कांग्रेस पार्टी (Congress) के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने मंगलवार 3 अगस्त को विपक्षी पार्टियों के सदस्यों के साथ ब्रेकफास्ट के दौरान बैठक की और इसके बाद ईंधनों की बढ़ती कीमतों का विरोध करने के लिए साइकल से संसद तक की यात्रा की.
राहुल गांधी ने कहा कि "हमारे नाम और चेहरे महत्वपूर्ण नहीं हैं. महत्वपूर्ण यह है कि हम उन करोड़ों भारतीयों की पीड़ा को दर्शा रहे हैं जो मूल्य वृद्धि की वजह से पीड़ित हैं."
नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए राहुल गांधी ट्रैक्टर से संसद तक गए थे. उस घटना के बमुश्किल एक हफ्ते बाद ही यह ब्रेकफास्ट बैठक आयोजित की गई है.
राहुल गांधी के इन सभी प्रयासों में एक पैटर्न नजर आता है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वे बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) के विरुद्ध मुख्य विपक्षी चेहरा बनने के एक व्यापक रणनीति के तहत अन्य सदस्यों के बीच खुद की स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं.
इसके दो पहलू हैं.
1. राहुल गांधी का सबसे अहम कदम यूपीए के बाहर पहुंच बनाना
इसमें कोई संदेह नहीं है कि राहुल गांधी कांग्रेस और उसके अन्य सहयोगी दल जैसे डीएमके, आरजेडी और जेजेएम के बीच सबसे लोकप्रिय नेता हैं और इसमें उनकी स्वीकार्यता भी काफी है. हालांकि उन्होंने अन्य विपक्षी दलों से दूरियां बना रखी है. अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ समीकरण बनाने का नेतृत्व यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया है और इसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने दूत के तौर पर काम किया है.
ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि अब राहुल गांधी अन्य विपक्षी दलों के बीच पहुंच बढ़ाने के लिए प्रयास कर रहे हैं. मंगलवार को ब्रेकफास्ट के दौरान की गई बैठक उसी दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है.
पिछले महीने भी राहुल गांधी ने विपक्षी सांसदों के साथ बैठक की थी. लेकिन उस मुलाकात और मंगलवार को हुई ब्रेकफास्ट मीटिंग में थोड़ा सा अंतर रहा. पिछली बैठक छोटी थी, उसमें राहुल गांधी ने खुद को साइडलाइन किया हुआ और विपक्षी दलों के लोगों को अपनी बात कहने दी थी. लेकिन मंगलवार की मीटिंग राहुल गांधी का शो था. यह शो उन्हें एकजुट विपक्ष के चेहरे के तौर पर दिखाने के लिए था.
मोटे तौर पर देखा जाए तो पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस इस बात को सुनिश्चित करने में कामयाब रही है कि उसके पक्ष में कई पार्टियां हैं. डीएमके, आरजेडी, जेएमएम, आईयूएमएल और केसीएम जैसे यूपीए के घटक दलों के अलावा बैठक में टीएमसी, समाजवादी पार्टी, सीपीआई (एम) और सीपीआई जैसे महत्वपूर्ण विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों के अलावा महाराष्ट्र में कांग्रेस की गैर-यूपीए सहयोगी शिवसेना पार्टी के प्रतिनिधि भी शामिल थे.
इन पार्टियों ने कोविड-19 महामारी और कृषि कानून जैसे प्रमुख मुद्दों को समाहित करते हुए लिखे गए एक संयुक्त पत्र में हस्ताक्षर भी किए हैं. यह पत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए लिखा गया है.
आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे ऐसे दल जो कांग्रेस और बीजेपी से समान दूरी बनाकर रखते हैं, वे इस बैठक से दूर थे.
वहीं ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन जैसे कुछ अन्य लोगों को कांग्रेस द्वारा आमंत्रित नहीं किया गया था, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह वैचारिक मतभेदों की वजह से था या सांसदों की संख्या के कारण.
2. पेगासस, मूल्य वृद्धि और कृषि कानून जैसे सटीक मुद्दों का चयन
पेगासस जासूसी विवाद एक ऐसा प्रमुख मुद्दा रहा है जिसने विपक्ष के एक वर्ग को एकजुट होकर साथ आने और राहुल गांधी को उसके केंद्र में रखने के लिए मजबूर किया है.
राहुल गांधी, अभिषेक बनर्जी, एचडी कुमारस्वामी और रणनीतिकार प्रशांत किशोर जैसे विपक्षी नेताओं की निजता पर कथित हमले ने विपक्ष में अर्जेंसी यानी अति-आवश्यकता की भावना पैदा कर दी है.
इसने विशेष तौर पर कांग्रेस और टीएमसी को एक साथ लाने का काम किया है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सोनिया गांधी और राहुल गांधी जैसे शीर्ष कांग्रेस नेताओं के साथ हालिया बैठकों से यह स्पष्ट दिखता है.
जिस तरह से विभिन्न मुद्दों को इस्तेमाल किया जा रहा है उसमें दिलचस्प बारीकियां दिखाई देती है. ब्रेकफास्ट मीटिंग से लेकर संसद तक पेगासस विपक्ष के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है. इसके साथ ही मंहगाई के विरोध में राहुल का सार्वजनिक साइकल मार्च और किसान विरोध के लिए ट्रैक्टर मार्च भी हुआ.
यह रणनीति एक मंझे हुए अनुभव का उदाहरण भी है. क्योंकि पेगासस की तुलना में मूल्य वृद्धि के विरोध में किया गया साइकल मार्च और किसानों के पक्ष में किया ट्रैक्टर मार्च जनता के मुद्दों से जुड़ा था और इसमें लोगों का आकर्षण कहीं ज्यादा है.
आगे क्या?
राहुल गांधी की बढ़ी हुई सक्रियता कांग्रेस में हुई हाल की नियुक्तियों में भी दिखाई देती है.पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू, तेलंगाना में ए रेवंत रेड्डी और केरल में के सुधाकरन को नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. वहीं राजस्थान में कैबिनेट फेरबदल के लिए किए जा रहे विचार-विमर्श को भी इससे जोड़ा जा सकता है. जिसके लिए राहुल गांधी की टीम के प्रमुख सदस्य अजय माकन महत्वपूर्ण केंद्रबिंदु हैं.
एक और घटनाक्रम सामने आ रहा है. रणनीतिकार प्रशांत किशोर के कांग्रेस में एक महत्वपूर्ण पद पर शामिल होने की संभावना जताई जा रही है, शायद वे चुनाव रणनीति के प्रभारी महासचिव के रूप में शामिल हों. इसमें काफी हद तक संभावना है कि किशोर के इनपुट ने राहुल गांधी की हालिया गतिविधि में भूमिका निभाई हो.
ये तमाम बातें एक ही ओर इशारा करती हैं - वे यह कि कांग्रेस निकट भविष्य में एक बड़े बदलाव की ओर अग्रसर है. राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में लौटते हैं या नहीं लेकिन यह स्पष्ट है कि इस बदलाव के पीछे वे ही प्रमुख व्यक्ति हैं.
हालांकि कुछ कांग्रेस नेता परिवर्तनों की इस प्रकृति से असहमत हो सकते हैं और कुछ अपना प्रभाव खो सकते हैं, लेकिन पार्टी में शायद ही कोई ऐसा हो जो इस तरह के बदलाव की आवश्यकता पर विवाद करे.
राहुल गांधी का समर्थन करने के लिए अन्य विपक्षी नेताओं को राजी करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है. जबकि डीएमके, आरजेडी और जेएमएम ने पहले भी राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार किया है. टीएमसी और सपा जैसी पार्टियों के लिए ऐसा करना आसान नहीं हो सकता. वहीं अब तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि एनसीपी और शिवसेना राहुल गांधी को पीएम चेहरे के तौर पर विचार करने के लिए कितनी सहज होंगी.
दूसरी समस्या यह है कि राहुल गांधी पिछले सात वर्षों में पीएम नरेंद्र मोदी को वास्तविक चुनौती रहे हैं. वहीं 2018 में कुछ समय को छोड़ दें तो मोदी ने हर सर्वे में गांधी पर लगातार एक स्वस्थ बढ़त हासिल की है, जो दोनों की लोकप्रियता में एक बड़ा अंतर दर्शाता है. हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत में यह अंतर विशेष रूप से व्यापक है.
अब यह देखा जाना बाकी है कि क्या रीपैकेज्ड व पीके की सलाह वाले राहुल गांधी और एक कायापलट की गई कांग्रेस उस अंतर को पाटने के लिए पर्याप्त होगी.
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