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राहुल गांधी और जाति जनगणना की मांग: फिर 'कमंडल' का जवाब 'मंडल' में खोजा जा रहा?

Rahul Gandhi ने कर्नाटक के कोलार से पहले 'भारत जोड़ो यात्रा' में भी जातिगत जनगणना की मांग उठाई थी.

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धीरे-धीरे ही सही लेकिन बुलंद होती आवाज के साथ राजनीतिक दल जातीय जनगणना (Caste Census) और सामाजिक न्याय (Social Justice) के मुद्दे पर एकजुट होते दिख रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी की राहुल गांधी को ओबीसी विरोधी बताकर उन्हें घेरने की कोशिश के बाद अब गांधी परिवार के वारिस ने भगवा पार्टी को चुनौती देते हुआ कहा है कि ‘अगर आप सचमुच अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Classes) की परवाह करते हैं, तो उनकी जनगणना कराएं!’

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मौके पर चौका मारने और प्रतीकवाद की लड़ाई की नई-नई हासिल महारत का इस्तेमाल करते हुए राहुल गांधी ने इस मांग को उठाने के लिए कर्नाटक के कोलार शहर को चुना. यही वह शहर है जहां साल 2019 में उन्होंने मोदी सरनेम और “चोरों” के बारे में चर्चित बयान दिया था.

सूरत की एक सेशन कोर्ट से राहुल गांधी को इसके लिए आपराधिक मानहानि का दोषी ठहराए जाने के बाद बीजेपी ने आसमान सिर पर उठा लिया कि मोदी सरनेम की बेइज्जती पूरे ओबीसी समुदाय का अपमान है. भले ही कई टिप्पणीकार पूरी शिद्दत से समझाने में लगे रहे मोदी सरनेम कई जातियों और धर्मों में पाया जाता है और इसकी तुलना पूरे ओबीसी समुदाय नहीं की जा सकती है, लेकिन बीजेपी अपनी बात पर अड़ी रही.

कोलार में अपने भाषण के बाद राहुल गांधी ने इस विवाद में चर्चा के बुनियादी मुद्दे को ही बदल दिया है.

उन्होंने केंद्र सरकार से सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (Socio Economic Caste Census) के आंकड़ों को सार्वजनिक करने के लिए कहा ताकि ओबीसी आबादी की गिनती को जाना जा सके. उन्होंने आरक्षण पर 50% की सीमा हटाने की भी मांग की.

इसके फौरन बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को SECC के आंकड़े जारी करने और हर 10 साल में होने वाली जनगणना में जाति की गिनती को भी शामिल करने के लिए लेटर लिखा. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और दूसरे कांग्रेस नेताओं ने भी इसका समर्थन किया.

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तालमेल के साथ उठाए गए कांग्रेस नेताओं के इस कदम से साबित होता है कि ग्रैंड ओल्ड पार्टी अगले महीने हो रहे कर्नाटक विधानसभा चुनाव के साथ-साथ 2024 के लोकसभा चुनाव में जातिगत जनगणना को चुनावी मुद्दा बनाने जा रही है.

क्षेत्रीय दलों ने बढ़त बनाई

कई क्षेत्रीय दल पहले से ही जातिगत जनगणना की मांग उठाते आ रहे हैं. बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल महागठबंधन सरकार अपनी पहल पर राज्य में जाति आधारित सर्वे शुरू किया है, और यह जल्द पूरा हो जाएगा. इसी तरह का एक सर्वे जल्द ही ओडिशा में भी शुरू होगा, जहां नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली बीजू जनता दल (BJD) की सरकार है. द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) ने केंद्र सरकार से जनगणना अधिनियम, 1948 में बदलाव करने की मांग की है जिससे कि राज्य सरकारों को राज्य स्तर पर जनसंख्या की जनगणना करने की छूट मिल सके और वे अपनी खुद की जातिगत जनगणना कर सकें.

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की अगुवाई में DMK ने हाल ही में सामाजिक न्याय सम्मेलन किया, जिसका बुनियादी एजेंडा जातिगत जनगणना की मांग थी.

इस सम्मेलन में अशोक गहलोत, तेजस्वी यादव, एम. वीरप्पा मोइली, छगन भुजबल, फारूक अब्दुल्ला, सीताराम येचुरी, अखिलेश यादव और डेरेक ओ ब्रायन सहित देश के तमाम नेता एक साथ आए. ज्यादातर नेताओं ने अपने भाषण में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया.

बुजुर्ग कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली ने भी जातिगत जनगणना की मांग पर जोर दिया. पिछले साल अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान खुद राहुल गांधी ने भी यह मांग उठाई थी. इस साल की शुरुआत में रायपुर में पार्टी के 85वें अधिवेशन में इसे फिर से दोहराया गया.

इसी सम्मेलन में कांग्रेस ने अपनी कार्यसमिति और सभी पार्टी पदों में अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति/ अन्य पिछड़ा वर्ग/ अल्पसंख्यकों के लिए 50% सीटें आरक्षित करने के लिए पार्टी संविधान में भी संशोधन किया. पार्टी ने एक अलग ओबीसी मंत्रालय, उच्च न्यायपालिका में आरक्षण और प्राइवेट सेक्टर में भी कोटा का वादा किया. इस समय कांग्रेस अध्यक्ष एक दलित हैं और कांग्रेस के तीन में से दो मुख्यमंत्री OBC पृष्ठभूमि से हैं. इससे पता चलता है कि कांग्रेस बुनियादी आधार पर सामाजिक न्याय के लिए जोर-शोर से काम कर रही है.

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हालांकि इस मुद्दे पर पार्टी के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए लोगों को संदेह हो सकता है कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का OBC और जातिगत जनगणना के लिए नया जोश सच्चा है या सिर्फ चुनावी चारा है.

कांग्रेस का पुराना रिकॉर्ड

जातिगत जनगणना की मांग भारत की आजादी जितनी ही पुरानी है. पहले पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे काका कालेलकर आयोग (Kaka Kalelkar Commission) के नाम से जाना जाता है, ने 1955 में जवाहरलाल नेहरू सरकार को अपनी सिफारिशों के साथ रिपोर्ट सौंपी थी. हालांकि कांग्रेस सरकार ने इसे 1961 की जनगणना में या बाद में भी कभी भी लागू नहीं किया. इसने OBC के लिए कोई सकारात्मक कदम भी नहीं उठाया. कालेलकर आयोग की रिपोर्ट नेहरू को पसंद नहीं आई और कचरे के डिब्बे में पहुंच गई.

25 साल बाद इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने इसी तरह मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल से मना कर दिया. वह वीपी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार थी जिसने आजादी के 43 साल बाद 1990 में OBC के लिए आरक्षण की शुरुआत की. इन 43 सालों में केंद्र में ज्यादातर समय तक कांग्रेस पार्टी ही सरकारें रहीं.

हालांकि, कांग्रेस केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे IIT और IIM जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में OBC आरक्षण शुरू करने का श्रेय ले सकती है, लेकिन यह सवाल भी उठ सकता है कि इस फैसले के लिए उसे 2006 तक क्यों इंतजार करना पड़ा.

राहुल गांधी, एम वीरप्पा मोइली और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे कांग्रेस नेता सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना का श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि 2011 की दस वर्षीय जनगणना में जातियों की गिनती करने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार को हर तरफ से हमले का सामना करना पड़ रहा था. मोइली सहित कई राजनीतिक दलों और नेताओं के लंबे अभियान के बाद ही यह मुमकिन हुआ. इस दौरान मोइली को इस मुद्दे पर खुल कर बोलने के लिए पार्टी की तरफ से फटकार भी लगाई गई थी.

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इसके साथ ही SECC एक समझौता था. कांग्रेस पार्टी ने जातिगत गणना को मुख्य जनगणना में शामिल करने से इनकार कर दिया था. UPA ने 2014 में अपने कार्यकाल के अंत तक SECC के आंकड़ों को जारी नहीं किया था.

दिलचस्प बात यह है कि उस समय BJP जातिगत जनगणना के पक्ष में थी- तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने इसकी वकालत की थी.

इसके अलावा जैसा कि कांग्रेस के गुरदीप सिंह सप्पल ने ट्विटर पर बताया, तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सितंबर 2018 में कहा था कि OBC जनगणना 2021 की दस वर्षीय जनगणना का हिस्सा होगी. हालांकि अब उन्होंने यह कहते हुए अपना रुख बदल लिया है कि जनगणना में कोई जातिगत गणना नहीं होगी.

इस इतिहास के बावजूद जातिगत जनगणना और दलित जातियों के कल्याण की मांग को कांग्रेस का खुले दिल से समर्थन, चाहे वह ईमानदार हो या न हो, सामाजिक न्याय को आम चुनाव में बड़ा मुद्दा बना सकता है और मोदी के विजयरथ से मुकाबले के लिए विपक्षी दलों का एक हथियार भी बन सकता है.

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