर्ग राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने का फैसला करता है तो यह और भी जटिल हो सकता है.

जाट सिख वोटों के बिखरने को देखते हुए, बहुत कुछ दलित वोटों और सवर्ण हिंदू वोटों पर निर्भर करेगा.

पंजाब में दलितों के अलग-अलग उपखंड हैं - बीएसपी रविदास के मानने वालों के बीच ज्यादा शक्तिशाली रही है और मजहबी और वाल्मीकि के बीच कम.

अकाली-बीएसपी गठबंधन दो राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण है- मायावती और सुखबीर सिंह बादल. मायावती के लिए, गठबंधन उनकी राष्ट्रीय महत्व को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक कदम है, बादल के लिए कृषि कानूनों पर शुरुआती समर्थन देने के नुकसान को दूर करने का मौका.

कांग्रेस को हराना या बेअदबी के मामलों और कृषि कानूनों के दाग हटाना अकालियों के लिए आसान नहीं हो सकता है, बसपा के साथ गठबंधन पंजाब में मुख्य विपक्ष के रूप में इसके पुनरुद्धार और उभरने की दिशा में एक कदम है

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